गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस निखिल का ट्रांसफर पटना किए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादले से जुड़े कॉलेजियम सिस्टम को लेकर एक बार फिर से विवाद शुरू हो गया है। कॉलेजियम व्यवस्था के खिलाफ विरोध पर उतरे गुजरात हाई कोर्ट के वकीलों का कहना है कि ये डंके की चोट पर न्यायिक व्यवस्था की हत्या है। इस मामले में विरोधरत वकीलों का आरोप है कि इस मामले में गुजरात हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की सहमति के बिना कोई फैसला नहीं लिया जा सकता है।
वकीलों ने गुजरात हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की कोर्ट के बाहर विरोध किया। इस मामले को आगे बढ़ाने के मूड में नजर आ रहे गुजरात के वकीलों का कहना है कि वे इस फैसले की वापसी तक विरोध करते रहेंगे। बार की बैठक बुलाकर वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट तक के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया।
न्यायालयों में जजों के तबादले और नियुक्ति पर होने वाली सियासत कोई नई नहीं है। ये काफी पुरानी है। समय-समय पर इसमें सुधार किए जाने की माँग भी उठती रही है। हाल में जजों के तबादले और नियुक्ति के मुद्दे पर पाञ्चजन्य के साथ बात करते हुए केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि उच्च न्यायालय के कॉलेजियम से फाइल विधि मंत्री के पास आती है। इसके बाद इसमें प्रक्रिया पूरी की जाती है। दूसरी बात,दुनिया में कहीं भी न्यायाधीश अपनी बिरादरी की नियुक्ति नहीं करते हैं। तीसरी बात, न्यायाधीशों का काम मूल रूप से लोगों को न्याय देना है।
रिजिजू ने ये भी कहा था कि न्यायाधीशों का आधा समय अगला न्यायाधीश किसे बनाना है, इस पर खर्च हो रहा है न कि पूरा समय न्याय देने में। वो इस व्यवस्था को लेकर कहते हैं, मान लीजिए आप न्यायाधीश हैं। अगले न्यायाधीश को मनोनीत करना है तो आप तो वही न्यायाधीश चुनेंगे जिसे आप जानते हैं। ये स्वाभाविक है। आप ऐसा व्यक्ति तो नहीं चुनेंगे जिसे आप नहीं जानते। कुल मिलाकर इसे न्यायिक व्यवस्था का नेपोटिज्म कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हालाँकि, जिस कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर देश के सियासत में उथल-पुथल मचती ही रहती है आखिर वो बला क्या है। आइए जानते हैं।
कॉलेजियम व्यवस्था क्या है?
गौरतलब है कि अदालतों में जजों के ट्रांसफर पोस्टिंग से जुड़ी कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर संविधान में कहीं भी कोई नियम या कानून नहीं है। यह सिस्टम 28 अक्टूबर 1998 को 3 जजों के मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के जरिए प्रभाव में आया था। कॉलेजियम सिस्टम में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों का एक पैनल जजों की नियुक्ति और तबादले की सिफारिश करता है। जिस व्यवस्था के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियाँ की जाती हैं उसे कॉलेजियम सिस्टम कहा जाता है। भारतीय न्यायपालिका के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो यहाँ पर सिर्फ कुछ घरानों का कब्जा होकर रह गया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि न्यापालिका में नेपोटिज्म का कब्जा है। जब सारी पॉवर का विकेंद्रीकरण हो गया तो इसमें गड़बड़ी की आशंकाएँ भी प्रबल हो जाती हैं।
कैसे काम करती है कॉलेजियम व्यवस्था
कॉलेजियम प्रणाली के तहत जजों और वकीलों के नामों का चयन कर उसे केंद्र के पास भेजा जाता है, ठीक उसी तरह से केंद्र भी अपने कुछ नामों को कॉलेजियम के पास भेजती है। इसी तरह के फाइलों का आदान प्रदान होता है। हालाँकि, कॉलेजियम की तरफ से अगर किसी का नाम सुझाया गया है, तो केंद्र सरकार केवल एक बार उसे वापस कर सकती है, लेकिन दूसरी बार अगर ,संबंधित व्यक्ति के नाम को सुझाया जाता है तो सरकार उसे स्वीकार करने के लिए बाध्य होती है। कॉलेजियम व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ ही अन्य 4 जज भी शामिल होते हैं।
क्यों विवादों में है कॉलेजियम व्यवस्था
उल्लेखनीय है कि मौजूदा वक्त में कॉलेजियम व्यवस्था की सूरत ‘एक लड़ाके का बेटा पैदाइशी लड़ाका’वाली है। मतलब ये कि कॉलेजियम में जज अपनी ही जान पहचान वाले के नामों की सिफारिश करते हैं। साल 2014 में तत्कालीन यूपीए सरकार भी जजों की नियुक्ति से जुड़े में मामलों के निपटारे के लिए कॉलेजियम की जगह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया था, लेकिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया था। इसकी जगह पुरानी कॉलेजियम व्यवस्था को ही बहाल किया गया। मोदी सरकार में भी कई बार कॉलेजियम सिस्टम को लेकर जज और सरकार आमने-सामने आ चुकी है। सरकार लगातार न्यापालिका की कार्यप्रणाली में सुधार की वकालत करती रही है। हालाँकि, इसका कोई स्थायी समाधान अभी तक नहीं निकल सका है। जब तक कॉलेजियम व्यवस्था रहेगी, तब तक नेपोटिज्म न्याय व्यवस्था में नेपोटिज्म को बढ़ावा मिलता रहेगा।
टिप्पणियाँ