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परास्त वंशवादी, विजयी लोकतंत्र

जम्मू—कश्मीर की जनता ने अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद हुए लोकसभा चुनाव में लोकतंत्र के प्रति स्पष्ट आस्था दर्शाई। जनता ने वंशवादी ताकतों को परास्त किया है जो दशकों से घाटी के आवाम को बंधक बनाकर विभाजनकारी एजेंडा चलाती आ रही थी। राज्य ने इस बार के परिणाम से स्पष्ट संकेत दिया कि यहां अब किसी एक परिवार की दरोगाई नहीं चलने वाली

by राजा मुनीब
Jun 13, 2024, 07:51 am IST
in विश्लेषण, जम्‍मू एवं कश्‍मीर
चुनाव जीतने के बाद विजयी मुद्रा में डॉ. जितेंद्र सिंह एवं जुगल किशोर

चुनाव जीतने के बाद विजयी मुद्रा में डॉ. जितेंद्र सिंह एवं जुगल किशोर

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अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद जम्मू-कश्मीर के पांच लोकसभा क्षेत्रों में हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में मतदाताओं की भागीदारी ने रिकार्ड कायम किया है। यह स्पष्ट संकेत है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करके जम्मू-कश्मीर को देश के बाकी हिस्सों के साथ पूरी तरह से एकीकृत करने के ऐतिहासिक निर्णय को घाटी के लोगों ने सकारात्मक माना और अपनी स्वीकृति जताई है। निश्चित ही अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य को नया रूप मिला है, इसने लंबे समय से चली आ रही उस अलगाववादी राजनीति की जड़ें हिला दीं, जिसने तीन दशकों से इस क्षेत्र को आतंकवाद और अराजकता के दुष्चक्र में घेरे रखा था।

इस क्षेत्र में व्याप्त अलगाववाद और सीमापार आतंकवाद पिछले चुनावों को बड़े पैमाने पर विफल करता रहा था। यहां तक कि मुख्य क्षेत्रीय पार्टियां भी अपने राजनीतिक लाभ के लिए अलगाववादियों को खुश करने की होड़ में उनके ही विचार का पोषण करने में जुटी रहीं। वे अक्सर चाशनी में डूबे शब्दों के सहारे लोगों को गुमराह कर अलगाववाद की विषाक्त राजनीति को सफल बनाने का षड्यंत्र रचते रहे, जिससे घाटी में भारत विरोधी भावनाओं को बढ़ावा मिलता रहा। ये पार्टियां एक तरफ लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में भाग लेने का दिखावा कर चुनावी क्षेत्रों को खुश करने में कुशल थीं,वहीं अंदर ही अंदर अलगाववादी गुटों को संतुष्ट करने की तरकीब भी जानती थीं।

कश्मीर के अवाम की आड़ लेकर स्वयं और यहां के लोगों को पीड़ित दर्शाते हुए इन पार्टियों ने न केवल अलगाववाद को सही ठहराया बल्कि राजनीतिक अस्थिरता और आतंकी हिंसा के चक्र को भी जारी रखा। चुनावों के दौरान आपराधिक गतिविधियों और हेरफेर में उनकी मिलीभगत ने लोकतांत्रिक संस्थाओं पर लोगों के विश्वास को कमजोर कर दिया था, जिससे आबादी का एक बड़ा हिस्सा अलग-थलग पड़ गया। अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद जम्मू-कश्मीर में मतदान में हुई वृद्धि क्षेत्र के उभरते सशक्त स्वरूप और अलगाववादी राजनीति से मुक्त युग का आरंभ है। साथ ही कश्मीर के लोगों को पीड़ित और अराजक हालात का शिकार बताकर राजनीतिक शतरंज खेलने वालों की करारी हार हुई है। समूचे जम्मू—कश्मीर के पांच निर्वाचन क्षेत्रों के चुनावी परिणाम का विश्लेषण यह बताता है कि अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण ने लोगों को किसी भी प्रकार की धमकी या हिंसा के भय से मुक्त होकर अपना भविष्य खुद बनाने की वास्तविक लोकतांत्रिक शक्ति प्रदान की है।

आगे रहीं महिलाएं

स्थानीय अवाम की समावेशी भागीदारी का सबसे अच्छा उदाहरण उत्तरी कश्मीर के बारामूला निर्वाचन क्षेत्र में दिखाई दिया, जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से काफी अधिक रही, जो अतीत में घाटी के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी थे। इस निर्वाचन क्षेत्र ने अब तक का अपना सर्वाधिक मतदान का रिकॉर्ड तोड़ते हुए 59 प्रतिशत से अधिक वोट डाले। मतदान के दौरान अधिकांश पुरुषों और महिलाओं का कहना था कि वे विकास कार्यों और अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए मतदान कर रहे हैं। बारामूला लोकसभा में उड़ी, कुपवाड़ा और करनाह के सीमावर्ती इलाकों सहित कुल 18 विधानसभा क्षेत्र हैं। बारामूला जिले का सोपोर इस निर्वाचन क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण अंग है।

अलगाववाद का केंद्र और अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और आतंकी अफजल के गृह नगर के रूप में कुख्यात सेब के शहर के निवासी अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से पहले किसी भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से खुद को दूर ही रखते थे। 2019 में सोपोर में लोकसभा चुनाव में केवल 4 फीसदी मतदान हुआ था। 2024 के लोकसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत 40 अंकों की उछाल के साथ 44 फीसदी हो गया। गौर करने लायक बात है कि इस बार प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी से जुड़े लोग भी बड़ी संख्या में मतदान करने निकले। अतीत में यही लोग चुनाव का बहिष्कार करने के लिए लोगों को धमकाया करते थे और अलगाववादी नेताओं के इशारे पर सड़कों पर हिंसा फैलाते थे।

बारामूला लोकसभा क्षेत्र के नतीजों ने वंशवादी राजनीतिक पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस को भारी झटका दिया है। इस लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे जेकेएनसी के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला को निर्दलीय उम्मीदवार इंजीनियर रशीद के हाथों दो लाख से अधिक मतों के अंतर से करारी हार का सामना करना पड़ा। रशीद ने यह सीट 472481 वोटों के साथ जीती, जबकि उमर अब्दुल्ला को 238669 वोट और जेकेपीसी के सज्जाद लोन को 173239 वोट मिले। इसे उत्तरी कश्मीर के लोगों द्वारा वंशवादी नेताओं के खिलाफ दिए गए स्पष्ट फैसले के रूप में देखा जा रहा है, जो दशकों तक आम लोगों को दरकिनार करके अपने एजेंडे और आकांक्षाओं को पूरा करते रहे हैं।

उमर अब्दुल्ला और महबूूबा मुफ्ती को हराकर घाटी ने विभाजनकारी एजेंडे को परास्त किया

हार गईं महबूबा

इसी तरह दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग-राजौरी निर्वाचन क्षेत्र में एक और वंशवादी राजनेता को धूल चाटनी पड़ी। इस निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहीं पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती को लोगों ने करारा झटका देते हुए उनके प्रतिद्वंद्वी जेकेएनसी के मियां अल्ताफ को विजयी बना दिया। मुफ्ती अपने प्रतिद्वंद्वी से 2,81,794 वोटों के बड़े अंतर से हार गईं। जेकेएनसी के मियां अल्ताफ एक मजहबी गुज्जर नेता हैं, जिन्हें 5,21,836 वोट मिले, जबकि महबूबा को केवल 240042 वोट ही मिल पाए। अनंतनाग महबूबा मुफ्ती का गृह निर्वाचन क्षेत्र है और इसे पीडीपी का गढ़ भी माना जाता है।

दक्षिण कश्मीर कभी आतंकवादी गतिविधियों और कट्टर अलगाववादी राजनीति का केंद्र था, जो महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी के लिए एक स्वाभाविक आधार प्रदान करता रहा। अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के पहले तक उनकी पकड़ यहां बेहद मजबूत थी। महबूबा मुफ्ती अपने मौजूदा प्रचार अभियान में भी अलगाववाद और मजहबी उत्पीड़न का रोना रोकर लोगों को उकसाती रहती थीं। मुसलमानों को पीड़ित बताने से लेकर ईवीएम को दोष देने तक महबूबा ने मतदाताओं को बरगलाने की हरसंभव कोशिश की। लेकिन उनकी करारी हार ने साबित कर दिया कि इस क्षेत्र के लोगों ने विभाजनकारी एजेंडे को धूल चटा दी है और केवल विकास और बेहतर भविष्य के लिए मतदान किया है, जिसका वादा उनके प्रतिद्वंद्वी जेकेएनसी के मियां अल्ताफ अपने चुनाव अभियान के दौरान करते रहे।

श्रीनगर लोकसभा क्षेत्र में मतदान प्रतिशत 2019 के 23 फीसदी से बढ़कर 2024 में लगभग 40 फीसदी हो गया। इस सीट पर जेकेएनसी के आगाह रूहुल्ला, पीडीपी के वहीद पारा और अल्ताफ बुखारी के नेतृत्व वाली अपनी पार्टी के उम्मीदवार अशरफ मीर के बीच त्रिकोणीय मुकाबला था। श्रीनगर पारंपरिक रूप से जेकेएनसी का गढ़ रहा है और इसके संरक्षक फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने पहले भी श्रीनगर से लोकसभा चुनाव जीते हैं। 2019 में फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर से आसानी से जीत हासिल की और इस बार जेकेएनसी ने फिर से इस निर्वाचन क्षेत्र को बरकरार रखने में कामयाबी हासिल की है।

पीडीपी ने एक बार फिर अनुच्छेद 370 को हटाने को मुख्य मुद्दा बनाते हुए प्रचार किया, लेकिन जेकेएनसी ने मतदाताओं को विकास और रोजगार के नाम पर मतदान करने के लिए मनाया। सकारात्मक अभियान के नतीजे सामने आए और जेकेएनसी ने भारी अंतर से चुनाव जीता। बडगाम जिले से शिया नेता एनसी उम्मीदवार आगाह रूहुल्ला को 356866 वोट मिले, जबकि दूसरे स्थान पर रहे पीडीपी के वहीद पारा को केवल 168450 वोट मिले। अल्ताफ बुखारी के नेतृत्व वाली अपनी पार्टी को केवल 65954 वोट मिले और वह तीसरे स्थान पर रही। इस निर्वाचन क्षेत्र का मुख्य आकर्षण युवाओं की उत्साहपूर्ण भागीदारी थी। खासकर पहली बार मतदान करने वाले मतदाता, जो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए उत्साहित थे उन्होंने बड़ी संख्या में भागीदारी की।

जम्मू—उधमपुर लोकसभा सीट

जम्मू क्षेत्र की जुड़वां सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला देखने को मिला। जम्मू सीट से भाजपा के मौजूदा सांसद जुगल किशोर ने एक बार फिर कांग्रेस के अपने प्रतिद्वंद्वी रमन भल्ला को 135498 वोटों के अंतर से हराया। भाजपा उम्मीदवार को कुल 687588 वोट मिले, जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी को 552090 वोट मिले। जम्मू में 72.22 फीसदी मतदान हुआ। इसे लोगों ने अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद पहला बड़ा चुनाव माना। उधमपुर लोकसभा सीट पर 68 फीसदी मतदान हुआ, जिसमें भाजपा के मौजूदा सांसद डॉ. जितेंद्र सिंह का मुकाबला कांग्रेस के चौधरी लाल सिंह से था। भाजपा उम्मीदवार ने अपने कांग्रेसी प्रतिद्वंदी को 124373 वोटों के अंतर से हराया। जहां डॉ. जितेंद्र सिंह को 571076 वोट मिले, वहीं चौधरी लाल सिंह को 446703 वोट मिले। 2014 से पीएम मोदी के नेतृत्व में भाजपा उम्मीदवारों के मजबूत प्रदर्शन के कारण भाजपा दोनों सीटों पर बनी रही। अनुच्छेद 370 का निरस्त होना जम्मू क्षेत्र के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण घटना थी, क्योंकि घाटी में जेकेएनसी और पीडीपी का वर्चस्व होने के कारण यहां के लोगों की उपेक्षा होती थी और स्वयं को हाशिए पर ही पाते थे।

लद्दाख में बड़ा उलटफेर

अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद लद्दाख के लोगों की लंबे समय से की जा रही मांग का सम्मान करते हुए लद्दाख क्षेत्र को एक अलग केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया। 2019 में भाजपा ने इस निर्वाचन क्षेत्र में आराम से जीत हासिल की थी, लेकिन 2024 में भाजपा से यह सीट फिसल गई। भाजपा के निवर्तमान सांसद जामयांग त्सेरिंग नामग्याल भाजपा के टिकट पर फिर से चुनाव लड़ने वाले थे, लेकिन भाजपा ने अचानक उनकी जगह ताशी ग्यालसन को मैदान में उतार दिया। ऐसे में जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के बागी नेता और निर्दलीय उम्मीदवार मोहम्मद हनीफ का उभार एक आश्चर्य जनक घटना है। कांग्रेस के त्सेरिंग नामग्याल और भाजपा के ग्यालसन को हराकर लद्दाख लोकसभा सीट जीत ली। मोहम्मद हनीफ को कुल 65259 वोट मिले, जबकि नामग्याल को 37397 और ग्यालसन को भाजपा के लिए 31956 वोट मिले।

बहरहाल, राज्य में हुआ रिकॉर्ड मतदान इस क्षेत्र की राजनीतिक यात्रा में मील का पत्थर साबित हुए हैं। यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों के प्रति उभरते नए विश्वास और अलगाववादी विचारधाराओं को पटखनी देने का शुभ संकेत जम्मू—कश्मीर के लोगों ने दिया है। अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से राजनीतिक भागीदारी और समावेशी विकास के नए रास्ते खुले हैं जिसने मतदाताओं को अपना भाग्य खुद बनाने का अधिकार सौंपा है। निश्चित ही जम्मू—कश्मीर इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ पर है, जहां मतदाताओं की बेमिसाल भागीदारी ने उज्ज्वल और बेहतर लोकतांत्रिक भविष्य का शंखनाद किया है।

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