गुरु अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से शिष्य के भीतर के अंधकार को मिटाता है। गुरु कृपा से असंभव भी संभव हो जाता है। परंतु गुरु-शिष्य परंपरा के नेपथ्य में जाने से हमारे देश में पिछले कुछ दशकों में शिक्षा का ह्रास हुआ है। विश्वगुरु का हमारा वह सिंहासन, जिस पर बैठकर मां भारती सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करती थीं, उसे पुनर्स्थापित करना है और ऐसा गुरु-शिष्य परंपरा की पुनर्स्थापना से ही संभव है
एक लघु कथानुसार स्वामी रामकृष्ण परमहंस के आध्यात्मिक गुरु तोतापुरी महाराज ने एक बार उनसे कहा कि यदि लोटे को नियमित रूप से न मांजा जाए तो उसकी चमक खो जाती है। ठीक उसी प्रकार यदि हम अपने ज्ञान का निरंतर शोधन न करें तो उसकी धार एवं चमक मंद पड़ जाती है। जीवन के इस सूक्ष्म उदाहरण से गुरु अपने शिष्य के जीवन को प्रकाशित करते हैं। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें गुरु-शिष्य परंपरा विरासत में मिली है, क्योंकि गुरु बिना जीवन के कठिन एवं अंधकारमय मार्ग का सफल पथिक बनना आसान नहीं है। कहा गया है- गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते। अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥ अर्थात् ‘गु’ कार यानी अंधकार और ‘रु’ कार यानी तेज, जो ज्ञानरूपी प्रकाश से अंधकार का निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है। पौराणिक काल में अंधकार के प्रबलतम प्रतीक हिरण्यकशिपु ने परमेश्वर की पूजा का निषेध कर स्वयं अपनी पूजा करवाना प्रारंभ कर दिया था। ऐसे में देवर्षि नारद ने गुरु के रूप में उसके ही पुत्र प्रह्लाद के जीवन में भक्तिभाव जगाया, जिसके बल पर भक्त प्रह्लाद ने भगवान को नृसिंह रूप में अवतरण हेतु बाध्य कर दिया। नृसिंह भगवान हिरण्यकशिपु का अंत करते हैं। गहराई से परखें तो देवर्षि नारद का गुरुतर मार्ग दिखाना ही सांसारिक कष्टों से मुक्ति का साधन बना।
हमें स्मरण करना होगा कि किस प्रकार समर्थ गुरु रामदास की शिक्षा से प्रेरित होकर एक व्यक्ति शिवाजी बनकर असंभव लगने वाले हिंदवी साम्राज्य की स्थापना करता है। गुरौ न प्राप्यते यत्तन्नान्यत्रापि हि लभ्यते। गुरुप्रसादात सर्वं तु प्राप्नोत्येव न संशय:।। अर्थात् गुरु के द्वारा जो प्राप्त नहीं होता, वह अन्यत्र भी नहीं मिलता। गुरु कृपा से निस्संदेह मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है
गुरु साक्षात् परब्रह्म
हमारी संस्कृति में गुरु को साक्षात् परब्रह्म के रूप में अभिहित किया गया है। परब्रह्म इसलिए क्योंकि वे ही ब्रह्म से मिलाते हैं। रास्ते पर पैर रखा तो दूसरे छोर पर मंजिल मिल ही जाती है। उसी प्रकार गुरु का ही अगला छोर परंब्रह्म है। गुरु गोविंद से तो मिलाते ही हैं, जीवन किस प्रकार चलाना चाहिए, उसके आवश्यक उपकरण क्या हैं, इसका दिशा-निर्देश भी देते हैं। रामायणकालीन भारत को देखें तो गुरु वशिष्ठ अयोध्या में कुलगुरु के रूप में शिक्षा देते हैं। भगवान श्रीरामचन्द्र की आयुधों की शिक्षा और सिद्धि हेतु गुरु विश्वामित्र जी भी हैं। गुरु क्योंकि कालद्रष्टा है। उन्हें बखूबी पता है कि इसकी आवश्यकता राम को भविष्य में पड़ने वाली है। भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र को देखकर उनके गुरुवर सांदीपनी ऋषि की महिमा को समझा जा सकता है।
स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस के शरीर त्यागने के कुछ समय पश्चात स्वामी जी ने गुरु मां शारदा से विदेश जाकर अपने गुरु के संदेश का प्रचार-प्रसार करने की आज्ञा मांगी। गुरु मां रसोई से बोलीं, ‘नरेन जरा चाकू तो देना’। नरेन ने ऐसा ही किया। मां ने विदेश जाने की आज्ञा नहीं दी। कुछ दिन बाद पुन: ऐसी ही घटना घटी। मां ने इस बार नरेन को आज्ञा दे दी। नरेन ने आश्चर्य से पूछा कि मां पिछली बार आपने मना किया, इस बार आज्ञा दे दी, ऐसा क्यों? शारदा मां ने कहा, ‘देख नरेन पिछली बार जब तूने मुझे चाकू दिया तो उसकी धार मेरी तरफ थी, लेकिन इस बार जब चाकू दिया तो धार तूने अपनी तरफ रखी। जिस जगह पर तू कार्य करने जा रहा है, वहां तुझे चाकू की नोंक से भी ज्यादा चुभने वाली बातें बोली जा सकती हैं। लोगों का व्यवहार बहुत कटु हो सकता है। लेकिन याद रखना, तेरा व्यवहार सबके प्रति प्रेम भरा ही हो। धार अपनी तरफ रखना और लोगों की तरफ मुलायम हत्थी’।
गुरु कृपा से असंभव भी संभव
ऐसी होती है गुरु की दृष्टि और सीख। आज हमें इस दृष्टि की, इस प्रकार की रचना की अत्यधिक आवश्यकता है। भारतवर्ष के समक्ष अवसर का गवाक्ष खुला है। ऐसे में युवा भारत मार्गच्युत न हो, इसके निमित्त गुरु-शिष्य परंपरा को पुन: शक्ति प्रदान करनी होगी। हमें स्मरण करना होगा कि किस प्रकार समर्थ गुरु रामदास की शिक्षा से प्रेरित होकर एक व्यक्ति शिवाजी बनकर असंभव लगने वाले हिंदवी साम्राज्य की स्थापना करता है। क्योंकि गुरु कृपा से असम्भव भी सम्भव हो जाता है – गुरौ न प्राप्यते यत्तन्नान्यत्रापि हि लभ्यते। गुरुप्रसादात सर्वं तु प्राप्नोत्येव न संशय:।। अर्थात् गुरु के द्वारा जो प्राप्त नहीं होता, वह अन्यत्र भी नहीं मिलता। गुरु कृपा से निस्संदेह मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
मानव जीवन में गुरु की महिमा को नकारा नहीं जा सकता। शिक्षकों को न केवल ज्ञान अपितु संस्कृति एवं समृद्धि का भी केंद्रबिंदु बनना चाहिए, विद्यार्थियों की मनोस्थिति समझकर उन्हें सनातनी बनने हेतु प्रेरित करना चाहिए। शिक्षकों को गुरुतर आचरण एवं व्यवहार के माध्यम से गुरु की महिमा को पुन: प्रतिष्ठित करते हुए गुरु-शिष्य परम्परा की अलख जगानी होगी
सन्दर्भ आता है कि महर्षि वाल्मीकि सद्गुरु द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण कर महाज्ञानी बने एवं हमारी आध्यात्मिक तृप्ति हेतु कालजयी महाकाव्य रचा। संत कबीर तो स्वयं ही कहते हैं कि मैंने तो कागज-कलम कभी छुई ही नहीं, जो भी मिला सब गुरु कृपा से ही पाया। भक्तिकालीन कवियित्री मीराबाई गुरु महिमा का बखान करती हुई कहती हैं-‘गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।’ वहीं सहजोबाई के शब्दों में -‘प्रेम लटक दुर्लभ महा, पावै गुरु के ध्यान। अजपा सुमिरण कहत हूं, उपजै केवल ज्ञान॥’ संत दादू दयाल कहते हैं कि गुरु की कृपा हुई, तभी अंदर का दीपक जला एवं अंधकार दूर हुआ। दादू सतगुरु सौं सहजैं मिल्या, लीया कंठ लगाइ।
दया भई दयाल की, तब दीपक दीया जगाइ॥ संत शिवदयाल सिंह जी का कहना है कि किसी भी पंथ-मजहब का व्यक्ति हो, इस दुनिया की आपाधापी में उसे गुरु बिन चैन नहीं मिलने वाला। गुरु भक्ती पूरन बिना, कोई न पावे चैन॥ गोस्वामी तुलसीदास मानस में लिखते हैं- बंदउं गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।’ अर्थात् मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूं, जो कृपा सागर हैं और नर रूप में श्री हरि हैं। जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।
हम देखते हैं कि गुरु की महिमा के विषय में जितना भी कहें, कम ही है। ऐसे में कबीरवाणी याद आती है – सब धरती कागज करूं, लेखनी सब बनराय। सात समुंदर की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय।। अर्थात् यदि सारी पृथ्वी कागज बन जाए, सारे जंगल की लकड़ी कलम हो जाए, सात समुद्र्रों का जल स्याही हो जाए, तो भी गुरु की महिमा का वर्णन करना असंभव है।
गुरु में आस्था जरूरी
लेकिन पिछले कुछ दशकों में शिक्षा का जो ह्रास हमारे देश में हुआ है, उसका मूल कारण गुरु-शिष्य परम्परा का नेपथ्य में जाना ही है। राजकीय वित्त पर पोषित जो विद्यालय-महाविद्यालय हमने बनाये, उन्होंने ‘गुरु’ का स्थानापन्न ‘शिक्षक’ को बनाया। शिक्षा व्यवसाय बन गयी एवं शिक्षा देना मात्र वेतन प्राप्त करने का हेतु। छात्रों एवं समाज के मन में भी शिक्षकों के प्रति आदर भाव कम हुआ है। शिक्षा व्यवस्था में राजनीति की दखलंदाजी ने इसकी विश्वसनीयता पर बट्टा लगाया है।
हमारा आदर्श यह रहा है कि राजा अपना राजमुकुट बाहर छोड़कर साधारण मनुष्य की वेशभूषा में ही ऋषि के आश्रम में समस्या का समाधान पाने हेतु जाते थे। किंतु शिक्षकों एवं समाज के आचरण की वजह से स्थिति आज बिल्कुल उलट है। गुरु के अनादर के दुष्परिणाम का ज्वलंत उदाहरण ‘दानवीर कर्ण’ है। कर्ण ने अपने गुरु भगवान परशुराम की इच्छा का अनादर कर अपना मूल वर्ण उनसे छिपाया। फलस्वरूप कर्ण को गुरु शाप का भाजन बनना पड़ा एवं अंतिम युद्ध में उन्हें प्राप्त विद्या काम नहीं आई और उनकी मृत्यु का हेतु बनी।
शिक्षक रूप में कार्यरत व्यक्ति को ज्ञानवान, चरित्रवान, निपुण, विनम्र, पुण्यात्मा, मननशील, चिंतनशील, सचेत एवं प्रसन्नचित गुरु बनना ही चाहिए। विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सड्कान्तिरनुशीलनम्। शिक्षकस्य गुणा: सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता।।
‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ हेतु हमें भारत को पुन: परम वैभवशाली बनाना है। विश्वगुरु का हमारा वह सिंहासन, जिस पर बैठकर मां भारती सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करती थीं, उसे पुनर्स्थापित करना है। ऐसा गुरु-शिष्य परंपरा की पुनर्स्थापना से ही संभव है। हमें शिष्यों के भीतर गुरु आस्था का बीज पुन: रोपना होगा।
क्योंकि- दुग्धेन धेनु: कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम्। गुरुं विना भाति न चैव शिष्य: शमेन विद्या नगरी जनेन।। अर्थात् जैसे दूध के बिना गाय, फूल के बिना लता, चरित्र के बिना पत्नी, कमल के बिना जल, शांति के बिना विद्या और लोगों के बिना नगर शोभा नहीं देते, वैसे ही गुरु बिना शिष्य या शिष्य बिना गुरु शोभा नहीं देते। संत कबीर तो कहते हैं- ‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥’ अर्थात् भगवान के रूठने पर तो गुरु की शरण मिल सकती है, किंतु गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना संभव नहीं है।
गुरु की महिमा के विषय में जितना भी कहें, कम ही है। ऐसे में कबीरवाणी याद आती है –
सब धरती कागज करूं, लेखनी सब बनराय। सात समुंदर की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय।।
अर्थात् यदि सारी पृथ्वी कागज बन जाए, सारे जंगल की लकड़ी कलम हो जाए, सात समुद्र्रों का जल स्याही हो जाए, तो भी गुरु की महिमा का वर्णन करना असंभव है।
संस्कृति-समृद्धि के केंद्र शिक्षक
भगवान बुद्ध के आनंद को दिये अंतिम उपदेश ‘अप्प दीपो भव’ का आशय शायद यह नहीं है कि हम स्वयं ही सब कुछ करने में समर्थ हैं, क्योंकि अपना प्रकाश स्वयं बनने का ज्ञान भी गुरु से ही प्राप्त होता है। जिस तरह कुम्हार मिट्टी गढ़कर उसे भगवान् का रूप दे देता है, ठीक उसी तरह गुरु शिष्य को गढ़कर उसे चरित्रवान बनने हेतु प्रेरित करता है। अतएव मानव जीवन में गुरु की महिमा को नकारा नहीं जा सकता। शिक्षकों को न केवल ज्ञान अपितु संस्कृति एवं समृद्धि का भी केंद्र बिंदु बनना चाहिए। विद्यार्थियों की मनोस्थिति को समझकर उन्हें सनातनी बनने हेतु प्रेरित करना चाहिए।
गुरु की महिमा को पुन: प्रतिष्ठित करते हुए शिक्षकों को गुरुतर आचरण एवं व्यवहार के माध्यम से गुरु-शिष्य परम्परा की अलख जगानी होगी एवं शिष्यों के अन्त:स्थल पर यह मंत्र अंकित करना होगा-ध्यानमूलं गुरोर्मूर्त्ति: पूजामूलं गुरोर्पदम्। मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोकृपा॥’अर्थात् ध्यान का मूल गुरु मूर्ति (अनुपम उदाहरण एकलव्य), पूजा का मूल गुरु के चरण कमल, मंत्र का मूल गुरु वचन एवं मुक्ति का मूल गुरु कृपा है। आइये, हम इस शिक्षक दिवस पर गुरु-शिष्य यानी व्यास परंपरा को पुनर्स्थापित करने का सामूहिक प्रण लें।
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