मध्य प्रदेश के भोपाल स्थित कुशाभाऊ ठाकरे हॉल में पाञ्चजन्य के सुशासन संवाद में प्रज्ञा प्रवाह के मालवा प्रांत के संयोजक डॉ मिलिंद दांडेकर ने ‘धरोहर का ध्यान’ मुद्दे पर बात की। उन्होंने धार भोजशाला को लेकर बात करते हुए कहा कि धार भोजशाला 11वीं शताब्दी में राजा भोज द्वारा बनाई गई संस्कृत पाठशाला थी। इसमें वेदों का अध्ययन होता था और विशेषरूप से भाषा शास्त्र का अध्ययन होता था। जैसा कि हर शिक्षा मंदिर में होता है कि मां सरस्वती की एक प्रतिमा वहां पर होती है, वैसे ही यहां पर भी मां सरस्वती यानि कि वाग्देवी की एक प्रतिमा थी।
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लेकिन, आज इस पर जो विवाद हो रहा है ये कोई सामान्य विवाद नहीं है। ये कोई जमीन या संपत्ति का मुकदमा भी नहीं है। ये भोजशाला के इस्तेमाल की बात है जो हजारों वर्षों से चला आ रहा है। भोजशाला का प्रारंभिक इतिहास यही है कि राजा भोज ने अपने कार्यकाल के दौरान जितने ग्रंथ या पुस्तकें लिखे, उसी प्रकार से धार नगर में उन्होंने भोजशाला का निर्माण करवाया था। राजा भोज का कार्यकाल ईस्वी सन् 1010 से 1055 तक था। इसी समय के दौरान इसका निर्माण करवाया गया था। लेकिन, ये निर्माण भी किसी सपाट जमीन पर नहीं करवाया गया था, उसके पहले भी कोई पाठशाला वहां पर रही होगी, जिसके प्रमाण हमें आज भी मिलते हैं।
मिलिंद दांडेकर कहते हैं हाल ही में जब एएसआई ने सर्वे किया था तो खुदाई में मिली ईंटों में ब्राम्ही लिपि में कुछ लिखावट मिली थी। क्योंकि ब्राम्ही लिपि राजा भोज के कार्यकाल के पहले थी, अत: भोजशाला के पहले भी वहां पर किसी स्ट्रक्चर के होने की संभावना है। भोजशाला के मंदिर और पाठशाला का जो स्वरूप है वह 1000 से 1055 के बीच का है। उसके बाद उसमें वाग्देवी की प्रतिमा का जो उल्लेख मिलता है वो भी लगभग ईस्वी सन् 1034-35 के आसपास का है। दांडेकर ने कहा कि राजा भोज के कार्यकाल के करीब 3-4 पीढ़ियों तक वहां पर निर्माण कार्य चलते रहे। जिस तरह के अकादमिक योगदान आज हो रहे हैं, उसी तरह के कंट्रीब्यूशन उस काल में भी होते थे।
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राजा भोज के उत्तराधिकारी उदयादित्य नरवरमन द्वारा अनेक प्रकार के शिलालेख लगाए गए, जिसके प्रमाण आज भी मिलते हैं और वहां पर लगे हुए हैं। इसी तरह से राजा भोज की तीसरी पीढ़ी के राजा अर्जुन वर्मा के राज कवि ने एक काव्य रचना की थी, जिसमें भोजशाला के निर्माण को लेकर स्पष्ट रूप से वर्णित किया गया है। उसका उल्लेख भी भोजशाला में मिलता है। भोजशाला को पहले सरस्वती सदन के नाम से जाना जाता था, लेकिन वर्तमान में हम भोज पाठशाला को भोजशाला कहने लगे हैं। हालांकि, जो लेख उपलब्ध हैं, उसमें भोजशाला नाम कहीं नहीं है। उसके बाद खिलजी वंश के लोगों ने सबसे पहले जब मालवा पर हमला किया था, तो उन्हीं के वंशज गोगादेव और महालख ने उससे काफी संघर्ष किया था।
लेकिन, कालांतर में जैसे कि हमारे देश के इतिहासकारों ने लिखा है कि हर संघर्ष के अंत में मुगलों को विजयी दिखाया जाता था, वैसा ही इसमें भी हुआ। इसी के साथ धार और इसके आसपास का इलाका मुस्लिम आक्रांताओं के अधीन हो गया। मालवा के स्वतंत्र स्लतनत की शुरुआत भी उसी समय हुई थी। इसी को दिल्ली सल्तनत कहते हैं, जिसमें बाद में कुतुब मीनार और खिलजी वंश आता है तो दिल्ली सल्तनत से अलग कुछ ऑटोनॉमस बॉडी बनी थी, जिसके अंतर्गत खिलजियों के वंशज ने मालवा सल्तनत बनाई थी। ये सारी घटनाएं मुगलों के आने के करीब 200 वर्ष पहले की हैं।
उसके बाद मुगलों के कमजोर हो जाने के बाद 1510 में औरंगजेब की मौत हो गई। बाद में जब बाजीराव पेशवा ने मुगलों को जीतना शुरू किया तो उन्होंने सबसे पहले उत्तर भारत में चिमाजी अप्पा, जो उनके छोटे भाई थे, उन्हें भेजा और उन्होंने इसे मुगल मुक्त किया। क्योंकि दिल्ली सल्तनत रेवेन्यु मॉडल पर चल रही थी, जिसमें सुरक्षा के नाम पर कर वसूला जाता था। बाजीराव पेशवा ने चिमाजी अप्पा के जरिए जब मालवा इलाके में अपना आधिपत्य जमाया तो उन्होंने भी यही नीति अपनाई। उन्होंने यूनाइटेड स्टेट ऑफ इंडिया जैसा कॉन्सेप्ट अपनाया, जिसके तहत लोगों को सुरक्षा के बदले उनसे कर लिए गए थे। इस प्रकार यहां पर जो रियासते बांटी गई मालवा क्षेत्र में होल्कर, सिंधिया और पवार। इसमें से धार की कमान पवार नाम एक सरदार को दी गई थी। इसीलिए 1732 के बाद से धार में पवारों का शासन रहा। यही कारण है कि धार में पवारों की संख्या अधिक है।
मिलिंद दांडेकर कहते हैं कि भोजशाला का पूरा इलाका पवारों के अधीन रहा। हालांकि, कोई आक्रमण नहीं हुआ, लेकिन पवारों के शासनकाल के दौरान भोजशाला जैसी धरोहरों का अनुरक्षण भी नहीं हुआ, जिसके कारण इसका ‘ग्रैजुअल कोरोजन एंड इरोजन’ इस प्रकार की वास्तुओं का होता रहा। सन 1875 में धार के राजा के समय में पहली बार भोजशाला और उसके आसपास थोड़ी खुदाई शुरू हुई थी, क्योंकि 1818 में अंग्रेजों के शासन के समाप्ति की ओर चलने के बाद इन सभी को प्रिंसली स्टेट का दर्जा मिला था। प्रिंसली स्टेट में पहली बार ऑर्कियोलॉजिकल डिपार्टमेंट अंग्रेजों ने खोले थे। हालांकि, सत्ता भले ही राजा के पास थी, लेकिन विभाग अंग्रेजों के पास था। अंग्रेजों के ही नेतृत्व में मालवा क्षेत्र के पुराततत्व विभाग ने पहली बार यहां पर खुदाई की थी। उस दौरान 1875 में यहां वाग्देवी की प्रतिमा निकली। भोपावर के पॉलिटिकल एजेंट मेजर किसकिन ने उसे लंदन भेज दिया था। वाग्देवी की प्रतिमा आज भी लंदन स्थित स्टुअर्ट संग्रहालय में रखी हुई है। प्रख्यात ऑर्कियोलॉजिस्ट प्रो वाकड़कर ने लंदन जाकर उस प्रतिमा को वहां देखा था। उसके बाद ये सिलसिला चलता रहा। धार के एजुकेशन सुपरिटेंडेंट ने इस पर काफी काम किया और कई सारे शिलालेख भोजशाला में से निकाले थे।
हालांकि, जब इसका पता अंग्रेजों को चला तो वे इसके बारे में जानने के लिए इतने जिज्ञासु हुए के खुद उस वक्त के गवर्नर लॉर्ड कर्जन ने भोजशाला का दौरा किया था, जहां उन्हें दो बड़े शिलालेख मिले थे। इसमें पहला शिलालेख प्रकृत भाषा में था तो दूसरा संस्कृत में था। उन दोनों शिलालेखों की कर्जन ने कॉर्बन कॉपी कराई थी। बाद में उन दोनों शिलालेखों को मुंबई स्थित एशियाटिक सोसायटी भेज दिया गया। जिसे बाद में किंग जॉर्ज मेमोरियल (शिवाजी म्यूजियम) में स्थानांतरित कर दिए गए। ये दोनों शिलालेख आज भी वहां पर मौजूद हैं।
धार भोजशाला का नामकरण
धार भोजशाला के वाचक परंपरा को लेकर डॉ मिलिंद दांडेकर कहते हैं कि इसका उल्लेख धार गजेटियर और धार के रिकॉर्ड्स में उपलब्ध है। वाचक परंपरा में तो लोग इसे भोजशाला कहते हैं, लेकिन पुराने ग्रंथों में इसका नाम सरस्वती सदन था। लेकिन, लोकभावना के अनुरूप धार के राजा ने 1934 में इसका वाचक परंपरा का नाम पट्टिका में लिखवाया। तब से आज तक वहां पर भोजशाला नाम की पट्टिका आज भी लगी हुई है। धार भोजशाला को मुस्लिमों करीब 90 साल पहले मस्जिद करार दिया था, जिसके बाद संघर्ष की स्थिति बनी थी। मुस्लिमों के द्वारा उपद्रव और हिंसा आज भी ऑन रिकॉर्ड है। मुस्लिमों के उपद्रव का ही परिणाम था कि धार के राजा ने उनके दबाव में आते हुए हर शुक्रवार को भोजशाला में नमाज पढ़ने की अनुमति दी थी।
प्रश्न: भोजशाला के परिसर के अंदर पहले नमाज पढ़ी जाती थी, अधिकार कितने क्षेत्र में था? और विवाद किस क्षेत्र को लेकर हुआ?
उत्तर: विवाद इसलिए उत्पन्न हुआ कि भोजशाला के ही बाहर एक कमाउद्दीन मौला की दरगाह बनाई गई थी, जिसे खिलजी वंश के एक उत्तराधिकारी ने बनाया था। ऐसा दावा किया जाता है कि कमालउद्दीन मौला कोई बड़े सूफी संत थे, जिनकी मजार वहां बनाई गई है। जबकि, इसी पर एक तर्क ये भी है कि उनकी असली दरगाह तो आज भी अहमदाबाद में है। फिर भी लोग वहां आकर उसकी उपासना करते थे। जब मुस्लिमों को जगह कम पड़ने लगी तो वे धार के राजा के पास गए और उनसे कहा कि हमें शुक्रवार को जगह कम पड़ती है तो धार भोजशाला के अंदर को बड़ा कंपाउंड है तो हमें नमाज पढ़ने के लिए दे दी जाय। इसलिए धारा के राजा ने 1935 ने उन्हें एक आदेश दिया था, जिसमें उन्हें नमाज पढ़ने की इजाजत दी गई थी। उसमें दो-दो बोर्ड भी लगाए गए थे। उससे पहले के किसी भी रकॉर्ड में भोजशाला का कमाल मौला नाम से वर्णन नहीं है। न ही ऐसा कोई दस्तावेज है, जिसमें कभी वहां नमाज पढ़ी गई हो।
हालांकि, 1935 के आदेश के बाद जिस तरह से मुस्लिमों ने भोजशाला के अंदर जाना शुरू किया, उससे हिन्दू समाज थोड़ा जागृत हुआ और 1947 के बाद भोजशाला को प्राप्त करने के लिए एक रक्षा समिति गठित की गई। इसके बाद वसंत पंचमी के मौके पर हिन्दू समाज ने 1952 में वहां, जहां पर वाग्देवी की प्रतिमा थी वहां पर पूजा की और उत्सव मनाया। तभी से ये बात भी शुरू हुई। हालांकि, मुस्लिम पक्ष लगातार इसका विरोध करता रहा, लेकिन उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली। अंत में 1962 में मुस्लिम पक्ष ने पहली बार मौलाना कमालउद्दीन कमेटी रजिस्टर करके, उसकी तरफ से धार जिला अदालत में एक सिविल सूट फाइल किया। मुस्लिमों ने दावा किया कि भोजशाला असल में कमाल मौला मस्जिद है और ये वक्फ की प्रॉपर्टी है अत: इसे हमें सौंप दिया जाए। इसमें केंद्र, राज्य और एएसआई को पार्टी बनाया गया था। इस मामले में एएसआई ने अपना एफिडेविट फाइल किया था, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यहां पर कोई मस्जिद नहीं थी। नमाज की इजाजत केवल जगह के इस्तेमाल के लिए दी गई थी। ये कोई भी प्लेस ऑफ वर्शिप नहीं है। ये हलफनामा वर्ष 1966 में दायर किया गया था, उस दौरान इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं।
उस हलफनामे को देखने के बाद मुस्लिम पक्ष ने कोई स्टैंड नहीं लिया, जिसके बाद उनका दावा खारिज हो गया। इसीलिए आज भी कोर्ट में जब हम बात करते हैं उसमें ये बताया जाता है कि भारत सरकार ये कह चुकी है कि वहां पर कोई मस्जिद नहीं थी। पिछले 50-60 वर्षों में भारत सरकार का इसको लेकर स्टैंड क्लियर है, जिसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। हालांकि, इसको लेकर अलग-अलग आंदोलन होते रहे और अंत में जब दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने भोजशाला को बंद कर दिया। इसमें कहा गया था कि मुसलमान हर शुक्रवार को भोजशाला में नमाज पढ़ सकता है, लेकिन बाकी दिनों में यह बंद रहेगी। हिन्दू केवल बसंत पंचमी के दिन ही वहां पर पूजा कर सकेंगे। दिग्विजय सिंह के कारण हमें एक दिन मिला और उन्हें 52 दिन मिला। 1997 के बाद भोजशाला को मुक्त कराने के लिए बड़ा आंदोलन चला। 2003 में एक लाख हिन्दुओं ने भोजशाला में प्रदर्शन किया। बड़ी धर्मसभा हुई, जिसमें भोजशाला को मुक्त कराने का संकल्प लिया गया। उसके बाद केंद्र सरकार ने इसे गंभीरता से लेते हुए हिन्दू पक्ष से भी बात की और तय हुआ कि इसका हल होना चाहिए।
भोजशाला को लेकर जो अंतिम आदेश जारी हुआ वो 2003 में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने दिया था, जो कि आज भी प्रभावी है। उस दौरान जगमोहन संस्कृति मंत्री थे और अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री थे। उस दौरान उन्होंने आंदोलनकारियों को समझाया था कि आप ऐसा कुछ मत कीजिए कि इसमें लिटिगेशन हो जाए। तब केंद्र के द्वारा जारी आदेश के मुताबिक, मंगलवार को वहां पर हिन्दू पूजा कर सकते हैं, बाकि दिनों में यह पर्य़टकों के लिए खुला रहेगा।
प्रश्न: एएसआई की रिपोर्ट के बाद अभी क्या चल रहा है भोजशाला मामले में?
उत्तर: मिलिंद दांडेकर बताते हैं कि 2003 के बाद से ये ऐसा ही चलता रहा। हम मंगलवार को वहां पूजा करते हैं। वसंत पंचमी पर वहां बड़ा उत्सव होता है फिर 4 रिट पिटीशन कोर्ट में दाखिल हुई। इसमें भी 3 मेंटेन हुई। जबकि, एक याचिकाकर्ता खुद जज बन गए तो उन्होंने उसे वापस ले ली। अभी ये जो मामला चल रहा है उसमें मुस्लिम पक्ष ने एक याचिका दायर की थी, जिसमें हिन्दुओं की पूजा, उनका प्रवेश और बसंत पंचमी के उत्सव को बंद करने की मांग की गई थी। उसके बाद अभी हाल ही में वरिष्ठ वकील विष्णु जैन ने भी एक याचिका दायर की और कहा कि 2003 के आदेश के मुताबिक, हिन्दू-मुस्लिम दोनों को ही प्रवेश की अनुमति है। ऐसे में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जिसमें पूजा और नमाज दोनों होती हों। इसलिए इसे सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है। उन्होंने ने एएसआई सर्वे की मांग की थी। इस याचिका पर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने सर्वे करने का आदेश दिया। सर्वे हुआ, जिसकी ढाई हजार पन्नों की रिपोर्ट कोर्ट में सबमिट हो चुकी है। मैं आपको बता सकता हूं के ये केस हिन्दुओं के पक्ष में हैं। हालांकि, ये अभी न्यायालय के अधीन है।
हालांकि, इससे नाराज मुस्लिम पक्ष दो महीने पहले ही सुप्रीम कोर्ट गया है। जहां मुस्लिम पक्ष के वकील सलमान खुर्शीद ने सर्वे पर रोक लगाने की मांग की, जिसे शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया। हालांकि, कोर्ट ने कहा था कि सर्वे की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की जाए, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट इस पर फैसला नहीं दे देता। वर्तमान स्थिति ये है कि केवल शुक्रवार के दिन वो लोग आकर वहां पर नमाज पढ़ते हैं।
प्रश्न: हम देखते हैं कि हमारे लिए काशी विश्वनाथ हैं, कृष्ण जन्मभूमि के साक्ष्य और भोजशाला एक ऐसा विषय है, जिसके अंदर जहां मूर्तियां बनी हैं वहां तो वैसे भी नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। ये फैसला होने में इतनी देरी क्यों होती है?
उत्तर: मुझे लगता है कि इसमें सबसे कम समय लगने की बात है, क्योंकि इसमें कोई जमीन का विवाद नहीं है। ये एएसआई की प्रॉपर्टी है। कृष्ण जन्मभूमि, राम जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ तो सिविल सूट का मुकदमा है, जिसमें प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट भी लागू होता है। लेकिन, भोजशाला मामले में ये एक्ट लागू नहीं होगा, क्योंकि ये एएसआई की प्रॉपर्टी है। एएसआई उसे रखे, लेकिन सवाल इस्तेमाल का है और वो हिन्दू समाज को चाहिए। अजमेर में स्थित ढाई दिन का झोपड़ा भी राजा भोज ने बनवाया था, वो भी एक पाठशाला है।
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