राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ रहा है। राजनीतिक प्रभाव से लेकर महिलाओं की भागीदारी तक कई विषय ऐसे हैं, जो संघ के विरुद्ध प्रचार में प्रयुक्त होते रहे हैं। युवाओं की भागीदारी, तकनीक की भूमिका, एलजीबीटी समुदाय के प्रति दृष्टिकोण, आर्थिक विषय और पर्यावरण से लेकर तमाम विषयों पर लोगों की अपेक्षा रहती है कि संघ अपनी बात रखे और उन्हें एक दिशा दे। सरसंघचालक डॉक्टर मोहनराव भागवत ने पाञ्चजन्य- ऑर्गनाइजर संवाद में हितेश शंकर और प्रफुल्ल केतकर के साथ नागपुर में इन विषयों पर खुलकर बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस विशेष वार्ता के कुछ महत्वपूर्ण अंश :
कोरोना के कारण पाञ्चजन्य-ऑर्गनाइजर का संवाद दो वर्ष टला। दो वर्ष के अंतराल में हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वर्ष की यात्रा के और निकट आ गए हैं। सौ वर्ष की यात्रा पूरी करने की ओर बढ़ते हुए संघ के लिए सबसे बड़ी चुनौती कब आई, और वह चुनौती क्या है?
चुनौती शब्द गंभीर है। ऊबड़-खाबड़ रास्ते में कई प्रकार के मोड़ आते हैं। बाधाएं आईं, संकट आए, कठिन रास्ता था, लेकिन एक काम पूरा करना है, बस इतनी बात है। इन सारी परिस्थितियों से गुजरते हुए अपनी दिशा को कायम रखना और अपने स्वत्व को कायम रखना, यह सबसे बड़ी चुनौती होती है। जैसे, हमारा बड़ा विरोध हुआ और हमें उसका सामना करके बाहर निकलना पड़ा। लेकिन विरोध का सामना करके हमें विरोधी नहीं बनना है। कई बार परिस्थिति देखकर उसी दिशा में जाने का दूसरा रास्ता ढूंढना पड़ता है। तो उस दिशा में बढ़ने के लिए हम कुछ मोड़ लेते हैं। किस दिशा में जाना है, उसको ध्यान में रखना चाहिए। तभी उस मोड़ का फायदा होता है। नहीं तो मोड़ के साथ दिशा भी बदल जाती है। संघ की पूरी यात्रा में यह एक बात रही। बाकी सारी बातें अपेक्षानुसार ही थीं।
आज की परिस्थिति में उपेक्षा और विरोध का समय गया। हमें समाज का बहुत स्नेह मिल रहा है। विचार के लिए भी अनुकूलता है और विश्व परिस्थिति भी उस विचार की ओर मानवता को धकेल रही है। चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने उसी प्रकार सब लोग सोचने लगे हैं और यह प्रक्रिया बढ़ती जाएगी। इस कारण हमारा रास्ता थोड़ा सुगम बन गया है। यह भी एक चुनौती है। क्योंकि कंटकाकीर्ण मार्ग के कंटक बदल गये हैं। पहले तो विरोध और उपेक्षा के कंटक थे। उसको हम टाल भी सकते थे। लेकिन अनुकूलता के कारण जो साधन सुविधा, संपन्नता आ गई है और समाज में हम महत्वपूर्ण हो गये हैं, इस स्थिति में यह लोकप्रियता और सुविधाएं, यह हमारे लिए कंटक हैं, जिनसे हमको गुजरना होगा। जैसे हम बहुत ज्यादा (सूचना) माध्यमों के समक्ष आना नहीं चाहते, लेकिन अब टाल नहीं सकते। नहीं जाएंगे, तो नुकसान होगा। प्रश्न उठेगा कि हम क्यों छिप रहे हैं। इसलिए मीडिया के सामने जाना पड़ेगा। सामने जाएंगे तो हम छपेंगे, हमारी फोटो भी छपेगी। छपेंगे, तो उसका लोभ नहीं होना चाहिए। सुविधा है, लेकिन सुविधा का उपयोग कार्य के लिए हो, और हम उसके मालिक बनें, वह हमारी मालिक न बने। उसकी आदत हमें न पड़े। कष्टों की आदत कायम रहे। अनुकूलता से अहंकार न आए। स्टेशन पर लेने आने वालों की जरा भीड़ हुई, तो अच्छा लगने लगता है। ऐसी जो बातें उसके कारण आती हैं, उनसे हमको बचना है और उनसे बचने के लिए हम इन बातों से नहीं बच सकते, उनमें जाकर उनसे बचना है। यह समझना ही हमारी चुनौती है। काम बढ़ रहा है क्योंकि सत्य विचार हैं, वास्तविक विचार हैं, जिन्हें एक न एक दिन तो सबको स्वीकार करना होगा। उसी के आधार पर देश का भविष्य बनने वाला है। उसकी चिंता हमको नहीं है। लेकिन यह यात्रा पूरी करते समय अपनी दिशा कायम रख सकें और अपने स्वत्व को कायम रखकर हम चलें, इसके लिए यह सबसे कठिन समय है। उसको हमें पार करना पड़ेगा। यही हमारी चुनौती है।
एक समय ऐसा था कि संघ का विचार, संघ की कार्यपद्धति, इसमें आर्गेनाइजेशन फॉर द आर्गेनाइजेशन्स सेक, संगठन के लिए संगठन में जाना और वहां से लेकर जैसा कि आपने कहा कि परिवर्तन के लिए, मानवता के लिए यहां तक आना। क्या इसमें संघ की कार्य पद्धति में, विचार में संघ की यात्रा में आप कोई परिवर्तन देखते हैं?
परिवर्तन नहीं है। उसमें विकसन है- विकसित होने की क्रिया। कली खिलती है, तो सारी पंखुड़ियां एक साथ नहीं खिलतीं। पंखुड़ियां पहले से होती हैं। संगठन वही है। कार्य पद्धति वही है। हम संगठन के लिए ही संगठन कर रहे हैं। अन्यथा यह हो सकता है कि आज हमें इतने ही काम करने हैं कि शाखा नहीं चलाएंगे, तो भी लोग तो हमारे पास हैं ही, समाज में भी प्रतिभाएं हैं, जिनका उपयोग हम करते हैं। अन्य भी बहुत से लोग आते हैं। फिर भी हम शाखा चला रहे हैं। बोझ हमारा बढ़ता है। फिर हम समाज का संगठन किसलिए कर रहे हैं? यह प्रश्न है। आपको स्वस्थ क्यों रहना है? स्वस्थ रहना है क्योंकि स्वस्थ रहने से बाकी काम स्वस्थ होगा। बुढ़ापे में सेवानिवृत्त हो जाते हैं, कोई काम नहीं रहता तो भी स्वस्थ रहना है। बचपन में परिवार चलाने का कोई काम नहीं रहता, फिर भी स्वस्थ रहना है। और काम करते समय भी स्वस्थ रहना है। संगठन के लिए संगठन, यह संघ के लिए ध्रुव है। लेकिन सेवा के लिए स्वयंसेवक, परिवर्तन के लिए स्वयंसेवक, व्यवस्था परिवर्तन, समाज परिवर्तन, इसके लिए स्वयंसेवक, तरह-तरह के कामों के लिए स्वयंसेवक। संघ संगठन करेगा, और कुछ नहीं करेगा। स्वयंसेवक कुछ नहीं छोड़ेगा। आज इसका रूप दिख रहा है। यह विकसन है। जो उस समय बोल रहे थे – संगठन के लिए संगठन, तब हम सुनते थे। संगठन के लिए संगठन चल रहा है, जिसमें कुछ नहीं छिपाना है।
संघ को राजनीति के चश्मे से देखने की प्रवृति रही है और राजनीतिक घटनाओं पर संघ का पक्ष जानने के लिए मीडिया में भी बहुत ललक रहती है। संघ का राजनीति से रिश्ता कैसा है?
समाज में अन्यान्य कारणों से यह राजनीतिक चश्मा पहले से ही चढ़ा है। इसलिए संघ को ही नहीं, हर बात को राजनीति के चश्मे से देखने की प्रवृति है। बाकी समाज में कुछ अच्छा या गड़बड़ चल रहा हो, इस पर कोई ध्यान नहीं देता। राजनीति पर ध्यान जरूर देगा। लेकिन चालू राजनीति से संघ ने अपने-आप को अपने जन्म से ही जान-बूझकर दूर रखा है। वोटों की राजनीति, चुनाव की राजनीति, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति, इससे संघ का कोई संबंध नहीं रहता। राजनीति की वे बातें, जो राष्ट्रनीति को प्रभावित करती हैं अर्थात् राष्ट्र के हित के संबंध के जो विषय हैं – हिन्दू हित, देश हित, राष्ट्रहित, वस्तुत: समानांतर और समानार्थी हैं- उसके लिए राजनीतिक मोड़ जैसे मिलना चाहिए, वैसे मिलता है अथवा नहीं, यह चिंता संघ की पहले से, माने डॉक्टर साहब के समय से, रही है। राष्ट्रनीति के बारे में हम पहले से ही मुखर हैं और जितनी शक्ति है, उसका उपयोग करके जैसा होना चाहिए, वैसा हो, यह प्रयास भी हम करते हैं और डंके की चोट पर करते हैं। उसको हमने कभी छिपाया नहीं है। वही आज भी है। चालू राजनीति से हमारा संबंध नहीं है। राष्ट्रनीति से हमारा जरूर संबंध है। उसके बारे में हमारे मत रहते हैं। आज हमारी शक्ति है तो सभी राष्ट्रहित में हो, इसके लिए इस शक्ति का जितना उपयोग हो सकता है, हम जरूर करेंगे। यह जरूर है कि इससे पहले संघ के स्वयंसेवक सत्ता में नहीं रहते थे। अब यह बात जुड़ गई है। यद्यपि संघ केवल संगठन करता है। लेकिन स्वयंसेवक जो करते हैं, वह संघ पर मढ़ा जाता है, और नहीं मढ़ा जाए तो भी थोड़ा-बहुत उत्तरदायी तो संघ है ही, क्योंकि संघ के स्वयंसेवक संघ में ही तैयार हुए हैं। इसके चलते फिर हमको, संबंध कैसे हों, हम कितना विवेक, कितनी बातों का कितना आग्रह करें, यह सब सोचना पड़ता है।
अभी व्यापारियों का सम्मेलन संघ के विषयों को रखने के लिए था, बाद में प्रश्नोत्तरी थी। संघ के बारे में तो ठीक है लेकिन उनको जीएसटी, आयकर, ईज आफ बिजनेस पर पूछना था। सरकार की सारी बातें उन्होंने पूछीं। यह लोग व्यापार से संबंधित सारी शंकाओं के बारे में बात करने लगे। हर बार मैं यही कहता गया कि यह हमारा काम नहीं है। हर बार मैं यह कहता गया कि नीति का सवाल है, लेकिन मानसिकता का भी सवाल है। लेकिन वे लोग तो यही सवाल पूछेंगे। वे पूछते हैं। हमको यहां तक कहना पड़ता है कि ठीक है, आपकी बात हम पहुंचा देंगे। जो राजनीतिक गतिविधियां चलती हैं, उसमें जनता की कोई इच्छा है, कठिनाइयां हैं, जो हमारे पास आता है, वह स्वयंसेवकों के कारण (वहां तक) पहुंच जाती हैं। स्वयंसेवक सत्ता में नहीं थे, तब भी जो अन्य दलों के सुनते थे, वे थे। आज हैं, कल भी रहेंगे, उन तक हम बात पहुंचाते हैं। प्रणव दा कांग्रेस सरकार में अर्थ मंत्री थे, संघ की दृष्टि से महत्वपूर्ण विषयों पर हम अपनी बात उनके पास पहुंचा देते थे। वे सुनते भी थे। यह हम करते थे। इतनी सी बात है। बाकी हमारा इस चालू राजनीति से कोई संबंध नहीं है।
हिंदू समाज पिछले कुछ वर्षों में हिंदू आस्था, हिंदू विश्वास, हिंदू मूल्य, यहां तक कि उसके प्रतीकों के बारे में ज्यादा मुखर हो गया है। कभी-कभी तो वह आक्रामकता की ओर बढ़ता लगता है। बहुत बार सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को लगता है कि संघ ने अपनी पहले वाली आक्रामकता छोड़ दी है। क्या संघ अब नरम पड़ गया है? क्या समाज में बदलाव होने के कारण संघ ने कोई नीतिगत भूमिका अपनाई है?
हिन्दू समाज लगभग हजार वर्ष से एक युद्ध में है –विदेशी लोग, विदेशी प्रभाव और विदेशी षड्यंत्र, इनसे एक लड़ाई चल रही है। संघ ने काम किया है, और भी लोगों ने काम किया है। बहुत से लोगों ने इसके बारे में कहा है। उसके चलते हिंदू समाज जाग्रत हुआ है। स्वाभाविक है कि लड़ना है तो दृढ़ होना ही पड़ता है। यद्यपि कहा गया है कि निराशी: निर्मम: भूत्वा, युध्यस्व विगत-ज्वर: अर्थात् आशा-कामना को, मैं एवं मेरेपन के भाव को छोड़कर, अपने ममकार के ज्वर से मुक्त होकर युद्ध करो, लेकिन सब लोग ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन लोगों ने इसके बारे में समाज को हमारे जरिए जाग्रत किया। जागृति की परंपरा, जिस दिन पहला आक्रमणकारी सिकंदर भारत आया, तब से चालू है। चाणक्य के बाद से अब तक की परंपरा में विभिन्न लोगों ने एक और लड़ाई के प्रति हिन्दू समाज को आगाह किया है। अभी वह जागृत नहीं हुआ है। वह लड़ाई बाहर से नहीं है, वह लड़ाई अंदर से है। तो हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज की सुरक्षा का प्रश्न है, उसकी लड़ाई चल रही है। अब विदेशी नहीं हैं, पर विदेशी प्रभाव है, विदेश से होने वाले षड्यंत्र हैं। इस लड़ाई में लोगों में कट्टरता आएगी। नहीं होना चाहिए, फिर भी उग्र वक्तव्य आएंगे। लेकिन उसी समय अंदर की कुछ हमारी बातें हैं। श्रीराम हमारे स्वाभिमान के प्रतीक हैं। उनका मंदिर बनना चाहिए। उसका आंदोलन चलता है।
लोग जय श्रीराम कहते हैं। जय श्रीराम कहने से जोश आता है। श्रीराम ने हर जाति-पंथ के लोगों को जोड़ा। लेकिन हमारे यहां अभी भी किसी के डोली पर चढ़ने पर किसी को चाबुक खाने पड़ते हैं। इसको बदलना है या नहीं है? जागृति करने वालों ने, सब लोगों ने कहा है। लेकिन हिन्दू समाज ने क्या उसे ग्रहण किया? हिन्दू समाज में अभी पूरी जागृति नहीं आयी है, वह आनी पड़ेगी। इसी प्रकार लड़ाई है, लेकिन हम क्या हैं? लड़ाई है, तो शत्रु का विचार करना पड़ता है, शत्रु को समझना पड़ता है। शत्रु को ध्यान में रखना पड़ता है। जैसे हम क्या हैं, हमको कब क्या करना है? आप देखेंगे मुगलों के आक्रमण में अंतिम प्रयोग हुआ शिवाजी महाराज का। उसके बाद इसके प्रयोग चलते रहे। शिवाजी महाराज की नीति कैसी थी? वे शत्रु के बारे में जानते थे, परंतु अपने बारे में भी जानते थे कि कब लड़ना है और कब नहीं लड़ना। सीमाधीश्वर बनने के बाद शिवाजी महाराज ने पड़ोसी मुसलमानों की सत्ता से दोस्ती की। गोलकुंडा जाकर कुतुब शाह को अपना दोस्त बनाया। यह बताकर कि तुम्हारे अमात्यों में दो हिन्दू होने चाहिए। हिन्दू प्रजा की प्रताड़ना बंद होनी चाहिए। और उसने वह मान्य किया। शिवाजी महाराज ने उससे दोस्ती की। शिवाजी महाराज के निर्वाण के पश्चात उसमें जो कट्टरपंथी लोग थे, वे दो मंत्रियों की हत्या करके उसे दूसरी लाइन पर ले गए, यह बात अलग है। लेकिन यह सब शिवाजी महाराज ने किया, क्योंकि वे जानते थे कि शक्ति की स्थिति से जब बात करते हैं तो अच्छी बातें स्वीकार होती हैं। दूसरी बात है कि हिन्दू समाज यदि अपने को जानेगा तो अपना समाधान क्या है, इसे समझेगा।
कट्टर ईसाई कहते हैं कि सारी दुनिया को ईसाई बना देंगे और जो नहीं बनेंगे, उनको हमारी दया पर रहना पड़ेगा या तो मरना पड़ेगा। कट्टर इस्लाम वाले, सारे जो अब्राहमिक विचारधारा रखते हैं, ईश्वर को मानने वाले और नहीं मानने वाले लोग हैं, कम्युनिज्म, कैपिटलिज्म सहित, सब ऐसे ही विचार रखते हैं कि सबको हमारा अनुसरण करना स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि हम ही सही हैं, हमारी दया पर रहो या मत रहो। हम नष्ट कर देंगे। हिन्दू का विश्व दृष्टिकोण क्या है? क्या हिंदू कभी ऐसा कहता है कि सबको हिन्दू मानना पड़ेगा? हमारा ऐसा विचार ही नहीं है। हमारा विचार यह है कि हम सब लोगों के सामने एक उदाहरण पेश करेंगे। सब लोगों से संवाद करेंगे। जिसको अच्छा बनना है, वह हमारा अनुकरण करेगा। नहीं है, तो हम उनका कुछ नहीं करेंगे, लेकिन वह हमारा कुछ न कर सकें, इसकी चिंता तो करनी पड़ेगी। इन सब लड़ाइयों में अब हम सबल हो गए हैं। अब वे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्होंने प्रयास किया। हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को छेड़ने की ताकत अब किसी में नहीं है। इस देश में हिन्दू रहेगा, हिंदू जाएगा नहीं, यह अब निश्चित हो गया है। हिन्दू अब जागृत हो गया है। इसका उपयोग करके हमें अंदर की लड़ाई में विजय प्राप्त करना, और हमारे पास जो समाधान है, वह प्रस्तुत करना है। आज हम ताकत की स्थिति में हैं, तो हमें वह बात करनी पड़ेगी क्योंकि अगर अभी नहीं, लेकिन पचास साल बाद हमें यह करना पड़ेगा। पचास साल बाद हम कर सकें, इसलिए अभी से कुछ बनाना पड़ेगा।
आज चीन ने अपनी जो ताकत बढ़ाई है, उसकी योजना 1948 में बनी थी, उसके अनुसार वह जा रहे हैं, तो हमको भी अपनी ताकत की स्थिति में आज कौन सी पहल करनी है, जिससे आगे जा सकें, यह ध्यान रखना होगा। यह कार्रवाई नहीं है, लेकिन हमेशा लड़ाई के मोड में रहेंगे, तो कोई फायदा नहीं है। राष्ट्रीय जीवन में सब प्रसन्न रहते हैं। लड़ना जिनको आता है, वह सब कर लेते हैं, ऐसा भी नहीं है। गैरीबॉल्डी ने लड़ाई लड़ी, लड़ाई होने के बाद उसने कहा कि अब आगे का काम मैं नहीं करता, दूसरों को बताओ। और अंत में राजा बनना था, तो उसने कहा कि मैं नहीं बन सकता, किसी अन्य को बनाओ। तो हमें भी समाज को इन अवस्थाओं के अनुसार अपनी बोलचाल, भाषा को रखना पड़ेगा। दिशा वही है, हिंदुस्थान हिंदू राष्ट्र है और परम वैभव संपन्न, सामर्थ्य संपन्न, हिंदू समाज, परम वैभव संपन्न हिंदू राष्ट्र भारत दुनिया का मार्गदर्शन करेगा। यह करना है तो कैसे करना है? लड़ाई करनी है तो लड़ाई करेंगे, वह हमारी मर्जी है। दूसरे चुनौती दे रहे हैं, इसलिए हम नहीं करेंगे। हम लड़ाई अपनी योजना से करेंगे – यह हिंदू समाज को सोचना है।
एक सांस्कृतिक संगठन के तौर पर संघ की जो छवि है, उसमें आधुनिक विमर्श के जो मुद्दे हैं – उसमें तकनीक भी है, पर्यावरण भी है और जेंडर बहस भी है- इन सब पर संघ को आप कहां पाते हैं?
दुनिया में पश्चिम का ही वर्चस्व अब तक था, इसलिए वही आगे थे। वही नेतृत्व करते थे, वही डिस्कोर्स तय करते थे और वही उपाय करते थे कि यही उपाय है, इसको करो। वे नेतृत्व करते थे। उनके पीछे हमारे सहित सब लोग थे। अब उनका नेतृत्व विफल हो गया है। सब विचार करने के बाद, अपनी विफलता को समझने के बाद वह पर्यावरण पर आते हैं। सब लोग भारतीय विचार के साथ आ रहे हैं, हिंदू विचार के साथ आ रहे हैं। ऐसे ही जेंडर के बारे में, महिलाओं का प्रश्न है, तो स्त्री मुक्ति, नारीशक्ति का नारा चल रहा है। अब पांच दौर में जाने के बाद, परस्पर पूरकता के, पारिवारिक जीवन की आवश्यकता के मुद्दे पर पश्चिम का नारी जगत, नारी नेतृत्व वापस आ रहा है। यानी हमारे विचार पर आ रहा है। ऐसे ही तकनीकी के बारे में अभी बड़ा विवाद चला है कि फ्री टेक्नोलॉजी या टेक्नोलाजी विद एथिक्स, अनरेस्ट्रिक्टेड टेक्नोलॉजी या टेक्नोलॉजी विद ह्यूमन ऐटीट्यूड। टेक्नोलॉजी की कल्पना से किसे क्या करना है? सारी टेक्नोलॉजी दुनिया में आती रहेगी और दुनिया आगे बढ़ती रहेगी। जेंडर और पर्यावरण, यह सनातन हैं। लेकिन पूर्ण जीवन को जो समझता है, वही उसका उत्तर दे सकता है। भारत जीवन की पूर्णता को समझता है। उसमें वह फ्रैगमेंट्स भी हैं, जो पश्चिम की सोच ने उत्पन्न किए हैं कि व्यक्ति अलग है, परिवार अलग है। यह बांट कर देखते हैं, भारत को यह भी पता है और उसको कैसे जोड़ना है, यह भी पता है। इसलिए आज का डिस्कोर्स भी बदल रहा है, जो भारत के डिस्कोर्स की ओर आ रहा है। जब यह नहीं था, तब भी हमने भारतीय डिस्कोर्स का समर्थन किया है। टैगोर, गांधी जी, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, इन सबको लेकर हम आगे बढ़े। आधुनिक जगत में, इन सब बातों के बारे में भी विचार है, उसका अध्ययन करना चाहिए। संघ का कहना कुछ अलग नहीं है।
नई-नई तकनीकी आती जाएगी। लेकिन तकनीकी मनुष्यों के लिए है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर लोगों को डर लगने लगा है वह अगर अनरेस्ट्रिक्टेड रहा तो कल मशीनों का राज हो जाएगा। लोगों को अब यह सोचना ही पड़ेगा। संघ का कोई अलग दृष्टिकोण नहीं है। हिंदू परंपरा ने इन बातों पर विचार किया है।
अभी छोटे से प्रश्न बीच-बीच में आते हैं, जिसको मीडिया बहुत बड़ा बनाता है, क्योंकि वह तथाकथित नियो-लेफ्ट को पुरोगामी लगता है। तृतीयपंथी लोग समस्या नहीं हैं। उनका अपना सेक्ट है, उनके अपने देवी-देवता हैं। अब तो उनके महामंडलेश्वर भी हैं। कुम्भ में भी उनको स्थान मिलता है। वह जन-जीवन का हिस्सा हैं, घर में जन्म होता है तो वह गाना गाने के लिए आते हैं। परंपराओं में उनको समाहित कर लिया है। उनका एक अलग जीवन भी चलता है और सारे समाज के साथ कहीं न कहीं जुड़ कर भी वे काम करते हैं। हमने कभी इसका हवाला नहीं दिया। इसको एक अंतरराष्ट्रीय संवाद का विषय नहीं बनाया है।
इसी प्रकार एलजीबीटी का प्रश्न है। जरासंध के दो सेनापति थे हंस और डिंभक। दोनों इतने मित्र थे कि कृष्ण ने अफवाह फैलाई कि डिंभक मर गया, तो हंस ने आत्महत्या कर ली। दो सेनापतियों को ऐसे ही मारा। यह क्या था? यह वही चीज है। दोनों में वैसे संबंध थे। मनुष्यों में यह प्रकार पहले से है। जब से मनुष्य आया है, तब से है। मैं जानवरों का डॉक्टर हूं, तो जानता हूं कि जानवरों में भी यह प्रकार होता है। यह बाइलॉजिकल है। लेकिन उसका बहुत हो-हल्ला है। उनको भी जीना है। उनका अलग प्रकार है। उसके अनुसार उनको एक अलग निजी जगह भी मिले और सारे समाज के साथ हम भी हैं, ऐसा भी उनको लगे। इतनी साधारण सी बात है। हमारी परंपरा में इसकी व्यवस्था बिना हो-हल्ले होती है। हम करते आए हैं। हमको ऐसा विचार आगे करना पड़ेगा। क्योंकि बाकी बातों से हल निकला नहीं और न ही निकलने वाला है। इसलिए संघ अपनी परंपरा के अनुभव को भरोसेमंद मानकर विचार करता है।
आज के युवा इन विषयों से बहुत बार भ्रमित होते हैं। उनकी उत्सुकता है कि भारत की, हिंदुत्व की दृष्टि इन सारी चीजों को कैसे देखती है। दूसरी तरफ, डिस्कोर्स के ऐसे विषयों के कारण उसके मन में भ्रम भी रहा है। इन युवाओं को संघ की कार्यपद्धति के साथ जोड़ने के लिए संघ क्या इनकी चिंताओं को, इनके मन में जो प्रश्न आते हैं, उनके समाधान के लिए कुछ नएपन के साथ सोच रहा है?
संपर्क करना, आकृष्ट करना, जोड़ना – इसके लिए तरह-तरह के प्रयोग हैं। उसका हम केंद्रीय विचार नहीं करते हैं, क्योंकि यह स्थानीय विचार का काम है। जहां जो वातावरण है – मुंबई में दिल्ली में, चेन्नई में, वहीं इसका विचार करना पड़ेगा। चंद्रपुर के कॉलेज में इसका विचार करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जो इंग्लिश मीडियम से सीखने वाले बच्चे हैं, उनमें विचार करना पड़ेगा। हमारे जिला परिषद के हाई स्कूल में जाने वालों में इनका विचार कम करना पड़ता है। इसलिए जहां जो परिस्थिति है, वहां वैसे प्रयोग करने की स्वतंत्रता हम देते हैं और उसके अनुसार चलते हैं। जैसे अभी पचहत्तर साल स्वातंत्र्य के विषय पर नागपुर में एक कार्यक्रम में समाज के छोटे-छोटे गुटों में बहुत सारी चर्चा हुई। उनको बुलाया। वे आए तो उनके सामने पहले नृत्यनाटिका हुई, इसके बाद तरह-तरह के युवा कार्यक्रम हुए।
उसके बाद बौद्धिक। तो यह जो पहला वाला है, वह संघ के कार्यक्रम में होता है क्या, ऐसा पुराने लोग पूछेंगे। लेकिन ऐसा होता है, क्योंकि आज हो सकता है। हमें जो करना है, उसे डॉयल्यूट ना करते हुए, जो सारी बातें कर सकते हैं, वह करते हैं। फलस्वरूप अधिकाधिक युवा संघ से जुड़ रहे हैं। ज्वाइन आरएसएस तो एक बात है, उससे बहुत बड़ी संख्या जुड़ती है। वह सब शिक्षित युवा हैं, अंग्रेजी जानने वाले युवा हैं। इन सब बातों का सामना करने वाले युवा हैं। लेकिन वैसे भी लगभग दो लाख युवा प्रतिवर्ष संघ को देख कर समझते हैं। संघ को देखने के बाद उनको भी कुछ आकर्षण लगता है।
एक और बड़ा प्रश्न है, महिलाएं और संघ। यह प्रश्न बार-बार आता है। विजयादशमी संबोधन में संतोष यादव जी की उपस्थिति रही है। एक पृथक संगठन के तौर पर राष्ट्र सेविका समिति भी है किंतु फिर भी संघ के कार्यक्रमों में आप महिलाओं की भूमिका को किस तरह देखते हैं ?
महिलाओं की भूमिका बढ़ रही है। पहले हम परिवार सम्मेलन नहीं करते थे। नहीं करना है, ऐसा नहीं था। परिस्थिति नहीं थी। आज हम कुटुंब प्रबोधन गतिविधि चला रहे हैं। संघ की तरह-तरह की कार्यकारिणी के लोगों से हम कहते हैं कि कम से कम साल में एक बार परिवार सहित वनसंचार का कार्यक्रम करो। कार्यकर्ता और उनके कुटुंब, कुटुंब में विशेषकर महिलावर्ग आता है। पहले से संघ में गटपद्धति है, वह चूल्हे तक संबंध रखने वाली पद्धति है। यह संघ को घर के उन लोगों तक पहुंचाने का माध्यम है, जो शाखा में नहीं आ सकते। और कई बौद्धिक वर्गों में भी आजकल यह सूचना है कि संघ के स्वयंसेवक और कुटुंब, उनके भी बौद्धिक हैं। ऐसा होता है। व्यक्ति निर्माण का नित्य काम सेविका समिति से जो तय है, वैसा चल रहा है। वह महिलाओं की चिंता करती हैं, हम पुरुषों की चिंता करते हैं। इसमें वह जब कहेंगे कि कुछ परिवर्तन करना है, जरूर करेंगे। लेकिन अब विशेषकर कोरोना काल के पश्चात, चूंकि उस समय दो साल घरों में शाखा लगी, तो महिलाएं सक्रिय रही होंगी। उनकी ओर से मांग बढ़ रही है। कई महिलाओं ने उस समय शाखा में जो सीखा, उसको लेकर उपक्रम, कार्यक्रम शुरू किए हैं। वह संघ कार्यक्रमों से भी जुड़ती हैं, नए लोगों को भी जोड़ती हैं। जैसे अभी आज एक घर में भोजन के लिए गया था, तो कोरोना काल में उनकी पत्नी घर की शाखा में स्वयंसेविका नहीं होंगी। बाद में उन्होंने वह योगाभ्यासी मंडल से पूरा किया फिर कुछ कोर्सेज भी पूरे किए। अब वह अधिकृत आॅनलाइन असिस्ट चलाती हैं, दुनिया के लोग उसमें आते हैं।
स्वयंसेवक जो करते हैं, वैसा ही योगदान महिलाओं का है। ऐसी महिलाएं बहुत आ रही हैं। अभी हमने अपने कार्यकर्ताओं को कहा है कि कोई महिला आती हैं, तो इनको – नहीं, आप समिति के पास जाओ – ऐसा नहीं कहना है। क्योंकि समिति के पास अभी इतनी क्षमता नहीं है। वह भी कहेंगे कि हम बढ़ेंगे, तब तक इनको जोड़ कर रखो। इसलिए उनके लिए कुछ व्यवस्था स्थानीय तौर पर एक अलग से आप करो और उनको जोड़ कर रखो। क्योंकि उनकी भूख है, उनको संघ जानना है, संघ के स्वयंसेवक अच्छा काम करते हैं, तो हमें भी ऐसा काम करना है। संघ के संस्कार अच्छे हैं, हमारे बच्चों को भी मिलना चाहिए। इसलिए हमको सीखना है। ऐसा उनका एक वातावरण बना है। आगे कैसे होता है, हमको इसका विचार करना पड़ेगा। डॉक्टर साहब के समय विचार करने की स्थिति नहीं थी। आज विचार करने की स्थिति है। लेकिन पहले से काम करने वाले समिति के कार्यकर्ता वगैरह सब हैं। हम सब मिलकर कुछ तय करेंगे।
जैसे आपने अभी उल्लेख किया, क्या परिवार प्रबोधन के अलग आयाम के कारण भी इसमें एक बड़ा बदलाव आया है।
नहीं। परिवार प्रबोधन गतिविधि में संघ विषय नहीं रहता। उसमें अपने घर की परंपरा, कुल रीति, देश की परंपरा, पूर्वज, मैं अपने लिए यह करता हूं, परिवार के लिए करता हूं, समाज के लिए क्या करता हूं, हमारा घर मंगलभवन होना चाहिए, कैसे होगा, इस तरह के विषय रहते हैं। संघ के स्वयंसेवक उसमें हैं, लेकिन वह संघ के काम की वृद्धि के लिए नहीं है। वह अपने स्वतंत्र रूप से बढ़ रहा है। अच्छा चल रहा है। महिलाओं का आना कोरोना के कारण बहुत बढ़ा है। और संघ की समाज में एक साख बन गई है, उसका भी परिणाम है। बहुत सारे कार्यक्रमों में, व्यापारी कार्यक्रम में महिला व्यापारियों को भी बुलाया था और वे आई थीं, आती हैं। और वे कहीं ना कहीं जुड़ती हैं, स्वयंसेवक जो कर रहे हैं, उसमें जुड़ती हैं। संघ स्थान पर स्कूल जाने वाली, कॉलेज जाने वाली लड़कियां भी कहीं-कहीं आती हैं। तो आज की तारीख में हम उनको – यह आपके लिए नहीं है, ऐसा नहीं बोलते हैं। उनका अलग गट चलाया जाए, या वे प्रार्थना में थोड़ा दूर खड़ी रहें या उनको समिति की प्रार्थना कराई जाए, ऐसी कुछ बातें हम कर रहे हैं। इसको निश्चित और कैसे करना है, उसका विचार हमको अभी करना है। करना तो पड़ेगा ही।
बायोटेक्नोलॉजी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की जो भी प्रगति हो रही है, उसके कारण समाज पर, समाज की व्यवस्थाओं पर बहुत बड़ा असर है। पश्चिम के समाज में भी बहुत सारी ऐसी बातें अभी बदलाव के रूप में आने लगी हैं जैसे आने वाले समय में डेटा खपत को लेकर क्या होगा। जिसको भविष्य की चुनौतियां कहते हैं, क्या इनको लेकर संघ में कोई मंथन, कोई विचार चल रहा है? इसका समाज पर क्या असर पड़ेगा? कई लोग तकनीक के साथ कदमताल नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए पढ़ सकते हैं, लेकिन उसको अपनाने की दृष्टि से, तकनीक के लिहाज से, अनपढ़ हैं। इसको कैसे देखते हैं?
तकनीक जीवन के लिए सहायक साधन है और उसका न्यायसंगत उपयोग करने से बहुत लाभ हैं। लेकिन तकनीक अपने-आप में जीवन का आलंबन नहीं है। तकनीकी अभी जिस प्रकार बढ़ रही है, बाकी सारी बातों से समाज को काट रही है, व्यक्ति को काट रही है, तो इसका नतीजा क्या होता है? वह दुखी हो जाता है और व्यक्ति रीबाउंड होता है। रीबाउंड होने के बाद उसके पास कोई फेल-सेफ नहीं है। तब क्या हो सकता है? हमारे देश में हमारे पास फेल-सेफ है। टूट गया, बिछड़ गया, दूर चला गया तो भी उसका परिवार है और देर-सवेर वह वापस आएगा, तो उसको बैठने के लिए एक जगह है। नया फैशन है, अपने रूट्स का पता नहीं है। हमारे यहां बहुत लंबा और गहरा विचार नहीं करते हैं। अपने समाज में एक कमी यह है कि वैचारिक प्रगल्भता की जो हमारी परंपरा है, वह बहुत कम हो गई है। इसके चलते वह इसके पीछे जाएगा और हमारे यहां भी ऐसा दुष्चक्र, जैसा पश्चिम में दिखता है, हो सकता है। परन्तु इसकी अति होने पर हम इसको छोड़ देंगे, यह पक्की बात है। हम पर्याय खोजेंगे और हमको पर्याय मिलेगा। वह पर्याय हमें दुनिया को भी देना है। तकनीकी हमारा साधन है। उसको हमको मालिक नहीं बनने देना है। उसके कारण सुख की हमारी कल्पना हमको बदलनी पड़ेगी। आपने कहा कि इसके कारण व्यक्ति पिछड़ता है क्योंकि जो कंप्यूटर नहीं चला सकता है, उनके लिए कंप्यूटर इलिटरेट शब्द चलता है। जो कंप्यूटर चलाना नहीं जानते, उनके बारे में एक हेयभाव कहीं न कहीं उसमें है।
हमारे एक संघ अधिकारी एक बैठक से आ रहे थे। उनके पास एक उड़िया व्यक्ति बैठा था, इधर एक किशोर बैठा था। इन दोनों के टिकट पर खाना था। तो एक ड्रिंक और कुछ सैंडविच इन दोनों को मिला। उनके पास नहीं था। हमारे संघ अधिकारी सोच रहे थे कि उसके लिए कुछ पीनट्स वगैरह खरीदें। उतने में उस पास वाले ने अपना ड्रिंक उसको दे दिया, आग्रह करके पिलाया। उसने बताया कि वह बहुत पढ़ा-लिखा नहीं है, दुबई में है और तीन महीने समुद्र में जाकर काम करता है। एक महीना छुट्टी मनाता है, अपने-आप को तंदुरुस्त बनाता है। फिर जाता है। वहां अस्सी हजार रुपया प्रतिमाह मिलता है। तो दस हजार रुपये में अपना चला लेता है। साल में तीन बार दो लाख दस हजार यानी कुल छह लाख तीस हजार रुपये घर भेजता है। बात-बात में उसने कहा कि मैं तो कुछ नहीं, मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूं। हमारे संघ अधिकारी ने उसको कहा कि तुम भगवान को गाली दे रहे हो क्या, तुमको इतना दिया है। परिवार तुम्हारा यहां रहता है, तुम उसके साथ जाते हो तो तुम्हारे स्वास्थ्य भी ठीक हो जाता है। ऐसा तुम्हारा परिवार का वातावरण है। तुम जितना कमाते हो, यहां परिश्रम करने वालों को इतना नहीं मिलता और तुम्हारी अभी इंसानियत जिंदा है। इतनी बड़ी बात तुम्हारे पास है, तो उसको अहसास हुआ। उसने कहा कि यह बात ठीक है। मैं अब आगे ऐसा नहीं कहूंगा कि मेरे पास कुछ नहीं है। अब यह मानसिकता लाने के लिए है। तकनीकी पास होना, साक्षर होना, विद्वान होना – यह सारी करने की बातें हैं। हम क्या हैं? ऊंचा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर, पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर। हम जीवन की सार्थकता और जीवन की यशस्विता में अंतर करना भूल गए। जबकि यह हमारी परंपरा में है। यह जिस दिन हम सीख जाएंगे, हम इन सारे प्रश्नों का उत्तर देंगे और दुनिया से भी उत्तर दिलवाएंगे। हमको यह करना पड़ेगा, और करना ही पड़ेगा क्योंकि आखिर यह रास्ता जहां ले जाता है वहाँ अंधा कुआं है, और कुछ नहीं है।
कोरोना काल ने विश्व व्यवस्था के पूरे परिदृश्य को प्रभावित किया है। न्यू वर्ल्ड आर्डर जैसी बातें चलीं। आने वाले समय में इस उथल-पुथल और बदलाव के बीच में भारत को आप कहां देखते हैं और उस भारत की विश्व में क्या भूमिका है और उस भारत में संघ की क्या भूमिका है?
इस उथल-पुथल में भारत उभर कर आया है। कोरोना न होता तो शायद हम इतने उभर कर नहीं आते। हम जो हैं, वह हैं और जिधर बढ़ना है, उधर बढ़ रहे हैं। लेकिन दुनिया देख नहीं पाती। यह हमारे होने का प्रश्न नहीं है। दुनिया की आंख पर जो पर्दा पड़ा था, यह उसका प्रश्न था। कोरोना के कारण वह हट गया है। लोगों ने देखा कि भारत के पास रास्ता है। उसके बाद वह सारा विचार परिवर्तन हुआ। उस समय जो भारत ने किया, भारत ने वैक्सीन बनाई और वैक्सीन लोगों को दी, सिर्फ अपने पास नहीं रखी। पहले भी ऐसे मौके आए, भारत ने अपने नफे-नुकसान का विचार किए बिना अन्य देशों की मदद की। भारत ने श्रीलंका की मदद की, यूक्रेन की मदद की। भारत क्या है, यह लोगों को पता चल रहा है। जो देख रहे हैं, उससे दुनिया को भारत से आश्वस्ति मिलती है। इसलिए आज दुनिया के लोग भारत के विषय में अच्छा कहेंगे। रूस भी कहता है, अमेरिका भी कहता है। यह लोग जो अपने से आर्थिक रूप से बड़े माने जाते हैं, जिनका सैन्य बल ज्यादा है, जिनको हमारी स्तुति करने की जरूरत नहीं है, वह भी करते हैं। क्योंकि उनको पता है कि भारत की जो क्वालिटी है, उसके चलते भारत आगे जाएगा। और यह क्वालिटी भारत की जड़ें हैं, यह आधुनिक विज्ञान का चमत्कार नहीं, यह केवल हमारे व्यापारियों की बात नहीं है। हमारे व्यापारी तो व्यापार में पहले से ही माहिर थे। लेकिन हमारी इस प्रामाणिकता की विशेषकर नई पीढ़ी में अपील है। संघ क्यों तरुणों में जा पाता है? उसके पास क्या है? संघ के पास प्रामाणिकता है और युवा पीढ़ी ऐसी है कि देशभक्ति सेवा की प्रामाणिक अपील जो लेता है, उसके पास जा रही है। भारत के कार्यों में लोगों को एक प्रामाणिकता दिखती है। भारत के करने में स्वार्थ नहीं है और भारत के पास बुद्धि है, शक्ति है, सब कुछ है। भारतीयों में कोई बात कम नहीं है- इसे आत्मसात करके भारत अब उठ रहा है। उसको विजय की ललक है और वह उस ओर बढ़ेगा। उससे दुनिया को लाभ है। दुनिया नया रास्ता चाहती है, वह भारत बनाएगा, भारत ही बना सकता है। भारत उस पर आगे जाए, ऐसा भारत खड़ा करने के लिए प्रत्येक भारतीय को इस स्वत्व का अहसास चाहिए और देश के लिए जीने-मरने की ललक चाहिए। यह वातावरण बनाना, उस वातावरण को बनाने वाले देशव्यापी कार्यकर्ता समूह को खड़ा करना, यह संघ की भूमिका है। देश में उसके भरोसे परिवर्तन आएगा। जो आएगा, वह स्थाई होगा और वह परिवर्तन सारे विषयों के लिए मार्गदर्शन करेगा। यह संघ की भूमिका है, जो भारत की भूमिका को मजबूत बनाती है। भारत की भूमिका विश्व को मजबूत बनाती है।
इसी काल खंड में आपने भी एक बार कहा कि आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना का विकास हुआ है। बहुत सारे विषयों को लेकर, फार्मास्यूटिकल सेक्टर से लेकर स्मॉल इंडस्ट्रीज तक की, सारे विश्व की जो सप्लाई चेन है, उसमें आप क्या चुनौतियां देखते हैं?
आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना यथार्थ में उतर सकती है। किसी का भी विकास उसके स्वत्व के आधार पर, उसकी आत्मा के आधार पर होता है। आप उसमें हाइब्रिड कलर नहीं कर सकते। आप हाथी को फुटबॉल खेलने में लगा तो सकते हैं, लेकिन वह उसका विकास नहीं है। लोग टिकट खरीदकर देखने जाएंगे, लेकिन वह हाथी का विकास नहीं है। शेर का विकास बकरी के साथ भोजन करने में नहीं है, वह शेर का तमाशा है। शेर तो जंगल में विकसित हो सकता है। इसलिए आत्मनिर्भरता की बात करते समय इसको अधिक गहराई से सोचना चाहिए। आत्मनिर्भरता का मतलब केवल यह नहीं कि भारत में सब कुछ बनता है या भारत सब कुछ कर सकता है। भारत एक नयी बात दे रहा है। अभी तक का सारा अर्थतंत्र जो चलता है, उसमें कॉरपोरेट तौर पर चलने पर जोर रहता है। सारा केंद्रीयकृत रहता है। लेकिन भारत की परंपरा कहती है कि विकेन्द्रित उत्पादन करो, तो उत्पादन बहुत हो जाएगा। उत्पादन की खपत करने के लिए उपभोक्तावाद को मत बढ़ाओ, संयम से काम लो तो संयमित उपभोग होगा, मूल्य नीचे आएंगे। चूंकि पश्चिम के लोगों को व्यापार पर ही जीवन जीने के लिए निर्भर रहना पड़ता है, इसलिए वे लोग मूल्य बढ़ाने के पक्षधर हैं। इसलिए वे उपभोग करने की प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहते हैं। इसके लिए उपभोक्तावाद चाहिए, उसके लिए व्यक्तिवाद चाहिए।
यह सारी चीजें उसके पीछे-पीछे आती हैं। इसके पीछे-पीछे यह सारी आपत्तियां भी आती हैं, जिसके कारण आज विनाश का खतरा बड़ा हो गया है। अब आत्मनिर्भर होने का अर्थ इस प्रतियोगिता में जीतना नहीं है। आत्मनिर्भर होना यानी एक ऐसा अलग रास्ता देना जो भौतिक सुख भी प्रदान करता हो, सुरक्षा, जीवन के भविष्य की गारंटी भी देता हो और संतोष भी पैदा करता हो, शांति भी पैदा करता हो। हमको अपनी आत्मा को समझकर उसके आधार पर एक नया रचित खड़ा करना पड़ेगा या नई रचनाएं खड़ी करनी पड़ेंगी। हमको अपना विचार पूरी तरह औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होकर, अपने आधार पर करना पड़ेगा। सारी चीजें ध्यान में रखकर उसमें नए विज्ञान की प्रगति से जो लेना हो, वह सब ले सकते हैं। पुराना ज्ञान इतना नहीं था, तो उस अज्ञान में कुछ बातें गलत कर बैठे थे। वह छोड़ना है। और सारे विश्व से जो अच्छा है, वह लेकर रास्ता बनेगा। लेकिन उसकी बुनियाद हमारी दृष्टि रहेगी, क्योंकि हमारी दृष्टि सर्वे भवंतु सुखिन: की है, योग्यतम की उत्तरजीविता की नहीं है। अधिकतम संख्या के अधिकतम हित की नहीं है। सबका सुख। हम जीएंगे तो सृष्टि भी जिएगी। हम ऐसा कहते हैं। इसलिए आज दुनिया 2000 साल के प्रयोगों के बाद पूछती है कि सब एक साथ साधने वाला कौन सा रास्ता है। वह रास्ता हमें आत्मा में मिल सकता है। आत्मनिर्भरता हम बोलते हैं। उनको सोचना चाहिए कि आत्मनिर्भरता यानी अपनी आत्मा पर खड़े होना है। यह केवल प्रतियोगिता में जीतने की बात नहीं है।
एक प्रश्न समाज के सामने है। संघ ने उसे रेखांकित किया है, और एक मुद्दा उठाया है। वह है जनसंख्या नीति और जनसंख्या असंतुलन का। यह एक जटिल विषय है। इस पर आम सहमति कैसे बनेगी और विशेषकर तब, जब कुछ लोग इसे हिंदू-मुस्लिम से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
पहले हिन्दू को यह समझ में आए। हिंदू आज बहुमत में है। हिन्दू इस देश का है। हिंदू के उत्थान से इस देश के सब लोग सुखी होंगे। हिन्दू पहले समझे। जनसंख्या एक बोझ भी है, जनसंख्या एक उपयोगी चीज भी है। तो जैसा उस भाषण में मैंने कहा, वैसी दूरगामी और गहरा सोचकर एक नीति बननी चाहिए। नीति सब पर समान रूप से लागू होनी चाहिए। लेकिन इसके लिए जबरदस्ती से काम नहीं चलता है। इसके लिए शिक्षित करना पड़ेगा। जनसंख्या असंतुलन अव्यवहार्य बात है। जहां असंतुलन हुआ, वहां देश टूटा। ऐसा सारी दुनिया में हुआ और वह इसलिए कि दुनिया में लोगों की प्रवृत्ति, सभ्यताओं की प्रवृत्ति आक्रामक है। एकमात्र हिंदू समाज है, जो आक्रामक नहीं है। इसलिए अनाक्रामकता, अहिंसा, लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म, यह सब बचाए रहना है, तो जिनकी प्रवृत्ति अनाक्रामकता की है, उनका बचा रहना आवश्यक है। तिमोर, सूडान को हमने देखा, पाकिस्तान हुआ, हमने देखा। क्यों हुआ? राजनीति छोड़ दें। खुश करने की बात छोड़ दें। निरपेक्ष होकर, तटस्थ विचार करें, पाकिस्तान क्यों हुआ? जब से इतिहास में आंखें खुलीं, तब से यह भारत अखंड था। इस्लाम का भयंकर आक्रमण कुछ सौ साल के बाद समाप्त हो गया। फिर अंग्रेजों के जाने के बाद यह देश कैसे टूटा, तीन सौ साल के बाद?
एक मात्र कारण है, हिन्दू भाव। जब कहा गया- आयी विपद महाभय, टूटे धरती खोये। इसमें किसी के विरोध की बात नहीं है। उसके पहले ऐसे कत्लेआम भारत में नहीं हुए हैं। कलिंग युद्ध की बात करते हैं, तो एक भाग में छोटा सा हुआ, उसके बाद बंद हुआ। यह सब हमको इसलिए भुगतना पड़ा कि हिन्दू भाव को भूल गए। हिंदू भाव कहने से इस्लाम की पूजा को कोई बाधा नहीं है।
हिन्दू हमारी पहचान है, राष्ट्रीयता है, हिन्दू हमारी प्रवृति है। सबको अपना मानने की, सबको साथ लेकर चलने की प्रवृति। मेरा ही सही, तुम्हारा गलत, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जगह, तुम्हारा ठीक, मेरी जगह मेरा ठीक। झगड़ा क्यों करें, मिलकर चलें। यही हिन्दुत्व है। उसके मानने वाले लोगों की संख्या बनी रहती है, तो भारत एक रहता है। वह भारत दुनिया को एकता की ओर ले जाता है। यह केवल भारत की बात नहीं है, मानव कल्याण की बात है। आप कल्पना करें कि अगर हिन्दू समाज गायब हो जाता है, तो क्या होगा? सब लोग झगड़ा करेंगे कि दुनिया पर किसका प्रभुत्व हो। अब गारंटी किससे है? गारंटी हिन्दू से है। हिन्दुस्थान, हिन्दुस्थान बना रहे, सीधी सी बात है। इसमें आज हमारे भारत में जो मुसलमान हैं, उनको कोई नुकसान नहीं। वह हैं। रहना चाहते हैं, रहें। पूर्वजों के पास वापस आना चाहते हैं, आएं। उनके मन पर है। हिन्दुओं में यह आग्रह है ही नहीं। इस्लाम को कोई खतरा नहीं है। हां, हम बड़े हैं, हम एक समय राजा थे, हम फिर से राजा बनें, यह छोड़ना पड़ेगा। हम सही हैं, बाकी गलत, यह सब छोड़ना पड़ेगा। हम अलग हैं, इसलिए अलग ही रहेंगे। हम सबके साथ मिलकर नहीं रह सकते, यह छोड़ना पड़ेगा। किसी को भी छोड़ना पड़ेगा। ऐसा सोचने वाला कोई हिन्दू है, उसको भी छोड़ना पड़ेगा। कम्युनिस्ट है, उनको भी छोड़ना पड़ेगा।
इसलिए जनसंख्या असंतुलन एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। उसका विचार करना चाहिए। और ऐसा मैं कहूं तो बहुत लोग कुछ-कुछ कहेंगे। परंतु देश का शासन तंत्र चलाते समय जब लोग वहां जाकर बैठते हैं, तो बिल्कुल यही करते हैं। स्वतंत्र भारत के सरकारी क्रियाकलाप, तब से अभी तक देख लीजिए। सत्ता में बैठने वाला कैसी पूजा करता है, इससे कोई फर्क ाहीं पड़ता। वह भारत का सत्ताधारी है और भारत का हित चाहता है, तो वह इसको देखता है और इसमें जो करना है, उसको करना है। इसलिए जो बात सबको पता है, उसे हम खुद ही साफ साफ कह रहे हैं। हमें किसी का विरोध नहीं करना है। इसमें जन्मदर की बात नहीं है, मतांतरण और घुसपैठियों से ज्यादा असंतुलन होता है। उसको रोकने से असंतुलन नष्ट हो जाता है, यह भी हमने देखा है। इसलिए जनसंख्या नीति में यह संतुलन रहेगा और जहां यह नहीं है, वहां जन्मदर के कारण बहुत कम रहेगा। बाकी बात रहेगी उसका भी बंदोबस्त करना पड़ेगा। यह सब महत्वपूर्ण बातें है।
वैश्विक संदर्भ में हिन्दू मानवाधिकार का प्रश्न निकल कर आ रहा है। हिन्दू समाज के प्रश्न केवल भारत के नहीं हैं। भारत के बाहर भी हिंदू समाज अब अपने अधिकारों के प्रति ज्यादा जागृत है। अमेरिका में कुछ जगहों पर हिन्दू मंदिर, ट्रस्ट, इन विषयों को लेकर प्रस्ताव पारित हुए। हिंदुत्व के विषय को लेकर कांफ्रेंसेज में कहा गया कि भारत में संघ के विचारों के कारण आक्रामकता पूरे समाज में बढ़ गई है। दूसरी तरफ, हम यूरोप में देख रहे हैं बर्मिंघम, लिएस्टर जैसी स्थिति, जहां संघ का नाम लेकर हिन्दुओं पर आक्रमण हो रहे हैं। क्या संघ की तरफ से भी इस धारणा का प्रत्युत्तर देने के कुछ प्रयास हो रहे हैं? इसके बारे में कुछ विचार वैश्विक स्तर पर हिंदू ह्यूमन राइट्स के बारे में, हिन्दूफोबिया को लेकर।
हिन्दुओं के बारे में काम करने वाले अनेक लोग हैं। एक और अलग धड़ा बनाने का विचार नहीं है। हम उनको ही मजबूत करेंगे। हिन्दू समाज जाग रहा है, तो इस चरण से गुजरना है। हिंदू समाज जाग रहा है, इस कारण जिनके स्वार्थ की दुकान बंद होती है, वे लोग हो-हल्ला कर रहे हैं। वही लोग आक्रमण कर रहे हैं। लेकिन अब हिन्दू जाग रहा है, तो इसको देख लेगा। यह निश्चित है कि हिन्दू जो रास्ता निकालेगा, उसमें सब साथ मिलकर ही चलेंगे। इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए जो लोग काम करते हैं, उनके पीछे दुनिया भर का हिन्दू समाज है। और वही स्थिति बनी रहे और बढ़ती रहे, संघ यह देखेगा। परसेप्शन के प्रश्न पर कुछ करना पड़ेगा। परसेप्शन की समस्या विश्व के लिए ही नहीं, भारत के लिए भी है। उस दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं। हमने अपना मीडिया इंटेरेक्शन बनाया, कुछ उपक्रम भी शुरू किए हैं। इसका विस्तार होना है। करेंगे निश्चित, कब करेंगे, यह देखना है।
वर्ष 2025 में संघ अपनी यात्रा के 100 वर्ष पूरे कर रहा है। पूरी दुनिया की इसपर नजरें हैं। तो यह एक सामान्य घटना है या इसको लेकर संघ ने आयोजन की दृष्टि से कुछ विशेष किया है? क्या अपने काम के बारे में कोई संकल्प या आयाम की दृष्टि से भी कुछ संघ ने सोचा है?
संघ के कार्य का एक-एक चरण आगे बढ़ेगा। इस तरह आगे बढ़ना एक स्वाभाविक बात है, भले ही दुनिया को विशेष लगता हो। 1940 तक, जब डॉक्टर साहब थे तब तक, समस्त हिन्दू समाज को संगठित करने की कार्यपद्धति प्रयोग होकर निश्चित हो गई। डॉक्टर साहब के बाद उस कार्यपद्धति के आधार पर कार्य का विस्तार भारत में द्रुतगति से जिलास्तर और उससे आगे गुरुजी के समय पहुंचा। उसी समय जो स्वयंसेवक तैयार हुए, उन्होंने तरह-तरह के क्षेत्र में, संघ कुछ नहीं करेगा, स्वयंसेवक कुछ नहीं छोड़ेगा, इस सूत्र को लेकर कुछ करना शुरू किया। बालासाहब के समय में यह काम और बढ़ा और समाजोन्मुख संघ, सामाजिक दायित्व का भार लेकर आगे बढ़ने वाले संघ की स्थिति उत्पन्न हुई। उसके फलस्वरूप एक राजनीतिक स्थिति रज्जू भैया के समय और सुदर्शन जी के समय में हमने देखी। अब संघ और समाज, इनमें एक अच्छा, पक्का मधुर संबंध है। आगे का स्वाभाविक चरण यह है कि संघ का कार्य सर्वव्यापी हो। उसके आधार पर हिन्दू समाज में जिस प्रकार का परिवर्तन चाहिए, जिस प्रकार का तालमेल चाहिए, समाज की एक संगठित अवस्था लाने के लिए आगे काम होगा। संघ के स्वयंसेवक भी करें, समाज के सज्जन भी करें। सब मिलकर अपने समाज को ऐसा खड़ा करते हुए देश को परम वैभव के शिखर पर पहुंचाने का काम आगे बढ़ाएं। 100 वर्ष पूरे होने तक शाखाओं, स्वयंसेवकों, उनके डिप्लॉयमेंट का आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर हम पूरा कर लें। कहां, कैसे कैसे काम करना पड़ेगा, उसके अनुसार और स्वयंसेवक देने की क्षमता अर्जित कर लें और 100 वर्ष पूरे होने के बाद उस बुनियाद पर भवन खड़ा करने का काम में स्वयंसेवक लग जाएं। संघ का व्यक्ति निर्माण का कार्य चलता रहेगा। ऐसा एक चरण हम देख रहे हैं। शताब्दी तक जो करना है, वह पूरा करने पर आगे की नींव बनेगी। शताब्दी तक अपने कार्य को सर्वव्यापी करना और समाज में सर्वत्र संपर्क रखना ताकि समाज सज्जनों का अनुकरण करे। बॉलीवुड, मीडिया, राजनीति की तरफ ज्यादा ध्यान न दें। अपने कर्तव्यों को समझकर, जो सज्जन शक्ति है, उसके साथ चलें। सज्जन शक्ति अपना अपना काम करते हुए परस्पर पूरक बनकर, देश के हित की दिशा में चले। यह करने के लिए संघ का स्तर, जितना बल चाहिए, जितना व्याप चाहिए, व्यक्ति चाहिए, वह तैयार करने का काम 2025 तक हमको करना है। वह जितना होता है, उसके आधार पर हम उसी दिशा में आगे चलेंगे।
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