केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जम्मू-कश्मीर स्थित कुपवाड़ा में नियंत्रण रेखा से सटे टिटवाल के माता शारदा देवी मंदिर के ई-कपाट खोल रहे थे तो राज्य ही नहीं, देश के हिन्दुओं के मन में एक अलग तरह की खुशी झलक रही थी। मंदिर में मौजूद श्रद्धालु देवी शारदा की जय-जयकार कर पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर में स्थित मूल शारदा पीठ को याद कर रहे थे।
पिछले दिनों जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जम्मू-कश्मीर स्थित कुपवाड़ा में नियंत्रण रेखा से सटे टिटवाल के माता शारदा देवी मंदिर के ई-कपाट खोल रहे थे तो राज्य ही नहीं, देश के हिन्दुओं के मन में एक अलग तरह की खुशी झलक रही थी। मंदिर में मौजूद श्रद्धालु देवी शारदा की जय-जयकार कर पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर में स्थित मूल शारदा पीठ को याद कर रहे थे। सबकी नजरों में एक ही चाहत दिखाई दे रही थी कि वह कौन-सा दिन होगा जब भारत में मां शारदा का मूल स्थान वापस सम्मिलित होगा!
इस अवसर पर अमित शाह ने अपने संबोधन में कहा, ‘‘माता शारदा मंदिर नव वर्ष के शुभ अवसर पर भक्तों के लिए खोला गया है। यह देशभर के भक्तों के लिए शुभ शगुन है। उनकी कृपा सदैव हम सब पर बनी ही रहती है। किसी कारण के चलते मैं शारीरिक रूप से इस स्थान पर उपस्थित नहीं हो सका, लेकिन जब भी जम्मू-कश्मीर का दौरा करूंगा, तो माता शारदा देवी मंदिर में मत्था टेककर अपनी यात्रा शुरू करूंगा।’’ उन्होंने कहा,‘‘यह नई सुबह की शुरुआत मां शारदा देवी के आशीर्वाद और नियंत्रण रेखा के दोनों ओर नागरिक समाज सहित लोगों के संयुक्त प्रयासों से संभव हुई है।
1947 में विभाजन के बाद कबाइलियों ने यहां प्राचीन शारदा पीठ मंदिर, इसके परिसर और गुरुद्वारे को क्षतिग्रस्त कर दिया था। टिटवाल में तभी से यह जमीन वीरान पड़ी थी। 2021 में हमने यहां काम करना शुरू किया और दिसंबर, 2022 में मंदिर के साथ ही एक गुरुद्वारा तैयार कर स्थानीय सिख संगत को सौंपा। वे कहते हैं,‘‘टिटवाल में मंदिर के निर्माण से हमने एक लक्ष्य हासिल किया है लेकिन अभी शारदा पीठ में मुख्य लक्ष्य को हासिल करना बाकी है।’’
– रविंद्र पंडिता
शारदा पीठ को कभी भारतीय उपमहाद्वीप मे शिक्षा का केंद्र माना जाता था। इसलिए यह कदम सिर्फ एक मंदिर का जीर्णाेद्धार नहीं है, बल्कि शारदा संस्कृति को पुनर्जीवित करने की शुरुआत है। अनुच्छेद 370 को खत्म कर इस केंद्र शासित प्रदेश को उसकी पुरानी परंपराओं, संस्कृति की ओर वापस ले जाया जा रहा है।’’ उल्लेखनीय है कि सेव शारदा समिति द्वारा इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। दिसंबर, 2021 में इसका भूमि पूजन हुआ था। इसके संस्थापक रविंद्र पंडिता मंदिर के बारे में बताते हैं कि 1947 में विभाजन के बाद कबाइलियों ने यहां प्राचीन शारदा पीठ मंदिर, इसके परिसर और गुरुद्वारे को क्षतिग्रस्त कर दिया था। टिटवाल में तभी से यह जमीन वीरान पड़ी थी। 2021 में हमने यहां काम करना शुरू किया और दिसंबर, 2022 में मंदिर के साथ ही एक गुरुद्वारा तैयार कर स्थानीय सिख संगत को सौंपा। वे कहते हैं,‘‘टिटवाल में मंदिर के निर्माण से हमने एक लक्ष्य हासिल किया है लेकिन अभी शारदा पीठ में मुख्य लक्ष्य को हासिल करना बाकी है।’’
शारदा पीठ के मार्ग का पड़ाव
जम्मू-कश्मीर के प्रसिद्ध लेखक अग्निशेखर बताते हैं कि कश्मीर से शारदा पीठ (अब का पीओजेके) तक जाने के लिए यह प्रमुख मार्ग तीर्थबल के नाम से प्रसिद्ध था। आज यह बिगड़कर टिटवाल हो गया है। यहां पितरों को तर्पण देने की महत्ता बताई गई है। भाद्रपद की शुक्ल अष्टमी, जिसे शारदा अष्टमी भी कहते हैं, को तीर्थ यात्रा होती थी। कश्मीर घाटी में चार दिन पहले से ही करीब चार स्थानों से तीर्थयात्रा शुरू हो जाती थी। श्रद्धालु बांदीपुर में मधुमती नदी के किनारे कलुषा गांव में प्राचीन शारदा मंदिर के आसपास एकत्र होकर यात्रा शुरू करते थे। फिर यहां से चलकर कुपवाड़ा के गुशी गांव में पहुंचते थे।
यहां भी शारदा जी का स्थान था। इस तरह से चार-पांच स्थानों से चलकर लोग टिक्कर में माता खीर भवानी पहुंचते थे, जो इस यात्रा का एक पड़ाव था। इस रास्ते पर यानी तीर्थबल (टिटवाल) से पहले तुंग द्वार था, जिसे आज के समय टंगदार कहते हैं, से होते हुए यात्री टिटवाल पहुंचते थे। यहां एक मंदिर और छोटा-सा गुरुद्वारा हुआ करता था। दरअसल यह इलाका अपने आप में एक ट्रेडमार्क था। यहां काला जीरा, शहद और घी की मंडी हुआ करती थी। लोग यहीं से अमृतसर और लाहौर आते-जाते थे। इस इलाके का यह एक व्यावसायिक पहलू था। यहां पर पड़ाव के बाद यात्री कृष्ण गंगा नदी में स्नान-तर्पण कर इसे पार करते हुए शारदा पीठ पहुंचते थे।
वर्तमान में टिटवाल क्षेत्र नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर है तो मूल शारदा पीठ पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर में।’’ वे शारदा पीठ की महत्ता के बारे में प्रकाश डालते हुए कहते हैं,‘‘यह पीठ विश्वप्रसिद्ध विद्यापीठ रही है। महात्मिक आख्यान के अनुसार तक्षशिला और नालंदा से भी प्राचीन पीठ जिसे शांडिल्य ऋषि ने बनाया। शारदा महात्मय के अनुसार इसका अपने समय में परशुराम जी ने भी निर्माण कराया था। मान्यता है कि आचार्यों ने यहीं ब्राह्मी लिपि से शारदा लिपि का निर्माण किया। पाणिनि ने भी यहीं अष्टाह्दय और रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसू्त्र पर प्रसिद्ध टीका लिखी। अष्टांगयोग और अष्टांग ह्दय भी शारदापीठ में ही रचे गए हैं, ऐसी मान्यता है। कालांतर में यहां मध्य एशिया और चीन आदि से आकर विद्यार्थी ज्ञानार्जन करते थे, जिसमें प्रमुख नाम फाह्यान का आता है। वह यहां आकर ठहरा और ज्ञानार्जन किया। यह वह स्थान है, जहां हमारे पूर्वजों ने ज्ञानार्जन किया है। यह वही स्थान है जहां आठवीं शताब्दी (736 के निकट) कालड़ी से चलकर शंकराचार्य आए। आपको बता दें कि तब तक वह जगद्गुरु नहीं थे। उस समय वह आद्य शंकराचार्य थे।
यह सोचने वाली बात है कि उन्होंने प्रमुख चार मठ बनाये। जगन्नाथपुरी, द्वारिका, ज्योतिर्मठ और श्रृंगेरी। लेकिन कश्मीर जैसी जगह पर मठ क्यों नहीं बनाया? तो इसका उत्तर मिलता है कि क्योंकि यह पहले से ही सर्वज्ञ पीठ था। यानी सारे ज्ञान का पीठ। इसीलिए यह शारदा पीठ कहलाती है। यानी 64 कलाओं की अधिष्ठात्री देवी का निवास यह स्थान। नमस्ते शारदे देवी काश्मीर पुरवासिनी। शंकराचार्य जब कश्मीर आए तो उनका शास्त्रार्थ हुआ। जब वह विजय हुए तो इसके जो चार द्वार थे, उसमें दक्षिणी द्वार खोला गया। क्योंकि उन्होंने सारी परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली थीं। इसके बाद वह जगद्गुरु कहलाए। इसके बाद कश्मीर के आचार्यों ने शंकराचार्य के सम्मान में श्रीनगर स्थित पहाड़ी का नाम शंकराचार्य पहाड़ी रखा। इससे पहले इस पर्वत का नाम गोपाद्री पहाड़ी हुआ करता था। इसका महत्व इसलिए है, क्योंकि वह इस स्थान पर कुछ दिन ठहरे थे और यहीं सौंदर्य लहरी नाम की प्रसिद्ध
रचना की।’’
आठवीं शताब्दी के बाद 2023 में यानी 1500 साल बाद सनातन नववर्ष के प्रारंभ में, नवरेह के शुभ अवसर पर उसी श्रृंगेरी मठ से माता शारदा फिर से कश्मीर में पुन: लौटी हैं। यह पंच धातु की प्रतिमा है, जिसके लिए टिटवाल में मंदिर बनाया गया। लगभग 1500 वर्ष के बाद इसका एक सांकेतिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भूराजनैतिक अर्थ भी है। हमारा विश्वास है कि यह सब कुछ दैवीय कृपा से प्रेरित कार्य हो रहा है।’’ -अग्निशेखर
चंदन की प्रतिमा को किया विराजित
कश्मीर की सर्वज्ञ पीठ से उपाधि मिलने के बाद जगद्गुरु शंकराचार्य माता शारदा की एक चंदन की प्रतिमा अपने साथ दक्षिण भारत स्थित श्रृंगेरी ले गए। इस दौरान कुछ कश्मीरी आचार्य भी उनके साथ थे। तुंग नदी के किनारे शारदा पीठम् बनाया। इस पीठ में उन्होंने स्वयं श्रीचक्र बनाकर शारदा माता को विराजित किया। इसके बाद चोल राजाओं इसे बनवाया। चंदन की वह मूर्ति आज भी विद्या शंकर मंदिर में विराजित है। श्री अग्निशेखर कहते हैं कि आठवीं शताब्दी के बाद 2023 में यानी 1500 साल बाद सनातन नववर्ष के प्रारंभ में, नवरेह के शुभ अवसर पर उसी श्रृंगेरी मठ से माता शारदा फिर से कश्मीर में पुन: लौटी हैं। यह पंच धातु की प्रतिमा है, जिसके लिए टिटवाल में मंदिर बनाया गया। लगभग 1500 वर्ष के बाद इसका एक सांकेतिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भूराजनैतिक अर्थ भी है। हमारा विश्वास है कि यह सब कुछ दैवीय कृपा से प्रेरित कार्य हो रहा है।’’
1976 की है प्रस्तावना
आज टिटवाल में जिस शारदा मंदिर ने आकार लिया है, उसकी प्रस्तावना 1976 की है। अग्निशेखर शारदा अभियान के इतिहास के बारे में बताते हैं, ‘‘यह मुख्य तौर पर पंडित स्व. अमरनाथ गंजू जी का प्रयास था। लेकिन आर्यसमाज के प्रचारक नेत्रपाल शास्त्री, पंडित दया किशन बाबू और मैं भी प्रारंभ से इस अभियान में एक कार्यकर्ता के नाते जुड़ा रहा। मुझे याद है कि श्रीनगर में राम चंद्र मंदिर के परिसर में दो दिवसीय सेमिनार हुआ था, जिसमें शारदा पीठ का मार्ग खोलने का प्रस्ताव गुजरात से आए तत्कालीन महामंडलेश्वर की उपस्थिति में सर्वसम्मति से रखा गया था। हमारा प्रयास चल ही रहा था कि 1990 में हिन्दुओं का निर्वासन हो गया। बाद में 28 दिसम्बर, 1993 को दिल्ली के सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम में प्रथम कश्मीरी पंडित विश्व सम्मेलन में एक घोषणा पत्र (दिल्ली घोषणा पत्र) जारी हुआ, जिसमें यह मार्ग खोलने के मुद्दे को उठाया गया। साथ ही शारदा लिपि के वैकल्पिक उद्धार के लिए आवाज बुंलद की गई। समय-समय पर इसके बाद कई राष्ट्रपतियों एवं शंकराचार्यों के सामने यह विषय रखा गया।’’
123 स्थानों पर चल रहा काम
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उद्घाटन के दौरान कहा कि कि अनुच्छेद 370 निरस्त किए जाने के बाद से कश्मीर में शांति स्थापित हुई है। उसी का परिणाम है कि राज्य ने सामाजिक और आर्थिक बदलाव की दिशा में सभी क्षेत्रों में पहल की है। इसके तहत धार्मिक महत्व के 123 चुनिंदा स्थानों पर जीर्णाेद्धार का काम चल रहा है। जियारत शरीफ रेशिमाला, राम मंदिर, सफाकदल मंदिर, हलौती गोम्पा मंदिर, जगन्नाथ मंदिर सहित कई मंदिरों और पांथिक स्थलों का जीर्णाेद्धार कराया जा रहा है।
गौरतलब है कि इसी कड़ी में श्रीनगर स्थित 700 वर्ष पुराने मंगलेश्वर भैरव मंदिर का जीर्णोद्धार किया जा रहा है। 2004 में इसे कश्मीरी हिन्दुओं के पलायन के बाद पहली बार खोला गया था। श्रीनगर के उपायुक्त मोहम्मद एजाज असद बताते हैं कि सितंबर, 2014 में आई बाढ़ के कारण मंदिर की दीवारों में दरारें आ गई थीं। ऐसे में वास्तुकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस विरासत के पुनरुद्धार, बचाव, संरक्षण और मरम्मत कार्य की योजना बनाई गई। आंकड़ों की बात करें तो श्रीनगर स्मार्ट सिटी के तहत कश्मीर के प्राचीन और ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों के जीर्णोद्धार का काम किया जा रहा है। अब तक करीब 15 ऐतिहासिक मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ है।
तीर्थबल मंदिर की विशेषता
अग्निशेखर बताते हैं कि समूचे राज्य का माहौल अनुच्छेद 370 के बाद बदल रहा है। मंदिर बनने से बहुत अच्छा संदेश गया है। वह कहते हैं,‘‘आज के टिटवाल स्थित शारदा मंदिर (तीर्थबल) की विशेषता यह है कि यह पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर की शारदा पीठ की प्रतिकृति है। वहां पीठ के अवशेष आज भी वैसे ही खड़े हैं, जैसे वह सनातन धर्मियों के आने की प्रतीक्षा कर रहे हों। उसी मंदिर की छोटी सी अनुकृति इस मंदिर में दिखाई पड़ती है।
कश्मीर के साहित्य में वर्णन मिलता है कि मूल शारदा पीठ के भी चार द्वार थे और इस नवनिर्मित मंदिर के भी चार द्वार हैं। अब इस मंदिर में पहुंचते ही आपको मूल स्थान की याद आती है। मैं मानता हूं कि यह मंदिर भू-राजनीतिक संदेश देता है कि भारत अपने मूल स्वरुप की ओर बढ़ रहा है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो शारदा माता अपने मूल स्थान की ओर लौट रही हैं। पर्यटन की दृष्टि से भी इलाके के लिए बहुत अच्छा संदेश गया है। अब विश्वभर के लोग यहां आएंगे, जिसके चलते रोजगार के साधन विकसित होंगे।’’
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