प्लास्टिक प्रदूषण पूरी दुनिया के समक्ष एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या के रूप में उभर रहा है और पर्यावरण में घुले प्लास्टिक के सूक्ष्म कण (माइक्रोप्लास्टिक) तो मनुष्य के शरीर के भीतर पहुंचकर स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। यही कारण है कि अब दुनियाभर के वैज्ञानिक मानव शरीर पर प्लास्टिक के सूक्ष्म कणों के पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर इसके दुष्परिणामों के प्रति आगाह कर रहे हैं। लिपस्टिक, काजल, शैम्पू इत्यादि सौंदर्य प्रसाधनों, खाद्य पैकेजिंग, प्लास्टिक के बर्तनों इत्यादि के जरिये भी प्लास्टिक के सूक्ष्म कण मानव शरीर में पहुंचकर नुकसान पहुंचा रहे हैं। कुछ अध्ययनों के अनुसार पूरी दुनिया में प्लास्टिक में करीब 10 हजार प्रकार के रसायन बगैर रोक-टोक मिलाए जा रहे हैं।
नेशनल ओशनिक एंड एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन (नोआ) के अनुसार माइक्रोप्लास्टिक पांच मिलीमीटर से छोटे प्लास्टिक के कण होते हैं। प्लास्टिक के ऐसे कुछ कण तो इतने सूक्ष्म होते हैं, जिन्हें खुली आंखों से नहीं देखा सकता। भौतिक, जैविक एवं रासायनिक क्रियाओं के माध्यम से उत्पन्न होने वाले यही सूक्ष्म कण स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बन जाते हैं। एंडोक्राइन सोसायटी के ‘जर्नल ऑफ क्लीनिकल एंडोक्राइनोलॉजी एंड मेटाबॉलिज्म’ में प्रकाशित एक अध्ययन में यह तथ्य सामने आया कि प्लास्टिक को अधिक टिकाऊ और आरामदायक बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले ‘थैलेट’ (एसिड यौगिक) के सम्पर्क में आने से महिलाओं में मधुमेह रोग का खतरा बढ़ सकता है। थैलेट रसायन मधुमेह के अलावा प्रजनन क्षमता तथा अन्य विकारों से भी जुड़ा है।
ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में तो मनुष्यों के मल में भी माइक्रोप्लास्टिक की उपस्थिति पाई जा चुकी है, वहीं, यूके स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन में किशोरों के मूत्र में प्लास्टिक बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले रसायन ‘बिस्फेनॉल ए’ (बीपीए) की काफी मात्रा पाई गई। नीदरलैंड के वैज्ञानिक तो मां के दूध तक में भी माइक्रोप्लास्टिक मिलने की पुष्टि कर चुके हैं, जिन्हें मां के दूध के 25 नमूनों में से 18 में माइक्रोप्लास्टिक मिला।
मछली, घोंघे, कछुए इत्यादि विभिन्न समुद्री जीवों के शरीर में भी अब माइक्रोप्लास्टिक की उपस्थिति मिलना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अब धरती का शायद कोई कोना इसके दुष्प्रभावों से अछूता नहीं है। चिंताजनक स्थिति यही है कि अब समुद्रों से लेकर नदियों, मिट्टी, हवा और बारिश के पानी तक में प्लास्टिक पहुंच चुका है। वैज्ञानिक उत्तरी फुलमार के समुद्री पक्षियों के मल में 47 फीसदी तक माइक्रोप्लास्टिक के कण पाए जाने का भी खुलासा कर चुके हैं।
समुद्री जीवों के शरीर में भी माइक्रोप्लास्टिक की उपस्थिति से न केवल समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है बल्कि सी-फूड खाने वाले लोगों के शरीर में भी इसके जरिये प्लास्टिक पहुंच जाता है, जो धीरे-धीरे उनके आमाशय में एकत्रित होने लगता है और व्यक्ति विभिन्न प्रकार की बीमारियों का शिकार होने लगता है। रॉयल मेलबोर्न इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी तथा हैनान विश्वविद्यालय के एक अध्ययन से पता चला था कि प्लास्टिक के सूक्ष्म और दूषित रसायन के 12.5 फीसदी कण मछलियों तक पहुंच जाते हैं, जो उन्हें भोजन समझकर निगल जाती हैं।
प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण उन्हें बड़ा नुकसान पहुंचाते हैं, यहां तक कई मछलियां इनके कारण मर भी जाती हैं। अनुमान लगाया जा रहा है कि 2050 तक समुद्र में पहुंचे प्लास्टिक का वजन दुनियाभर में मछलियों के कुल वजन से भी ज्यादा होगा। इंडोनेशिया के एयरलंग्गा विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ता वेरिल हसन के मुताबिक समुद्री मछलियां मानव शरीर में माइक्रोप्लास्टिक पहुंचाने का प्रमुख माध्यम बन चुकी हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक कचरे का ज्यादातर प्लास्टिक डंप यार्ड में क्षीण होकर पानी में मिल जाता है। आईयूसीएन के अनुसार विगत चार दशकों में समुद्र के सतही जल में माइक्रोप्लास्टिक के कणों में काफी मात्रा में वृद्धि हुई है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक लंबे समय में मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर जोखिम पैदा कर सकता है क्योंकि उनके अंदर के दूषित पदार्थ कई बीमारियों से जुड़े हैं, जिनमें हृदय संबंधी और प्रजनन संबंधी समस्याओं के अलावा मोटापा, मधुमेह, कैंसर इत्यादि भी शामिल हैं। मानव शरीर में माइक्रोप्लास्टिक समाने से पाचन तंत्र और आंतों से लेकर कोशिकाओं तक को खतरा माना गया है, इसके अलावा कैंसर, हृदय रोग, किडनी, पेट तथा लिवर के रोग, मोटापा और मां के गर्भ में मौजूद भ्रूण का विकास रुकने के दावे भी हो चुके हैं। माइक्रोप्लास्टिक गर्भवती महिलाओं में फेफड़ों से लेकर दिल, दिमाग और भ्रूण के अन्य अंगों को तेजी से नुकसान पहुंचा सकते हैं।
विभिन्न अध्ययनों से यह पुष्टि हो चुकी है कि प्लास्टिक के सूक्ष्म कणों से मानव शरीर की कोशिकाएं तो प्रभावित होती ही हैं, इससे शरीर में रक्त प्रवाह में भी बाधा आती है, त्वचा और सांस संबंधी जोखिम बढ़ जाते हैं। कई अध्ययनों में तंत्रिका तंत्र पर प्लास्टिक के खतरनाक प्रभावों के बारे में बताया जा चुका है। हाल ही में एक अध्ययन में खाद्य पैकेजिंग तथा पेंट में इस्तेमाल होने वाले माइक्रोप्लास्टिक के इंसानी नसों में पाए जाने का भी पता चला है। अमेरिका के यॉर्क मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन में 15 माइक्रोप्लास्टिक प्रति ग्राम नसों के उत्तकों में मिला। वैज्ञानिकों के मुताबिक प्लास्टिक के कण मानव शरीर में आसानी से पहुंच जाते हैं और उनके आकार के आधार पर ये कण या तो उत्सर्जित होते हैं या पेट तथा आंतों में फंस जाते हैं या फिर रक्त में स्वतंत्र रूप से बहते रहते हैं, जिससे शरीर के विभिन्न अंगों और ऊतकों तक ये आसानी से पहुंच जाते हैं और शरीर बीमार होने लगता है। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण मानव स्वास्थ्य के लिए किसी टाइम-बम की तरह बनते जा रहे हैं, जो हमारे शरीर के आधे से भी ज्यादा अंदरूनी अंगों को क्षति पहुंचा सकते हैं।
मलेशिया, ऑस्ट्रेलिया तथा इंडोनेशिया के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में तो यह भी बताया गया है कि मानव शरीर में प्रति सप्ताह औसतन एक क्रेडिट कार्ड के वजन के बराबर यानी पांच ग्राम या उससे भी ज्यादा प्लास्टिक पहुंच रहा है। मलेशियाई अध्ययनकर्ता तो मानव शरीर में प्रतिदिन 5 मिलीमीटर से छोटे 12 से 1 लाख तक प्लास्टिक कण पहुंचने का दावा कर चुके हैं। उनके मुताबिक सालभर में 11845 से 193200 माइक्रोप्लास्टिक कण मानव शरीर में पहुंचते हैं, जिनका वजन 7.7 से 287 ग्राम तक होता है। नीदरलैंड में व्रीजे यूनिवर्सिटी एम्स्टर्डम के अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक पिछले अध्ययनों से पता चला कि शिशुओं के मल में व्यस्कों की तुलना में 10 गुना ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक था और प्लास्टिक की बोतलों से दूध पीने वाले बच्चे तो एक ही दिन में लाखों माइक्रोप्लास्टिक कण निगल रहे हैं।
माइक्रोप्लास्टिक प्लास्टिक के महीन कण होते हैं, जो आमतौर पर भोजन या पेय पदार्थों के जरिये अथवा सांस के जरिये और यहां तक कि त्वचा के माध्यम से भी मानव शरीर में प्रवेश कर सकते हैं और मानव शरीर में प्रवेश करने के बाद प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण पाचन, श्वसन तथा परिसंचरण तंत्र में चले जाते हैं। एक अध्ययन में यह खुलासा भी हुआ है कि माइक्रोप्लास्टिक लाल रक्त कोशिकाओं की बाहरी झिल्लियों से चिपक सकता है और ऑक्सीजन की परिवहन क्षमता को सीमित कर सकता है। शरीर में माइक्रोप्लास्टिक कणों का सबसे बड़ा स्रोत पेयजल को माना गया है, जिसमें नल का पानी तथा बोतलबंद पानी दोनों ही शामिल हैं। कुछ अध्ययनों के अनुसार बोतलबंद पानी में माइक्रोप्लास्टिक का खतरा काफी ज्यादा है। भोजन और पेय पदार्थों के अलावा घरों की धूल के जरिये भी माइक्रोप्लास्टिक कण मानव शरीर के अंदर चले जाते हैं, जिससे मानव को ज्यादा खतरा है। इससे संभावित रूप से प्रतिदिन 26 से 130 अतिरिक्त माइक्रोप्लास्टिक कण फेफड़ों के सम्पर्क में आते हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक लंबे समय में मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर जोखिम पैदा कर सकता है क्योंकि उनके अंदर के दूषित पदार्थ कई बीमारियों से जुड़े हैं, जिनमें हृदय संबंधी और प्रजनन संबंधी समस्याओं के अलावा मोटापा, मधुमेह, कैंसर इत्यादि भी शामिल हैं। मानव शरीर में माइक्रोप्लास्टिक समाने से पाचन तंत्र और आंतों से लेकर कोशिकाओं तक को खतरा माना गया है, इसके अलावा कैंसर, हृदय रोग, किडनी, पेट तथा लिवर के रोग, मोटापा और मां के गर्भ में मौजूद भ्रूण का विकास रुकने के दावे भी हो चुके हैं। माइक्रोप्लास्टिक गर्भवती महिलाओं में फेफड़ों से लेकर दिल, दिमाग और भ्रूण के अन्य अंगों को तेजी से नुकसान पहुंचा सकते हैं। बहरहाल, माइक्रोप्लास्टिक को इंसानी शरीर में जाने से रोकने का सबसे बेहतर और कारगर तरीका सिर्फ यही है कि प्लास्टिक का निर्माण और उपयोग न्यूनतम किया जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा पर्यावरण मामलों के जानकार हैं, पर्यावरण पर ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक लिख चुके हैं)
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