सत्य के अन्वेषण के लिए यह आवश्यक है कि हमारा दृष्टिकोण व्यापक हो और हम किसी एक दिशा या धारणा से मुक्त होकर विचार करें। यह सिद्धांत जीवन के प्रत्येक आयाम पर लागू होता है। आज हमें भले वनों में निवासरत सभी जनजातीय बंधु और नगरों में विलासिता का जीवन जीने वाला समाज पृथक लग सकता है, किंतु यदि अतीत की विकास यात्रा का अध्ययन करें तो यह जानकर हमें आश्चर्य होगा कि दोनों जीवन एक रूप हैं और सभी ऋषियों की संतान हैं। ऐसा नहीं है कि नगरों में जीवन का अंकुरण अलग हुआ और वनों में अलग। नगर या ग्राम तो जीवन यात्रा का विकसित स्वरूप हैं जो समय के साथ विकसित हुए। जीवन का अंकुरण तो वनों में ही हुआ और वहीं मनुष्य जीवन विकास प्रक्रिया आरंभ हुई।
आज हम समाज को नगरवासी, ग्रामवासी और वनवासी तीन शब्दों से परिभाषित करते हैं। पर वैदिक अवधारणा ऐसी नहीं है। वैदिक साहित्य में जनजाति ही सबसे प्रारंभिक शब्द है। वनवासी, ग्रामवासी और नगरवासी शब्द तो बाद में आए। ऋग्वेद में समस्त मानव जाति के लिए जनजाति शब्द का ही उपयोग हुआ है। ऋग्वेद में ‘जन’ शब्द 127 बार आया है। जनपद, महाजनपद, जनसंख्या और शासक के लिए राजन् शब्द का उपयोग हुआ है। आज की जनतांत्रिक प्रणाली में जनप्रतिनिधि जैसे शब्द भी ‘जन’ से ही बने हैं। जो समस्त मनुष्य जाति के लिए प्रयुक्त होते हैं।
जब हम ‘जनसंख्या’, ‘जनभावना’ या ‘जनप्रतिनिधि’ जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं, तब इसका आशय किसी क्षेत्र, वर्ग या धर्म के अनुयायियों अथवा किसी संस्कृति विशेष के मनुष्यों के लिए नहीं होता। यह समस्त मनुष्यों के प्रति संकेत करता है। भारतीय चिंतन में यह स्पष्ट है कि समस्त मानव जाति ऋषियों की संतान हैं। उसमें यह वर्गीकरण है ही नहीं है कि कुछ लोग ऋषि संतान हैं और कुछ नहीं। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से लेकर पुराणों की व्याख्या तक में इस तथ्य को बारम्बार दोहराया गया है कि सभी मनुष्य सप्त ऋषियों की संतान हैं। जनजातियों में भी गोत्र और उपनाम परंपरा है जो पूरी तरह ऋषियों के नाम से मेल खाती है।
ऋषि परंपरा का आरंभ
भारतीय अवधारणा के अनुसार सृष्टि विकास क्रम में सबसे पहले स्वर उत्पन्न हुआ। स्वर से पांच तत्व उत्पन्न हुए। इनसे अग्नि, जल, धरती, आकाश और पवन बने। समय के साथ करोड़ो वर्षों में धरती पर वन और पर्वत उत्पन्न हुए। विज्ञान ने भी माना है कि पहले धरती, फिर वन, पर्वत अस्तित्व में आए, फिर जीवन का अंकुरण हुआ। विज्ञान के निष्कर्ष में अभी धरती पर वन, पर्वत और मनुष्य की उत्पत्ति के समय का अंतिम निर्धारण होना है, फिर भी अभी यह सर्वमान्य है कि धरती पर वन और पर्वतों की उत्पत्ति प्राणियों की उत्पति से पहले हुई। कम से कम साढ़े तीन करोड़ वर्ष पहले वन और पर्वत अस्तित्व में आ गए थे और इसके लगभग डेढ करोड़ वर्ष बाद मानव जीवन अस्तित्व में आया। इस प्रकार मनुष्य जीवन की उत्पत्ति लगभग दो करोड़ वर्ष पहले हुई।
इसी बात को भारतीय मनीषियों ने कुछ इस प्रकार कहा कि करोड़ो वर्ष तक धरती के रिक्त रहने के बाद ब्रह्मा जी ने मानव जीवन के विकास का विचार किया और प्रचेताओं को उत्पन्न किया। फिर इन प्रचेताओं को मनुष्य जीवन के विकास वृद्धि का निर्देश दिया, किन्तु प्रचेता तपस्या में ही लीन हो गए। उनके तपस्या में लीन हो जाने के कारण मनुष्य जीवन का विकास क्रम आगे बढ़ा ही नहीं। तब पृथ्वी के आग्रह पर ब्रह्मा जी ने सात ऋषियों और सात कन्याओं को उत्पन्न किया और मनुष्य जीवन की वृद्धि का निर्देश दिया। प्रथम मन्वंतर में जो सप्त ऋषि हुए उनमें कश्यप, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, भृगु और वशिष्ठ हैं। भारतीय समाज में इन्हीं सप्त ऋषियों से गोत्र परंपरा आरंभ हुई और इन्हीं सप्तऋषियों के वंशजों से 127 गोत्र प्रवर्तक ऋषि हुए।
ऋषि नामों की गोत्र परंपरा
भारत में एक गोत्र परंपरा है जो सभी वर्णों में मिलती है। गोत्र का जन्म, जाति या क्षेत्र से कोई अंतर नहीं आता। कुल 127 गोत्र प्रवर्तक ऋषि माने गए हैं। इन सभी ऋषियों के नाम वेद रचना में मिलते हैं। आइए कुछ प्रमुख गोत्र देखें।
एक ऋषि भृगु हुए हैं। भृगु-वंशी ब्राह्मणों में एक शाखा भगौरिया होती है, जो भृगु आचार्य का अपभ्रंश है, जनजातियों में भी भगौरिया होते हैं। ब्राह्मणों में गौड़ वर्ग होता है। जनजातियों में भी गौड़ होता है। लेकिन योजनापूर्वक ‘ड़’ के स्थान पर ‘ड’ किया गया और ऊपर बिंदी लगाकर गोंड कर दिया। यूं भी अंग्रेजी में गौड़ नहीं लिखा जा सकता। उसे या तो ‘डी’ से लिखते हैं या ‘आर’ से। इसीलिए भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कहीं गौर भी मिलते हैं और गौंड भी। एक ऋषि ‘भिल्ल’ हुए हैं। ये सूर्य के उपासक थे इसलिए सूर्य का एक नाम ‘भिल्लस्वामिन’ है। भील शब्द इसी से बना है। मध्य प्रदेश में एक प्राचीन नगर भेलसा रहा है। यह वैदिक कालीन नगर है।
आजकल इसका नाम विदिशा है। यहां दूर-दूर तक भील जनजाति समाज नहीं है। यहां कभी सुप्रसिद्ध सूर्य मंदिर रहा है। उस मंदिर के कारण इसका नाम ‘भिल्लस्वामिन’ था, जो समय के साथ पहले भिल्लसा हुआ और बाद में भेलसा। इसी प्रकार मुद्गल, बुधायन, वकुल आदि ऋषियों के नामों के अपभ्रंश भी जनजातीय समाज के उपवर्ग में मिलते हैं। सभी ऋषिगण वन में रहते थे और उनका पूरा जीवन प्रकृतिस्थ होता था। इसी तरह जनजातियों का जीवन भी ऋषि शैली के अनुरूप एकदम प्रकृति के अनुकूल ही है।
भारत में सृष्टि के आरंभ का स्थल ब्रह्मवृत माना जाता है। यह भूमि और वनक्षेत्र नर्मदा नदी, अरावली पर्वत और विंध्याचल के मध्य रहा है। तब हिमालय नहीं था। इससे लगा हुआ भूभाग आर्यावर्त था। एक निश्चित आदर्श को लेकर जीवन जीने वाले नागरिक आर्य कहलाते थे। जीवन के ये आदर्श सिद्धांत ऋषियों ने विकसित किए थे। जनजातीय जीवन भी आर्य परंपरा के आदर्श के अनुरूप होता है, किंतु भारतीय समाज को बांटने के लिए आर्यों को हमलावर प्रचारित कर दिया गया। जबकि ऋग्वेद में संकल्प है कि विश्व को आर्य बनाना है। वेद यदि विश्व को आर्य बनाने की बात करते हैं तो पूरे संसार में आदर्श जीवन स्थापित करने का संकल्प है, न कि किसी क्षेत्र, धर्म, पंथ या जाति के उत्थान की बात।
इसकी पुष्टि भारतीय आश्रम व्यवस्था से भी होती है। यदि 100 वर्ष की औसत आयु है तो व्यक्ति को लगभग 70 वर्ष वन में ही जीवन जीना होता था। पांच वर्ष की आयु में पढ़ने जाना, 25 वर्ष की आयु में लौटना, गृहस्थाश्रम के बाद फिर वानप्रस्थ और संन्यास वन में। तब कैसे वन में निवासरत जनजातीय समाज अलग हो सकता है। हम इनमें नहीं हैं कि मनुष्य का पूर्वज बंदर था। हमारी अवधारणा है कि सप्तऋषि मनुष्य के पूर्वज हैं। सप्तऋषि वन में ही जन्मे और वन में ही रहते थे। जनजातीय समाज वन में जन्मा है। वे प्रकृति के अनुरूप जीवन जीते हैं, यह शैली ऋषियों की ही है। इसलिए संपूर्ण जनजातीय समाज के पूर्वज ऋषि ही हैं। यूं भी वनों में विकसित होकर ही मनुष्य ने ग्रामों का विकास किया और ग्रामों को विकसित कर नगर बसाए। आज किसी भी नगरवासी से पूछ लीजिए, उसका मूल किसी न किसी ग्राम से मिलता है। 400 वर्ष पहले तक भारतीय ग्रामों में रहने वाले प्रत्येक ग्रामवासी को पता था कि उसका संबंध किस वन से और किस ऋषि से है।
कुल मिलाकर भारत में रहने वाले प्रत्येक जन के पूर्वज ऋषि हैं भले वह नगर में रहता हो, ग्राम में अथवा वन में। इस नाते भारत की प्रत्येक जनजाति के पूर्वज भी ऋषि रहे हैं।
रघुनाथ सिंह मंडलोई भिलाला जनजाति के थे। उन्होंने1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया और अपनी विद्रोहात्मक गतिविधियों से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। वह घात लगाकर अंग्रेजों पर हमला करते और जंगल में जाकर छिप जाते। अंग्रेजों ने उनके पूरे परिवार को गिरफ्तार कर लिया, पर वे नहीं झुके। उनमें अद्भुत संगठन क्षमता थी। मेजर कीटिंग ने जालसाजी कर रघुनाथ सिंह मंडलोई को बंदी बना लिया। पहले उन्होंने खरगोन जेल में रखा। 18 अक्तूबर, 1858 को कड़ी सुरक्षा में इंदौर स्थानान्तरित किया गया। ऐसा कहा जाता है कि 1868 के आसपास उनको मृत्युदंड दिया गया। ऐसा भी कहा जाता है कि उनके परिवार को निमाड़-मालवा के जंगलों में छोड़ दिया गया। एक शूरवीर, स्वातंत्र्य सैनिक का पूरा परिवार बलिदान हो गया, परंतु यह महान योद्धा इतिहास में सदैव प्रतिष्ठित रहेगा।
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