क्रांतिकारी वीर बुधु भगत : बलिदान हो गए, लेकिन अंग्रेजों के अत्याचार के आगे घुटने नहीं टेके

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रमेश शर्मा

भारतीय स्वाधीनता के संघर्ष में कितने बलिदान हुये इसका विस्तृत वर्णन कहीं एक स्थान पर नहीं मिलता। जिस क्षेत्र के इतिहास पर नजर डालों वहाँ संघर्ष और बलिदान की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियाँ मिलती हैं। ऐसी ही कहानी क्राँतिकारी बुधु भगत की है,  जिन्होंने जीवन की अंतिम श्वाँस तक संघर्ष किया और अंग्रेजों ने उनके पूरे गाँव सिलारसाई के निवासियों को मौत के घाट उतारा।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में वनवासी वीर बलिदानी बुधु भगत ऐसा क्राँतिकारी नाम है, जिनका उल्लेख भले इतिहास की पुस्तकों में कम हो पर छोटा नागपुर क्षेत्र के समूचे वनवासी अंचल में लोगों की जुबान पर है। उस अंचल में उन्हें दैवीय शक्ति का प्रतीक माना जाता है । वन्य क्षेत्र के अनेक वनवासी परिवार उन्हें लोक देवता जैसा मानते हैं और उनके स्मरण से अपने शुभ कार्य आरंभ करते हैं।

क्राँतिकारी बुधु भगत के नेतृत्व में स्वत्व का यह संघर्ष तब आरंभ हुआ, जब अंग्रेजों ने पूरे वन्य क्षेत्र पर अधिकार करके वनवासियों को बंधुआ मजदूर बनाकर शोषण आरंभ किया। तब वीर बुधु भगत ने अपने स्वाभिमान रक्षा के लिये युवाओं की टुकड़ियाँ बनाकर छापामार लड़ाई आरंभ की। उनके साथ लगभग तीन सौ युवाओं की टोली थी। जिसका सामना करने के लिये अंग्रेजों को आधुनिक हथियारों से युक्त सेना की एक पूरी ब्रिगेड को लाना पड़ा था। क्राँतिकारी बुधु भगत की वीरता और स्वत्व वोध का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जीवन की अंतिम श्वाँस तक संघर्ष किया और बलिदान हुये। अंग्रेजों से मुकाबला कर रही इस टुकड़ी ने समर्पण नहीं किया अंतिम श्वाँस तक युद्ध किया और बलिदान हुये।

ऐसे क्रांतिकारी बुधु भगत का जन्म 17 फरवरी 1792 में रांची के वनक्षेत्र में हुआ था। उनके गांव का नाम सिलारसाई था। अब यह क्षेत्र झारखंड प्राँत में आता है। बुधु भगत बचपन अति सक्रिय और चुस्त-फुर्त थे और मल्ल युद्ध, तलवार चलाना और धनुर्विद्या का अभ्यास करते थे। वे धनुष बाण और कुल्हाड़ी सदैव अपने साथ रखते थे। अंग्रेजों ने समूचे वन्यक्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया और वनवासियों को बंधुआ मजदूर बनाकर वनोपज का दोहन करने लगे। अंग्रेजों और उनके एजेंटो ने अनेक प्रकार के प्रतिबंध भी लगा दिये।

वनवासियों के संघर्ष अनेक स्थानों पर आरंभ हुये जिन्हे इतिहास में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। कहीं कोल विद्रोह, कहीं लरका विद्रोह तो कहीं संथाल विद्रोह। उस कालखंड में ऐसा कोई वनक्षेत्र नहीं था, जहाँ संघर्ष आरंभ न हुआ हो। सबने अपने-अपने दस्ते गठित किये और संघर्ष हुये। राँची क्षेत्र में यह संघर्ष क्राँतिकारी बुधु भगत के नेतृत्व में आरंभ हुआ। उनके द्वारा गठित वनवासी युवाओं की इस टोली ने पूरे छोटा नागपुर क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाया और अंग्रेजों का जीना मुश्किल कर दिया।

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अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए एक हजार रुपये के इनाम की घोषणा की। अंग्रेजों को उम्मीद थी कि इनाम के लालच में कोई विश्वासघाती सामने आयेगा और बुधू भगत की सूचना दे देगा। पर अंग्रेजों की यह चाल सफल न हो सकी। स्थिति ऐसी बनी कि अंग्रेजों और उनके एजेंटों को वनोपज बाहर ले जाना कठिन हो गया। तब फौज ने मोर्चा संभाला। अंग्रेजी ब्रिगेड ने पूरे वन क्षेत्र का घेरा डाला और घेरा कसना आरंभ किया। यह घेरा फरवरी के पहले सप्ताह आरंभ हुआ था और अंत में अंग्रेजी फौज उस चौगारी पहाड़ी के समीप 12 फरवरी को पहुंचे। इसी पहाड़ी पर क्राँतिकारियों का केन्द्र था। सेना ने पूरी पहाड़ी पर घेरा डाला और मुकाबला आरंभ हुआ।

वनवासी युवाओं ने तीर कमान और कुल्हाड़ी से मुकाबला किया। अंत में 13 फरवरी, 1832 को अपने ही गांव सिलागाई में बुधु भगत सहित सभी युवा बलिदान हुये। अंग्रेजों ने किसी को जीवित न छोड़ा। इनमें महिलायें और बच्चे भी शामिल थे। उनकी कहानियां आज भी वनवासी क्षेत्रों में सुनी जाती हैं।

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