भारत में आज विवाह-विच्छेद अर्थात तलाक सहित पारिवारिक न्यायालयों में सभी प्रकार के विवादों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। भारत में वर्ष 2001 में प्रति एक हजार दम्पती पर तलाक की संख्या मात्र एक थी। आज वहीं 19 तलाक प्रति हजार दम्पती हो गई है।
परिवार हमारी संस्कृति का सर्वाधिक अनमोल उपहार है। पारिवारिक आत्मीयता, स्नेह, सहयोग व सहानुभूति ही हमारी शक्ति का प्रमुख स्रोत है। शक्ति का यह स्रोत त्याग व कर्त्तव्य भाव से परस्पर कष्ट सहने की वृत्ति से चिर-स्थायी किया जा सकता है। आजकल बढ़ती पारिवारिक कलह, क्लेश व उपेक्षा से बढ़ रहे तनाव व अवसाद के कारण आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं अत्यन्त चिन्ताजनक रूप ले रही हैं। देश में विवाह विच्छेद अर्थात परिवार न्यायालयों में विवादों की संख्या अत्यन्त तेजी से बढ़ रही है।
पश्चिम की त्रासदी से लें सबक
भारत में आज विवाह-विच्छेद अर्थात तलाक सहित पारिवारिक न्यायालयों में सभी प्रकार के विवादों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। भारत में वर्ष 2001 में प्रति एक हजार दम्पती पर तलाक की संख्या मात्र एक थी। आज वहीं 19 तलाक प्रति हजार दम्पती हो गई है। हमारी तुलना में पश्चिमी देशों में विवाह-विच्छेदों अर्थात तलाक की औसत संख्या 500 तलाक प्रति हजार दम्पती है, कई देशों में 800 प्रति हजार से भी उच्च है। यूरोप-अमेरिका में हुए अध्ययनों के अनुसार परिवार विच्छेद गम्भीर समस्या का रूप ले रहा है।
इंग्लैण्ड में मैरिज फाउण्डेशन व यूनिवर्सिटी आफ लिंकन के 10929 माताओं के समाजशास्त्रीय अध्ययनों में यह सत्य सामने आया है कि विवाह विच्छेद करने वाले जोड़ों की सन्तानों की मनोदशा, उनके माता-पिता के तलाक के दिन के 2-4 वर्ष पहले से ही दबाव युक्त हो जाती है। जीवन तनावमय और उसकी पढ़ाई-लिखाई गम्भीर रूप से प्रभावित होती देखी गई है। उन देशों में 14-19 प्रतिशत ऐसे किशोर आयु के बच्चों को 16 वर्ष के पूर्व मनोचिकित्सकीय उपचार दिलाने तक की आवश्यकता पड़ने लगी है।
अमेरिका में लिंकन पेरियरे बिहेविअरल हेल्थ सेन्टर द्वारा 158 बच्चों का अध्ययन किया गया जिन्हें 16 वर्ष की आयु के पूर्व मनोचिकित्सा वार्ड अर्थात साइकिएट्रिक वार्ड में भर्ती कराना पड़ा था। इन बच्चों के अध्ययन में सामने आया कि उनमें 89 प्रतिशत बच्चे ऐसे थे जो माता या पिता में से किसी एक एकल अभिभावक के साथ रहते थे या उनके परिवार में सौतेली मां या सौतेला पिता था या उनके माता-पिता बिना विवाह सहजीवन जी रहे थे।
परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी आदि सम्बन्ध में पारस्परिक कर्तव्यपालन के साथ-साथ, एक गृहस्थ को स्वयं भी किस प्रकार जीवन-यापन करना चाहिए, इसका संतुलित विवेचन वेदों व हमारे प्राचीन ग्रंथों में है। प्रत्येक व्यक्ति परिवार में अनेक सम्बन्धों से युक्त होता है। वह किसी का पुत्र है, तो किसी का पिता भी है। किसी का भाई है, तो किसी का मामा भी है। किसी का वह पति है, तो किसी का वह दामाद भी है।
उपेक्षाजनित आत्महत्याएं व अपमृत्यु
भारत में विश्व की तुलना में प्रति 1 लाख लोगों पर 12 से भी अधिक आत्महत्या का आंकड़ा अत्यन्त चिन्ताजनक है। केरल व तेलंगाना जैसे विकसित राज्यों में यह दर 27 प्रति एक लाख तक है। बेहतर पारिवारिक सहकार व सहानुभूति युक्त वातावरण इसमें कमी ला सकता है।
इसी वर्ष 29 मार्च को एक बुजुर्ग दम्पत्ति ने तो हरियाणा में इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उनका 30 करोड़ की सम्पत्ति का मालिक बेटा भी उन्हें दो समय का भोजन व आवश्यक चिकित्सा उपलब्ध नहीं करा रहा था।
भारत जैसे देश में बुजुर्ग माता-पिता व परिजनों की ऐसी घोर उपेक्षा की घटनाएं अत्यन्त चिन्ताजनक व दर्दनाक हैं। ऐसी ही आत्महत्या की घटनाओं के अतिरिक्त जीवित बुजुर्ग नागरिकों की सतत उपेक्षा की घटनाएं तो कहीं अधिक हैं। ऐसी ही एक अन्य घटना में तो विदेश से लौटने पर एक पुत्र को मुम्बई में 2017 में अपनी 63 वर्षीया मृत माता का अस्थिपिंजर ही मिला। अमेरिका से लौटने पर आशा साहनी नामक महिला के पुत्र ऋतुराज ने पाया था कि उसकी माता का मोबाइल फोन एक वर्ष से स्विच आफ था। पति की मृत्यु के बाद आशा साहनी अकेली रह रही थीं।
आंकड़ों की दृष्टि से अकेले केरल में 2016 से 2020 के बीच 10,000 बुजुर्गों ने आत्महत्या की थी, जिनमें 7148 पुरुष व 2460 स्त्रियां थीं। मध्य क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन के अनुसार आत्महत्या से मरने वालों में 56.3 प्रतिशत तो 60-69 वर्ष के आयु वर्ग से थे और 33.7 प्रतिशत लोग 70-79 वर्ष के मध्य आयु वर्ग के थे। बुजुर्गों पर किए एक सर्वेक्षण के अनुसार इनमें 57 प्रतिशत घोर उपेक्षा से पीड़ित पाए गए, 38 प्रतिशत शाब्दिक दुर्व्यवहार के शिकार पाये गये और 13 प्रतिशत शारीरिक दुर्व्यवहार के शिकार तक पाये गए।
चीन का परिवार संस्कार संग्रहालय
चीन में तो एक ऐसा ‘सेवा से पुण्यार्जन’ नामक संग्रहालय (म्यूजियम) बनाया गया है जिसमें उन लोगों की तस्वीरें प्रदर्शित की गई हैं जिन्होंने बुजुर्ग माता-पिता व अन्य परिजनों की त्यागपूर्वक व नि:स्वार्थ भाव से सेवा की है या बच्चों को विशेष स्नेह तथा आदर व सम्मान दिया है। उदाहरणार्थ इस संग्रहालय में एक चित्र उस पुलिस कर्मचारी का है जिसने अपने बिस्तर पर पड़े माता-पिता की वर्षों तक सेवा तथा चिकित्सीय देखभाल की।
एक अन्य तस्वीर उस 8 वर्ष की अबोध बालिका की है जिसने अपनी लकवाग्रस्त मां की वर्षों तक सेवा की और इसके साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। एक और ऐसा ही चित्र संग्रहालय में प्रदर्शित है जिसमें एक अध्यापक ने अपनी बुजुर्ग मां, जिसे अल्जाइमर रोग हो गया था, की खूब सेवा की और सदैव अपने साथ रखा और वह जहां भी जाता था, उसे अपने साथ रखता था।
परिवार के हित में त्याग की महिमा को दर्शाने वाले इस म्यूजियम में प्रदर्शित चित्रों को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग अपने बच्चों के साथ आ रहे हैं। इससे बच्चों में बुजुर्गों के प्रति सम्मान व आदर की भावना, सेवा का भाव तथा पारिवारिक मूल्य व आदर्श पुन: जाग्रत होंगे।
भारत जैसे देश में बुजुर्ग माता-पिता व परिजनों की ऐसी घोर उपेक्षा की घटनाएं अत्यन्त चिन्ताजनक व दर्दनाक हैं। ऐसी ही आत्महत्या की घटनाओं के अतिरिक्त जीवित बुजुर्ग नागरिकों की सतत उपेक्षा की घटनाएं तो कहीं अधिक हैं। ऐसी ही एक अन्य घटना में तो विदेश से लौटने पर एक पुत्र को मुम्बई में 2017 में अपनी 63 वर्षीया मृत माता का अस्थिपिंजर ही मिला। अमेरिका से लौटने पर आशा साहनी नामक महिला के पुत्र ऋतुराज ने पाया था कि उसकी माता का मोबाइल फोन एक वर्ष से स्विच आफ था। पति की मृत्यु के बाद आशा साहनी अकेली रह रही थीं।
शास्त्रों में पारिवारिक जीवन
वेदों में परिवार संस्कृति को बढ़ाने हेतु कई सूक्त हैं। ऋग्वेद में परिवार को तप:स्थली कहा गया है। नारी सम्मान को उसकी सर्वोपरि साधना कहा है। ऋग्वेद 3(53/6) व पद्म पुराण आदि कई पुराणों व स्मृतियों में पिता तीर्थ, माता तीर्थ, पत्नी तीर्थ अर्थात माता, पिता व पत्नी का परितोष व सम्मान करने को भी तीर्थ तुल्य पुण्यप्रद कहा है। उसमें माता-पिता, गुरू व पति-पत्नी को तीर्थ रूप में विवेचित किया गया है।
परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी आदि सम्बन्ध में पारस्परिक कर्तव्यपालन के साथ-साथ, एक गृहस्थ को स्वयं भी किस प्रकार जीवन-यापन करना चाहिए, इसका संतुलित विवेचन वेदों व हमारे प्राचीन ग्रंथों में है। प्रत्येक व्यक्ति परिवार में अनेक सम्बन्धों से युक्त होता है। वह किसी का पुत्र है, तो किसी का पिता भी है। किसी का भाई है, तो किसी का मामा भी है। किसी का वह पति है, तो किसी का वह दामाद भी है। किसी की बहन या पुत्रवधू भी हो सकती है। यथा: वेदों में परिवार में इस पारस्परिकता का कई सूक्तों में सुन्दर वर्णन किया गया है। इसमें दो मन्त्र यहां उद्धृत किए जा रहे हैं।
- (1) इस मंत्र में माता-पिता व सन्तान के बीच सौमनस्य को अनिवार्य बतलाया गया है
अनुव्रत: पितु: पुत्रे: मात्रा भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्।।
(अथर्व. 3/30/2) - (2) वेद में वधू अर्थात पुत्र वधू को घर की साम्राज्ञी बता, उसे पूरे परिवार को जोड़ने वाली धुरी का स्थान दिया गया है और ननद-भाभी को सच्ची सहेली बतलाया है। यथा:
‘‘सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्र्वां भव।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवृषु।’’
(ऋ. 10/95/46) - अर्थ : हे वधू! सम्राज्ञी श्वसुरे भव- तू अपने श्वसुर आदि बड़ों के प्रति सम्यक् प्रकाशमान, चक्रवर्ती राजा की रानी के समान पक्षपात छोड़कर सबके साथ उत्तम आदरपूर्वक व्यवहार करने एवं गृह पर सुशासन करने वाली हो। नये घर में वधू आती है तो उसकी भावनाओं व अपेक्षाओं को सम्राज्ञी की भांति महत्व देना, इस प्रकार सभी परिजनों को अपने सद्व्यवहार व आत्मीयता पूर्वक जोड़कर रखना, सबका सम्मान रखना बहू के लिए परम आवयश्क है। यह पारस्परिक दायित्वों व भाव संवेदनाओं का विषय है।
- वधू – घर परिवार की सम्राज्ञी – इस मन्त्र में वधू को पति के गृह में सम्राज्ञी की उपाधि से अलंकृत किया गया है। जो अच्छी तरह, निष्पक्ष, और अपने माता-पिता के घर अपने माता-पिता, भाई, बहन से जैसा व्यवहार करती थी, उसी प्रकार वह वर के गृह में भी वर के माता, पिता, भाई बहिन आदि से प्रीतियुक्त व्यवहार करे व उनके प्रति संवेदनशील रहे।
- सम्राज्ञी श्वश्रवां भव- परिवार में जो सास आदि बुजुर्ग एवं पूजनीय स्त्रियां हैं, उनसे प्रीतियुक्त व्यवहार कर।ननद-भाभी सच्ची सहेली
- ननान्दरि सम्राज्ञी भव-तेरे कुल में ननद आदि जो समान वय की स्त्रियां हैं, उनके साथ प्रीतियुक्त व्यवहार कर।
- सम्राज्ञी अधि देवृषु- जो देवर, जेठ आदि छोटे-बड़े हैं, सबमें आत्मीय भाव के साथ प्रीति से सबसे अविरोध पूर्वक, पक्षपातरहित, यथा-सम्मान, प्रीतिपूर्वक व्यवहार करें।
पारिवारिक विघटन दर घातक
पश्चिम देशों में उनके सकल घरेलू उत्पाद के 25-30 प्रतिशत तक राशि सामाजिक सुरक्षा पर व्यय हो जाती है। अभिभावकों के समर्थन के अभाव में बच्चों की छात्रवृत्ति व वृद्धावस्था पेंशन आदि पर भारत में इतनी राशि व्यय कर पाना असम्भव है। हमारा गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों से युत पारिवारिक जीवन हमें इतने असह्य सामाजिक सुरक्षा व्ययों के दायित्व से बचाये हुए है।
गृहस्थ आश्रम की महत्ता
गृहस्थ आश्रम व परिवार हमारे समाज जीवन का आधार है। इसीलिए हमारे पुराणों व स्मृतियों में माता-पिता व बुजुर्गजनों, पति-पत्नी के मध्य पारस्परिक कर्त्तव्य पालन को तीर्थ स्नान से भी अधिक पुण्यदायी कहा गया है।
परिवार में प्राप्त संस्कारों, सहयोग व सम्बल से ही हमारे सामर्थ्य का विकास होता है और शैशवकाल से वृद्धावस्था पर्यन्त, हमारे लिए परिवार का आश्रय स्वर्ग से कम नहीं है। लेकिन, आज के भौतिक स्पर्धा के दौर में, जनसंचार माध्यमों यथा दूरदर्शन धारावाहिकों अर्थात टीवी सीरियलों व चलचित्रों अर्थात फिल्मों में हिंसा, अनैतिकता व स्वार्थपरता से युक्त बढ़ते पृथकताजनक दृश्यों के प्रभाव में, भारत में भी परिवारों में पृथक्करण, विवाह-विच्छेद व पारस्परिक कलह की घटनाएं बढ़ने लगी हैं।
हिन्दू संस्कृति में विवाह कोई अनुबन्ध न होकर एक अटूट व पवित्रतम बन्धन के निर्माण का संस्कार है। परिवार, परस्पर त्याग, सहयोग व कर्त्तव्यों की आधारशिला पर स्थापित ऐसी इन्द्रधनुषी इकाई है, जहां पूरे कुटुम्ब का प्रत्येक सदस्य अपनी-अपनी क्षमता व सामर्थ्य से सबका नि:स्वार्थ भाव से सहयोग करता है।
अतएव, हम सभी का यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि अपने परिवार तंत्र को अधिक से अधिक सजीव, प्राणवान बनायें। परिवार में हम व्यक्तिगत अहंकार व व्यक्ति सम्प्रभुता के भाव को छोड़ परस्पर संतोषजनक रीति से संवाद बनाये रखें व परस्पर अधिकतम सहयोग का भाव रखें।
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