अजमेर सेक्स स्कैंडल और ब्लैकमेल के तीन मास्टरमाइंड नफीस चिश्ती, फारुक चिश्ती और अनवर चिश्ती, जो अजमेर दरगाह के खादिम परिवार से हैं। तीनों कांग्रेस से भी जुड़े हुए थे। नफीस चिश्ती ने पूरी योजना के तहत एक उद्योगपति के बेटे से दोस्ती गांठी और उसे शहर से कुछ दूर स्थित एक फार्महाउस पर ले गया। वहां उसे पेय में नशीली दवा मिलाकर पिलाई।
उसकी आपत्तिजनक तस्वीरें खींची और ब्लैकमेल कर अपनी महिला मित्र को बुलाने के लिए दबाव डाला। जब वह फार्महाउस पर आई तो उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया और उसकी आपत्तिजनक व नग्न तस्वीरें खींच लीं। इसके बाद उसे भी ब्लैकमेल किया गया। आरोपियों ने उसे धमकाया कि यदि उसने अपनी सहेलियों को उनसे नहीं मिलवाया या उनके पास नहीं बुलाया तो उसकी तस्वीरें वायरल कर देंगे और उसके परिवार को भी बदनाम कर देंगे। इस तरह एक छात्रा से दूसरी छात्रा, दूसरी से तीसरी दर्जनों छात्राओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म और ब्लैकमेल जैसे कुकृत्य का सिलसिला चलता रहा।
तब डिजिटल कैमरे नहीं होते थे। रील को डेवलप करवाकर फोटो तैयार की जाती थी। उस फार्महाउस पर खींची जाने वाली तस्वीरों को डेवलप और प्रिंट कराने के लिए अजमेर कलर लैब में भेजा जाता था। यहीं से तस्वीरें लीक हुईं और शहर भर में फैल गईं। इससे कई लड़कियों की बदनामी हुई और बदनामी व ब्लैकमेल से तंग आकर उन्होंने आत्महत्या कर ली। जब एक के बाद एक छह लड़कियों ने आत्महत्या की, तब लोगों का ध्यान इस तरफ गया। उधर, अजमेर कलर लैब के लीक तस्वीर मीडिया के पास भी पहुंची। एक अखबार में इसके बारे में खबर भी छपी।
तत्कालीन एसपी महेंद्रनाथ धवन ने मौखिक सूचना के आधार पर डीएसपी हरि प्रसाद शर्मा को इस प्रकरण की जांच का जिम्मा सौंपा। शुरुआती जांच के बाद प्राथमिकी (संख्या-117/92) दर्ज की गई। गहन जांच में पता चला कि अजमेर दरगाह के खादिम परिवार से जुड़े लोग इस कांड के मास्टरमाइंड हैं। मामले की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने मई 1992 को जांच का जिम्मा सीबी सीआईडी को सौंपा। इस मामले में शुरू में आठ लोगों को आरोपी बनाया गया था, लेकिन जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, आरोपियों की संख्या बढ़ती गई।
नवंबर 1992 में पहली बार जब आरोप-पत्र दाखिल किया गया, तब आरोपियों की संख्या 18 थी। इनमें से नौ गिरफ्तार हो चुके थे। एक आरोपी पुरुषोत्तम, जो जमानत पर था, ने 1994 में आत्महत्या कर ली। फास्ट ट्रैक कोर्ट ने 18 मई, 1998 को सभी आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। 20 जुलाई, 2001 को उच्च न्यायालय ने चार आरोपियों को बरी कर दिया और चार की सजा बरकरार रखी। 19 दिसंबर, 2003 को बाकी बचे चार आरोपियों को बरी कर दिया। मुख्य आरोपियों में एक फारुख चिश्ती, जिसे उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी, उच्च न्यायालय ने 2013 में दिमागी हालत खराब होने के कारण उसे रिहा कर दिया।
इसके बाद फरार आरोपियों की गिरफ्तारी हुई, जिनमें से 6 को 32 वर्ष बाद उम्रकैद की सजा मिली है। एक आरोपी, जहूर चिश्ती पर एक लड़के के साथ दुष्कर्म का केस भी चल रहा है। अदालत के फैसले के बाद 68 वर्षीया पीड़िता ने दुख जताते हुए कहा, ‘‘इन दरिंदों को सजा कम मिली है। इन्होंने कई लड़कियों का जीवन खराब किया। कई ने जान दे दी, कई लोगों के घर-परिवार उजड़ गए। उन्हें छिपकर अपनी जिंदगी बितानी पड़ी।
कई पहले ही छूट कर अजमेर में रसूख से जी रहे हैं। क्या यह न्याय तंत्र की कमजोरी नहीं है? क्या देरी से मिला ये न्याय पूरा है? खादिम परिवार के लोगों का ऐसे जघन्य अपराध का मास्टरमाइंड होना क्या हमारे मन में खौफ पैदा नहीं करता? महिला सुरक्षा के लिए आवाज उठाने वाले ज्यादातर संगठनों की चुप्पी क्या ‘सिलेक्टिव एक्टिविज्म’ नहीं है? क्या सिलेक्टिव एक्टिविज्म देश व समाज के लिए खतरा नहीं है? क्या इसे देश के विरुद्ध एक षड्यंत्र कहना गलत होगा? महिला सुरक्षा और सम्मान के प्रति न्याय प्रणाली में बदलाव हो, ताकि त्वरित न्याय से महिलाओं में सुरक्षा को लेकर भरोसा पनप सके।
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