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धर्म और संस्कृति हिंदू समाज की रीढ़

गोवा में 24 दिसंबर को पाञ्चजन्य द्वारा आयोजित ‘सागर मंथन-2.0’ कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र का विषय था-सांस्कृतिक चेतना। इस सत्र को विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे ने संबोधित किया

by मिलिंद परांडे
Dec 30, 2023, 01:08 pm IST
in भारत, धर्म-संस्कृति, गोवा
विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे

विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे

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जब हम राष्ट्रीयता की बात करते हैं, तो वह सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की संकल्पना है, राष्ट्रवाद की संकल्पना है। ये सारी बातें आपस में एक तरह से जुड़ी हुई हैं। कुछ लोगों को लगता है कि ये दकियानूसी बातें हैं, जिसकी आज के समय में कोई उपयोगिता नहीं है।

हमारी संस्कृति धर्म आधारित है। जब हम धर्म कहते हैं, तो उसमें राजधर्म, राष्ट्रधर्म के साथ कर्तव्य भी आते हैं। हमारे यहां धर्म को अनेक दृष्टियों से उपयोग में लाया गया है। जब हम राष्ट्रीयता की बात करते हैं, तो वह सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की संकल्पना है, राष्ट्रवाद की संकल्पना है। ये सारी बातें आपस में एक तरह से जुड़ी हुई हैं। कुछ लोगों को लगता है कि ये दकियानूसी बातें हैं, जिसकी आज के समय में कोई उपयोगिता नहीं है। लेकिन ये बातें आज भी प्रासंगिक हैं, इसे समझने की आवश्यकता है।

जीवन मूल्य और संस्कृति हमारे समाज की धारणा बनाते हैं। इसी प्रकार, सुशासन में दंड का बहुत महत्व है। लेकिन केवल दंड शक्ति समाज की धारणा नहीं कर सकती। दंड डर दिखाने वाली एक शक्ति तो हो सकती है, किन्तु समाज को यदि ठीक रहना है तो उसके लिए संस्कार बहुत जरूरी है। समाज में संस्कार नहीं रहेगा तो दंड शक्ति केवल उसे पाश्विक रीति से संभालने का तरीका भर रह जाएगी। इसलिए सुशासन तानाशाही की तरफ भी जा सकता है।

भगवान और उनकी उपासना पद्धति धर्म का एक हिस्सा है और धर्म का दूसरा हिस्सा है समाज की धारणा। जब हिंदू राष्ट्र की बात होती है, तो लोगों को लगता है कि यह राजनीतिक संकल्पना है। भू-सांस्कृतिक विचार हमारे चिंतन में है, इसलिए जब इन्हें समझने का प्रयास करेंगे, तभी समझ में आएंगे। जैसे-आज कानून बने हैं कि महिलाओं पर अत्याचार नहीं होना चाहिए। किन्तु महिलाओं पर अत्याचार कितनी जगह बढ़ा है? क्यों? स्त्री को देखने की दृष्टि क्या है? पत्नी को छोड़ कर अन्य स्त्री को देखने की दृष्टि क्या है?

हमारे यहां इस बात पर जोर दिया गया है कि पराई स्त्री को कुदृष्टि से नहीं देखना चाहिए। दूसरे के धन को अर्थात् जो धन हमने कमाया नहीं है, उसकी लालसा मन में नहीं रखनी चाहिए। यदि ऐसी भावना नहीं होगी तो भ्रष्टाचार बढ़ेगा। इन जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता आज भी है। जब इनका क्षरण होगा, तो समाज में बुराइयां आने लगेंगी। इसलिए केवल कानून बना देना ही काफी नहीं है।

आज स्वतंत्रता स्वैराचार को लेकर देश में लोग गफलत में हैं। वे स्वेच्छाचार को स्वतंत्रता मान बैठे हैं। स्वतंत्रता तो बहुत पवित्र बात है, वह बंधनों के अंदर है और स्वच्छंदता का कोई बंधन नहीं है। इस अंतर को समझना पड़ेगा

अमेरिका के बारे में लोग कहते हैं कि वहां हर तरह की मुक्तता है। लेकिन क्या वहां बलात्कार के अपराध के मामलों में कमी आई है? कमी नहीं आई है। आज स्वतंत्रता स्वचार को लेकर देश में लोग गफलत में हैं। स्वेच्छाचार को स्वतंत्रता मान बैठे हैं। स्वतंत्रता तो बहुत पवित्र बात है, वह बंधनों के अंदर है और स्वच्छंदता का कोई बंधन नहीं है। इन दोनों के अंतर को समझना पड़ेगा नहीं तो हम संस्कृति की जगह पर विकृति की बात करने लगेंगे। संस्कृति वह है, जो प्रकृति से ऊपर चढ़ती है और जो प्रकृति से नीचे जाती है, वह विकृति है। इसलिए इन संस्कारों, जीवन-मूल्यों का बहुत महत्व है। भारत की संस्कृति हिंदू संस्कृति है। भारत का इतिहास हिंदू इतिहास है। आदिकाल से हिंदू ही यहां का जीवन-मूल्य है, जिसमें किसी प्रकार की नकारात्मक दृष्टि नहीं है। इन जीवनमूल्यों को समझना होगा। इसमें लज्जा महसूस करने की आवश्यकता नहीं है।

हमारी संस्कृति लाखों वर्ष पुरानी है। इन लाखों वर्षों में न कभी ग्लोबल वार्मिंग, न क्लाइमेट चेंज जैसे विषय आए। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, हिंदू संस्कृति पर्यावरण प्रेमी है और स्वाभाविक रीति से पर्यावरण की रक्षा करती है। हम पेड़ों को देवता मान कर उनकी पूजा करते हैं। इसी तरह, हम नदियों, पर्वतों की पूजा करते हैं। धरती को मां मानते हैं। यह सब संस्कृति से निकले हुए विषय हैं। जब ग्लोबल वार्मिंग का विषय आया, तो इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था, जबकि यह जीवंत अस्तित्व है, जिसे हम पहले से मानते रहे हैं। यह धरती केवल मिट्टी या पंचमहाभूतों का जमावड़ा नहीं है। इसमें प्राण है, अस्तित्व है। यदि यह सोच रहेगी तो दृष्टि बिल्कुल बदल जाएगी। संस्कृति इस तरह की जीवन दृष्टि देने का काम करती है। इसलिए हिंदू संस्कृति के कारण पर्यावरण का नुकसान नहीं हो रहा।

भारत एकमात्र देश है, जहां हजार वर्षों तक सत्ता बदलती रही, पर कोई यहां की धर्म-संस्कृति को नुकसान नहीं पहुंचा सका। इसका कारण यह है कि समाज में शक्ति के अनेक केंद्र थे, जिन्होंने इसे
जीवित रखा

वर्तमान समाज में बहुत विषमताएं हैं। अलग-अलग वर्गों की बात करके कुछ लोग विभेद की राजनीति कर रहे हैं। लेकिन हमारी संस्कृति कहती है कि जो ईश्वर तत्व मेरे अंदर है, वही सभी के अंदर है। हमारी संस्कृति आध्यात्मिक एकात्मता की बात करती है। यह भाव रहेगा तो जाति या भाषा के आधार पर विभेद नहीं रहेगा। इसलिए वर्तमान समय चुनौतियों से भरा है। देश में ऐसी शक्तियां सक्रिय हैं, जो चाहती हैं कि देश और समाज का विघटन हो। यदि देश और समाज को विघटन से बचाना है, तो समाज को इस भाव से ओतप्रोत करना पड़ेगा। यदि समाज इस भाव से ओतप्रोत नहीं होगा, तो हमें जोड़कर रखने वाली शक्तियां नष्ट हो जाएंगी। इन बातों को समझना होगा।

एक शब्द है अपरिग्रह। यानी एक व्यक्ति को बहुत अधिक संपत्ति अर्जित नहीं करनी चाहिए। एक व्यक्ति के अत्यंत धनी होने से कुछ लोग गरीब रह जाते हैं। सभी सम्मान से अपना जीवन जी सकें, इसके लिए हर व्यक्ति के पास इतना ऐश्वर्य होगा क्या? इसलिए अपने पास उतना ही रखो, जितनी आवश्यकता है, शेष समाज को दो। अपरिग्रह में यही बताया गया है। यह सब धर्म का हिस्सा है। इसमें हर व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के नियम हैं।

हमारी संस्कृति में तीन बातों को प्रमुखता दी गई है। पहली है कृतज्ञता का भाव। यह हमारे चिंतन का मूलभूत आधार है। हिंदू समाज भगवान से पहले मां को पूजता है। इसलिए मां को मातृदेवो भव कहा गया है। जन्म देने वाली मां के ऋण से हम कभी मुक्त नहीं हो सकते। इसी तरह, पिता के लिए पितृदेवो भव और शिक्षक को आचार्य देवो भव कहा गया है। यहां तो भगवान हैं ही नहीं, ये तो समाज के रिश्ते-नाते हैं। यह सब कृतज्ञता के भाव के कारण है। कृतज्ञता नहीं होगी, तो परिवारिक कलह बढ़ती जाएंगे।

आज देश के परिवार न्यायालयों/कुटुंब न्यायालयों में प्रतिदिन सैकड़ों मामले दर्ज हो रहैं। इसका मतलब यह है कि छोटी-छोटी बातों पर परिवार में झगड़े हो रहे हैं, परस्पर संबंधों में स्वार्थ जाग्रत हो गया है। इसलिए परिवार के प्रति कृतज्ञता का भाव सीखना होगा। यह भावना व्यापक होकर समाज तक जाएगी और जब अत्यंत व्यापक होगी, तब मानवता तक जाएगी, तथा और अधिक व्यापक होगी तो चेतन-अचेतन सब में व्याप्त हो जाएगी।

आज लोग आधारभूत बातों को छोड़कर मानवता से शुरुआत करना चाहते हैं। समाज में व्यक्ति को कैसे रहना चाहिए, दुर्भाग्य से लोगों को इसकी जानकारी नहीं है। इसलिए वे लिव-इन रिलेशनशिप की बात करते हैं। यह हमारी संस्कृति को समूल नष्ट करने वाला विषय है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे कानूनी जामा पहनाया जा रहा है। यानी जिन संबंधों को हम पवित्र मानते हैं, जिन संबंधों के आधार पर भारत की परिवार व्यवस्था टिकी हुई है, यह उसी को ध्वस्त करने वाला विषय है।

हम विश्व गुरु की बात करते हैं, क्योंकि भारत में कभी राजनीतिक सत्ता थी ही नहीं। भारत की सत्ता अत्यंत शक्तिशाली होने के बावजूद सैन्य सत्ता नहीं रही। यहां धार्मिक सत्ता थी, जिसने पूरे विश्व को प्रभावित किया। उस धार्मिक सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए बहुत शक्ति की आवश्यकता है। केवल सिद्धांत पर चलने से कुछ नहीं होगा, बल्कि सरकार और समाज को उन सिद्धांतों का अनुसरण भी करना होगा।

एक-दूसरे के प्रति हमारा कर्तव्य क्या है? यहां तो अधिकारों की बात की जा रही है। हिंदू जीवन में कर्तव्य मूल अधिष्ठित है, न कि अधिकार अधिष्ठित। इसे सिखाने वाली एक ही जगह है-परिवार। परिवार के बाहर कर्तव्य सिखाना बहुत कठिन है, क्योंकि घर के अंदर अधिकार की बात नहीं होती। घर में केवल कर्तव्य की बात होती है। जिस दिन घर के अंदर अधिकारों की बात होने लगेगी, घर घर नहीं रहेगा। परिवार टूट जाएगा। आज परिवारों में टूट इन्हीं कारणों से हो रही है। इसलिए हिंदू चिंतन कर्तव्य आधारित समाज में प्रकट होगा, तो सारे कर्तव्य ध्यान में आएंगे।

देश के प्रति परिवार और समाज का क्या कर्तव्य होना चाहिए? हम देश-समाज के प्रति अपना रिश्ता नहीं समझते, तो निर्णय गलत होने लगते हैं। इससे राष्ट्रीय चरित्र कमजोर हो जाता है। राजा जय सिंह में एक हिंदू के सभी गुण मौजूद थे, लेकिन देश और समाज के लिए क्या करना है, इसे वह समझ ही नहीं पाए। इसका अर्थ यह है कि किसी का व्यक्तिगत चरित्र भले ही अच्छा हो, लेकिन उसका राष्ट्रीय चरित्र अच्छा है क्या? राजा जय सिंह का राष्ट्रीय चरित्र अत्यंत कमजोर था। इसलिए सरकार चाहे कोई भी व्यवस्था बनाए, पर समाज की धारणा वाली बातों को पुष्ट करना ही होगा।

आज विश्व में मात्र दो हिंदू देश रह गए हैं- भारत और नेपाल। वहीं, ईसाई देश लगभग 120 हैं, जबकि इस्लामी देश 50 से भी अधिक हैं। इन सभी देशों में शक्ति केवल राजसत्ता में थी, जिसके हाथ में राजसत्ता गई, वही उस देश की संस्कृति बन गई, उस देश का मत-मजहब बन गया। इसलिए ये देश धराशायी हो गए। भारत एकमात्र देश है, जहां हजार वर्षों तक सत्ता बदलती रही, लेकिन कोई यहां की धर्म-संस्कृति को नुकसान नहीं पहुंचा सका। इसका कारण यह है कि समाज में शक्ति के अनेक केंद्र थे, जिन्होंने इसे जीवित रखा। आज इसे समझने की जरूरत है। व्यक्ति का परिवार से समन्वय, परिवार का समाज से समन्वय, समाज का प्रकृति से समन्वय और अंत में जो तत्व सर्वव्यापी है, जिसे हिंदू धर्म में भगवान कहा जाता है, उसके साथ समन्वय। यदि समन्वय का भाव नहीं होगा, तो हम इस देश और समाज की धारणा नहीं कर सकते।

आज विश्व में जो संघर्ष हो रहा है, उसका कारण यही है। इसलिए विश्व शांति के लिए भी संस्कृति बहुत आवश्यक है। हम विश्व गुरु की बात करते हैं, क्योंकि भारत में कभी राजनीतिक सत्ता थी ही नहीं। भारत की सत्ता अत्यंत शक्तिशाली होने के बावजूद सैन्य सत्ता नहीं रही। यहां धार्मिक सत्ता थी, जिसने पूरे विश्व को प्रभावित किया। उस धार्मिक सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए बहुत शक्ति की आवश्यकता है। केवल सिद्धांत पर चलने से कुछ नहीं होगा, बल्कि सरकार और समाज को उन सिद्धांतों का अनुसरण भी करना होगा।

निर्दोष समाज, विषमता से मुक्त समाज को सभी की चिंता करनी होगी। यदि करोड़ों लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करेंगे, तो भारत विश्वगुरु कैसे बनेगा? देश में करोड़ों लोगों को एक वक्त का भोजन नहीं मिल रहा है और कुछ लोग इतने संपन्न हैं कि भोजन बर्बाद कर रहे हैं। भोजन बर्बाद करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। इसलिए समाज के प्रति देखने की दृष्टि बदलनी होगी। इसके लिए जीवन जीने वाले व्यक्ति का समाज बनाना पड़ेगा, केवल बड़ी-बड़ी बात करने से कुछ नहीं होगा। पश्चिमी सभ्यता को अंगीकार करने से हम मॉडर्न नहीं बन सकते।

पश्चिमी सभ्यता में तो बिना शादी के बच्चे होते हैं। इसलिए जीवन मूल्यों पर आधारित काल सुसंगत जीवन बहुत आवश्यक है। इसके लिए हर व्यक्ति खासकर, पदाधिकारियों, समाज के प्रभावशाली लोगों की जिम्मेदारी और बढ़ गई है, क्योंकि लोग उनके व्यवहार से सीखते हैं। इसलिए यदि हर व्यक्ति को अपने जीवन मूल्य में संस्कृति को शामिल करना होगा, तभी हमारा परिवार और समाज अच्छा एवं विश्व में प्रभावी हो सकेगा। यह काम एक पार्टी, एक संगठन नहीं कर सकता। हम सभी को इसे कर्तव्य मानकर इस पर अमल करना होगा।

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