सुभाष चंद्र बोस जयंती विशेष : सार्वभौम भारत के स्वप्नद्रष्टा !
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सुभाष चंद्र बोस जयंती विशेष : सार्वभौम भारत के स्वप्नद्रष्टा !

- नेताजी कहा करते थे, "भारत विश्व प्रासाद की नींव का पत्थर है। हमारी धरती, हमारी सभ्यता एवं संस्कृति अति महान और प्राचीन है।

by पूनम नेगी
Jan 22, 2023, 06:05 pm IST
in भारत
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस सच्चे अर्थों में राष्ट्रपुरुष थे। उन्होंने राष्ट्रनिर्माण का स्वप्न देखा था। उनका सपना था स्वतंत्र, विशाल, महिमाण्डित एवं गौरवशाली भारत। नेताजी कहा करते थे, “भारत विश्व प्रासाद की नींव का पत्थर है। हमारी धरती, हमारी सभ्यता एवं संस्कृति अति महान और प्राचीन है। यह हमारी जन्मभूमि है, जिसकी धूल में राम और कृष्ण घुटनों के बल चले थे। यदि हमें अपनी स्वर्गादपि गरीयसी मातृभूमि के लिए कष्ट सहने पड़ते हैं तो क्या यह प्रसन्नता का विषय नहीं है! ” जन्मजात आशावादी होने के कारण ‘अखण्ड भारत’ के प्रति उनका दृढ़ आत्मविश्वास था। उनका मानना था कि एक व्यक्ति की भांति प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक विशेष आदर्श होता है। इसी आदर्श में समस्त जीवनदायिनी शक्ति निहित होती है। भारत का यह आदर्श आध्यात्मिकता है। जिसके कारण भारत की सभ्यता और संस्कृति अगणित आघातों को सहने के बावजूद जीवन्त और प्रखर है। उनका कहना था कि हमारे पास सदविचारों की गौरवपूर्ण सम्पदा भारी मात्रा में है पर हमें इस अमूल्य सम्पदा घर-घर में वितरित करना है। सुनहरे भारत के भविष्य हेतु विपुल एवं सम्पूर्ण संसाधन हमारे पास विद्यमान हैं।   जरूरत है तो बस इसके राष्ट्रीय जागरण की। इसी के बलबूते भारत अपनी विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संरचना को विकसित करने में सक्षम होगा।

सुभाष चन्द्र बोस भारतभूमि को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। वे कहते थे, ‘’मै एक ऐसे  नूतन राष्ट्र की कल्पना से ही आत्मविभोर हो उठता हूं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी क्षमता एवं प्रवृत्ति के अनुसार अपनी पूर्णता को प्राप्त करे। उनके मानस पटल पर विशाल राष्ट्र का भव्य स्वरूप था और वे उसकी समग्रता के आराधक एवं उपासक थे।‘’ उनके अनुसार विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, जाति या वर्ग के व्यक्ति राष्ट्रीय उत्थान का लक्ष्य लेकर चलें तो उनकी आस्था और विश्वास में कभी टकराहट नहीं पैदा होगी। इसकी व्याख्या उनके एक पत्र से स्पष्ट होती है, “भारत के हिन्दुओं की यह अविच्छिन्न परम्परा रही है कि वह उन सभी समुदाय, जाति तथा वर्गों को समुचित सम्मान देकर प्रतिनिधित्व देते हैं जो भारत को अपनी मातृभूमि मानते हैं। धर्म-भावना उनके रोम-रोम में समायी थी। उनकी मान्यता थी कि धर्म व्यक्ति की आत्मा को बलिष्ठ और शक्तिशाली बनाता है और आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। आदमी केवल रोटी खाकर जीवित नहीं रहता, उसके लिए नैतिक और अध्यात्मिक खुराक की भी आवश्यकता है। सुभाष के जीवन में स्वामी विवेकानन्द का गहरा प्रभाव पड़ा था। वे उन्हें अपना अध्यात्मिक गुरु मानते थे। उन्होंने राष्ट्रीय एकता के मंत्रदृष्टा स्वामी विवेकानन्द के विचारों से ही अपने मन की स्थिरता, राष्ट्रीय के प्रति अविचलता, संकल्पों की अडिगता और कर्मयोग की भावना प्राप्त की।

4 अप्रैल 1927 को अपने एक मित्र गोपाल सान्याल को लिखे एक पत्र में उनके राष्ट्रनिष्ठा के इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति झलकती है, “जब तक हम अपना जीवन शत- प्रतिशत बलिदान करने को तैयार नहीं होंगे, तब तक हमारे लिए दृढ़ और अडिग खड़ा रहना सम्भव नहीं। मैंने अपना जीवन उस प्रार्थना के साथ प्रारम्भ किया था, हे प्रभु! तुम्हारी पताका लेकर चल रहा हूँ उसे वहन करने की शक्ति तुम्हीं देना। मुझे पता नहीं कि भविष्य के गर्भ में मेरे लिए क्या है केवल अपने अन्तर को विकसित करते जाने में ही अनन्त आनन्द है।” राष्ट्र-निर्माण में आने वाले समस्त कष्टों को वे ईश्वरीय वरदान समझते थे। युवा शक्ति का आह्वान करते हुए उनका स्वर था-ऐ युवाओं! तुम ही वह शक्ति हो, जिसके बल पर भारतमाता के अधिकारों की रक्षा सम्भव है। मत भूलो कि शक्तिहीनता सबसे बड़ा अभिशाप है। मत भूलो की असत्य और अन्याय से समझौता करना सबसे बड़ा पाप है। इस शाश्वत नियम को याद रखो यदि तुम जीवन प्राप्त करना चाहते हो, तो जीवन दे डालो और यह याद रखो कि अन्याय के विस्र्द्ध संघर्ष करना जीवन का सबसे अहम् कर्तव्य है, उसके लिए चाहे कितना ही मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। यदि तुम गुलाब के फूलों की सुरभि चाहते हो तो उसके तीखे कांटों से परहेज मत करो। यदि तुम राष्ट्रनिर्माण का वरदान चाहते हो तो उसका मूल्य चुकाओ और याद रखो यह मूल्य है तप और त्याग।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस राष्ट्र में एक ऐसे समाज के स्वप्नद्रष्टा थे, जहां जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय और लिंग -भेद की असमानता न हो। उनकी समाजवाद की कल्पना वैदेशिक धारणाओं पर आधारित न होकर अनिवार्यतः भारतीय इतिहास और राष्ट्र-परम्पराओं पर आधारित विचार एवं कल्पना है। जिस समाजवाद के वे हामी थे उसका मूल भारत की संस्कृति और सभ्यता में सन्निहित है। “इण्डियन स्ट्रगल” में वे लिखते हैं, भारतवर्ष को अपने भूगोल और इतिहास के अनुसार समाजवाद का विकास करना चाहिए, जिसमें नवीनता और मौलिकता हो तथा वह सारे संसार के लिए लाभदायी हो। उनका मानना था, भविष्य में भारत अपने समाजवाद के स्वरूप को स्वयं विनिर्मित करेगा, जो समस्त संसार के लिए अनुकरणीय होगा। उनका कहना था,  सम्पूर्ण समाज के लिए स्वतन्त्रता का अर्थ है- पुरुष के साथ स्त्री की स्वतन्त्रता, उच्च जातियों के साथ दलितों का उत्थान, केवल धनवानों के लिए ही नहीं निर्धनों की भी स्वतन्त्रता, आबाल-वृद्ध सबके लिए स्वतन्त्रता। समाज में सबको शिक्षा और विकास के समान अधिकार मिलना चाहिए। समानता, न्याय, स्वतन्त्रता अनुशासन और प्रेम ही सामूहिक जीवन का आधार है। वे इस बात को हिमायती थे कि भारतीय राजनीति में वे सभी तत्व समाहित हों जो जन-कल्याणकारी होने के साथ ही उदात्त भावनाओं से भी सम्पृक्त हों।

नवम्बर 1944 में टोकियो विश्व-विद्यालय के छात्रों के सम्मुख व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था,” पिछले अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हमें किसी नयी राजनैतिक प्रविधि का प्रादुर्भाव करना पड़ेगा। नेता को जनता का सेवक होना चाहिए। सार्वजनिक सेवा का जीवन संन्यास की तरह होता है। इसके लिए हमारा सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि हम इस प्रकार के स्त्री-पुरुषों का समूह संगठित कर लें जो अधिक से अधिक कष्ट सहन करने और बलिदान देने के लिए तैयार रहें। भारतमाता ऐसे लोगों के पुकार रही हैं, जो अपने जीवन के अन्तिम दिन तक अपने महान उद्देश्य की पूर्ति के प्रयत्न और कार्य करते रहने की प्रतीक्षा करें। जो केवल अपने देश को, केवल अपने इसी लक्ष्य के लिए समर्पित रहें।”

राष्ट्रनायक सुभाष उस शिक्षा के पक्षधर थे जो राष्ट्रीय भावना से युक्त हो। वे इस बात को गहराई से जानते थे कि किसी राष्ट्र के निर्माण के लिए उसकी योजनाओं की अपेक्षा उसकी शिक्षा को सोद्देश्य रूप देना अधिक महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार, प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही छात्र-छात्राओं में राष्ट्रीय भावनाओं के प्रति स्र्झान उत्पन्न करना चाहिए ताकि उन्हें भारत की संस्कृति और उसकी गौरव-गरिमा का बोध हो सके। ऐसी शिक्षा ही विद्यार्थियों में राष्ट्रीय संवेदना को दृढ़ कर सकती है। इससे ऐसे नागरिक उत्पन्न हो सकेंगे जो राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर सकें। सन् 1924 में माण्डले जेल से सुभाषचन्द्र बोस ने कलकत्ता के अपने एक समाजसेवी मित्र हरिचरण बागची को शिक्षा के बारे में लिखा था, “बच्चा अपनी समस्त ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से वस्तुओं को परखना चाहता है। अतः प्रकृति के इस नियम का पालन करते हुए बच्चों को उचित शिक्षा देनी चाहिए। छात्रों को केवल सैद्धान्तिक शिक्षा देकर ही संतोष नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि उन्हें विभिन्न उद्योगों एवं कलाओं की शिक्षा देने की व्यवस्था भी करनी चाहिए। शिक्षा के माध्यम से बच्चों की सृजनात्मकता, मौलिकता और व्यक्तित्व विकास के लिए सुअवसर प्रदान करना चाहिए। विद्यार्थियों को अनुशासन, तथा ब्रह्मचर्य का पाठ भी पढ़ाना चाहिए, जिससे वे शारीरिक और बौद्धिक रूप से बलिष्ठ हों। उनका कहना था कि राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास के लिए समग्र शिक्षा नीति की आवश्यकता है। विश्वविद्यालय के छात्र समाज और देश के प्रति महान उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकते हैं।

“इण्डियन स्ट्रगल” में उन्होंने लिखा है कि भारत साम्यवाद को नहीं अपनाएगा क्योंकि राष्ट्रवाद के साथ साम्यवाद की कोई सहानुभूति नहीं है और भारतीय आन्दोलन एक राष्ट्रीय आन्दोलन है। सुभाष बोस ने हरिपुरा में 1938 की 51 वें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में दिये गये अपने भाषण में कहा था, ” हमें अत्यंत सावधानीपूर्वक इस बात पर विचार करना होगा कि चाहे हम आधुनिक औद्योगिकवाद को कितना ही नापसन्द करें, तब भी हम औद्योगिक पूर्व अवस्था में वापस नहीं लौट सकते। अतः ऐसा उपाय करें, जिससे उसकी बुराइयां कम हों तथा बन्द पड़े कुटीर उद्योगों को फिर से शुरु करने की सम्भावना बढ़े। हमें उत्पादन तथा वितरण के लिए एक ऐसी व्यापक योजना बनानी होगी, जिससे समस्त कृषि तथा औद्योगिक प्रक्रिया का धीरे-धीरे समाजीकरण किया जा सके। आर्थिक योजना पर सर्वाधिक प्रभाव जनसंख्या का पड़ता है। उन्होंने इस बारे में कहा था, जिस देश में लोग गरीबी, भुखमरी और रोगों से पीड़ित रहते हों उसमें यह सहन नहीं किया जा सकता कि एक ही दशक में उसकी जनसंख्या करोड़ों बढ़ जाए। आबादी कुलाचें मारती हुई बढ़ती गयी तो हमारी योजनाओं पर पानी फिर जायेगा।

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