चीन की सेना द्वारा भारत के लद्दाख एवं नेफा सेक्टर में आक्रमण किया जाना एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इस युद्ध ने विदेश नीति और रक्षा नीति के मोर्चे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रूमानी आदर्शवाद को विनष्ट कर दिया।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में 20 अक्तूूबर, 1962 की सुबह 5 बजे चीन की सेना द्वारा भारत के लद्दाख एवं नेफा सेक्टर में आक्रमण किया जाना एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इस युद्ध ने विदेश नीति और रक्षा नीति के मोर्चे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रूमानी आदर्शवाद को विनष्ट कर दिया। उस समय नयी दिल्ली में टाइम्स आफ लंदन पत्रिका से जुड़े आस्ट्रेलियाई पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने अपनी पुस्तक ‘इंडियाज चाइना वार’ में दावा किया है कि इस हार के लिए नेहरू की नीतियां मुख्य रूप से जिम्मेदार थीं।
वर्ष 1947 में स्वतंत्र हुए भारत ने दो वर्ष बाद 1949 में हुई चीन की साम्यवादी क्रांति को मान्यता दे दी। चीन से अच्छे संबंध रखने के लिए नेहरू ने 29 अप्रैल 1954 को चीन के साथ पंचशील समझौता किया और हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे लगाये। भारत ने तिब्बत पर किये गये चीन के अधिकार को भी स्वीकार कर लिया। तिब्बत पर अधिकार करने के बाद चीनी सैनिक भारतीय सीमा में अतिक्रमण करने लगे। इस बीच, 1957 तक चीन एक तरह से लद्दाख के हिस्से अक्साई चिन पर कब्जा कर चुका था।
युद्ध ने नेहरूवादी विदेश नीति के दौर को खत्म कर दिया। यह साबित हो गया कि नेहरूवादी विदेश नीति भारत की सुरक्षा नहीं कर सकती और रक्षा एवं सैन्य शक्ति दिल्ली की प्राथमिकता होनी चाहिए। इसने भारत को अपनी सैन्य शक्ति पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया और रक्षा पर खर्च बढ़ गया जिसके परिणामस्वरूप आज भारत एक परमाणु शक्ति है। दूसरे इसने भारत को अन्य देशों के साथ अधिक यथार्थवादी संबंध रखने के लिए प्रेरित किया। साथ ही इसने भारत को चीन को एक संभावित सुरक्षा खतरे के रूप में स्थायी रूप से परिभाषित करने के लिए प्रेरित किया।
चीन ने भारत पर विस्तारवादी होने का आरोप लगाते हुए 29 दिसंबर, 1959 को भारत के विदेश मंत्रालय को एक नक्शा भेजा जिसमें कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र और अरुणाचल प्रदेश के 50,000 वर्ग मील क्षेत्र को अपने कब्जे में दिखाया। यानी चीन की कारगुजारियां हमले के 10 महीने पहले से शुरू हो गयी थीं। परंतु नेहरू सरकार ने न तो सुरक्षा नीति में कोई ठोस काम किया और न ही विदेश नीति के स्तर पर। नेहरू तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन पर बहुत भरोसा करते थे। लापरवाही का आलम यह था कि जब चीन युद्ध की तैयारियों में जुटा था, तब नेहरू और मेनन लंबी-लंबी विदेश यात्राओं में मग्न थे।
20 अक्तूबर से 21 नवंबर, 1962 तक चले इस युद्ध में भारत को पराजय मिली। चीन की सेना भारतीय सैनिकों के मुकाबले दोगुनी थी, उनके पास अच्छा प्रशिक्षण था, अच्छे हथियार थे, ऊंचाइयों पर युद्ध का अनुभव था, रसद की कोई कमी नहीं थी। दूसरी तरफ भारतीय सैनिकों के पास जाड़े की वर्दी तक नहीं थी और पुराने किस्म के हथियार थे। फिर भी भारत के जवानों ने डटकर युद्ध किया। वस्तुत: यह हार सेना की नहीं, बल्कि शीर्ष नेतृत्व की थी। जीतते हुए चीन ने 21 नवंबर, 1962 को एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी और पहले की स्थिति में लौट गया।
चीन ने भारत पर विस्तारवादी होने का आरोप लगाते हुए 29 दिसंबर, 1959 को भारत के विदेश मंत्रालय को एक नक्शा भेजा जिसमें कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र और अरुणाचल प्रदेश के 50,000 वर्ग मील क्षेत्र को अपने कब्जे में दिखाया। यानी चीन की कारगुजारियां हमले के 10 महीने पहले से शुरू हो गयी थीं। परंतु नेहरू सरकार ने न तो सुरक्षा नीति में कोई ठोस काम किया और न ही विदेश नीति के स्तर पर। नेहरू तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन पर बहुत भरोसा करते थे। लापरवाही का आलम यह था कि जब चीन युद्ध की तैयारियों में जुटा था, तब नेहरू और मेनन लंबी-लंबी विदेश यात्राओं में मग्न थे।
इस युद्ध ने नेहरूवादी विदेश नीति के दौर को खत्म कर दिया। यह साबित हो गया कि नेहरूवादी विदेश नीति भारत की सुरक्षा नहीं कर सकती और रक्षा एवं सैन्य शक्ति दिल्ली की प्राथमिकता होनी चाहिए। इसने भारत को अपनी सैन्य शक्ति पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया और रक्षा पर खर्च बढ़ गया जिसके परिणामस्वरूप आज भारत एक परमाणु शक्ति है। दूसरे इसने भारत को अन्य देशों के साथ अधिक यथार्थवादी संबंध रखने के लिए प्रेरित किया। साथ ही इसने भारत को चीन को एक संभावित सुरक्षा खतरे के रूप में स्थायी रूप से परिभाषित करने के लिए प्रेरित किया।
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