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होम भारत बिहार

‘सुधा’ बनी संजीवनी

बिहार में सुधा डेयरी के कारण पशुपालकों में समृद्धि बढ़ी है, तो वहीं आम लोगों को पर्याप्त दूध और उसके उत्पाद मिल रहे हैं। उम्मीद है कि सुधा की यह यात्रा लंबे समय तक चलेगी

by संजीव कुमार
Jul 3, 2024, 07:15 am IST
in बिहार
सुधा डेयरी की एक इकाई

सुधा डेयरी की एक इकाई

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बिहार के बारे में एक आम धारणा है कि यहां सहकारिता और उद्यमिता की बात करनी बेकार है। लेकिन इस धारणा को ध्वस्त किया है सुधा डेयरी ने। सुधा डेयरी संस्कार, सहकार, उद्यमिता और विकास की नई कहानी गढ़ रही है। बता दें कि पटना डेयरी प्रोजेक्ट की देखरेख में बिहार के सात स्थानों पर सुधा डेयरी के उत्पाद तैयार होते हैं। दुग्ध उत्पादक किसान अपने समीप वाले केंद्र में दूध जमा करते हैं। सारे केंद्रों के दूध को एक स्थान पर प्रसंस्करित किया जाता है और फिर कई प्रकार के दूध, घी, मक्खन, छाछ, आइसक्रीम जैसे उत्पाद बनते हैं। आज सुधा डेयरी का सालाना कारोबार 5,000 करोड़ रुपए का है। सुधा डेयरी की सफलता की कहानी एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में भी शामिल है।

सुधा डेयरी की शुरुआत के पीछे एक घटना है। अमूल डेयरी से प्रभावित होकर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस पद्धति को देश के अन्य भागों में लागू करने का आग्रह डॉ. वर्गीज कुरियन से किया था। इस बात को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय डेयरी बोर्ड की स्थापना की गई और इस कार्यक्रम को ‘आपरेशन फ्लड’ का नाम दिया गया। इसी क्रम में बिहार सरकार द्वारा केेंद्र के सहयोग से 1972 में बिहार में ‘आपरेशन फ्लड योजना’ की शुरुआत हुई।

छोटे गांव की आशा

आशा देवी बेगूसराय जिले के भगवानपुर प्रखंड अंतर्गत बसही गांव में रहती थी। वह 21 दिसंबर, 1997 को डेयरी कॉरपोरेशन सोसायटी बरौनी की सदस्य बनी, किंतु उनकी जगह उनके पति सिकंदर महतो काम देखते थे। लगभग 2 साल समिति चलाने के बाद सिकंदर समिति का पैसा लेकर करनाल भाग गया। लोग आशा से पैसा मांगने लगे। उसने भरी पंचायत में स्पष्ट कहा कि अब वह समिति की देखरेख स्वयं करेगी और सभी का पैसा 6 महीने में चुकता कर देगी। पैसा चुकता नहीं करने पर उसके हिस्से की 10 कट्ठा जमीन पर समिति के लोगों का अधिकार होगा। उस महिला के आत्मविश्वास पर पंचायत ने मोहर लगा दी। आशा ने भी लगन और मेहनत के साथ काम किया। लोग भी जुड़ने लगे। आज इस गांव के लोगों की किस्मत बदल चुकी है। अब आशा का पति भी लौट आया है।

इसके पहले चरण में कोई खास सफलता नहीं मिली। फिर कुछ वर्ष बाद कार्य ठीक हुआ तो राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव ने कहा कि राज्य सरकार बिहार स्टेट डेयरी कॉरपोरेशन लिमिटेड को अपने अधिकार में लेगी। डॉ. कुरियन ने इसका विरोध किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि डेयरी किसानों (दुग्ध उत्पादकों) के हवाले की जाए। उनकी इस मांग के सामने बिहार सरकार को झुकना पड़ा और डेयरी किसानों को समर्पित कर दी गई। बाद में इसे ही सुधा डेयरी कहा जाने लगा।

अब सरकार इस डेयरी की प्रशासनिक व्यवस्था को ही देखती है। बाकी कार्य दुग्ध उत्पादक किसान संघ ही करते हैं। यह डेयरी 1988 से निरंतर जन सेवा में लगी है। इससे जहां दुग्ध उत्पादक किसानों की आय बढ़ी है, वहीं बिहार के लोगों को पर्याप्त मात्रा में दूध और उसके उत्पाद मिल रहे हैं। कभी बिहार में किसी पर्व-त्योहार में दूध नहीं मिलता था, लेकिन अब चाहे जितना दूध लेना चाहें, ले सकते हैं। अब तो बिहार के बाहर भी सुधा डेयरी के उत्पाद मिलने लगे लगे हैं। यह सब इसलिए संभव हो पाया है,क्योंकि दुग्ध उत्पादक किसान संघों पर सरकार का कोई खास हस्तक्षेप नहीं है।

 

Topics: अमूल डेयरीAmul Dairyसहकारिता और उद्यमिता की बातआपरेशन फ्लड योजनाtalk of co-operation and entrepreneurshipOperation Flood Scheme
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