देहरादून। श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति (बीकेटीसी) के अध्यक्ष अजेंद्र अजय ने केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह में छेड़छाड़ किए जाने संबंधी समाचारों को दुष्प्रचार अभियान का हिस्सा बताया। उन्होंने कहा कि गर्भगृह में सोने की परत चढ़ाने के मामले में धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं और पुरातत्व विशेषज्ञों की सलाह का पूरा पालन किया जा रहा है।
अजेंद्र ने कहा कि महाराष्ट्र के एक शिवभक्त के प्रस्ताव पर बीकेटीसी ने केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह में सोने की प्लेटें लगाने की अनुमति प्रदेश सरकार से प्राप्त की है। वर्तमान में गर्भगृह में चारों दीवारों पर चांदी की प्लेटें लगी थीं। शासन से अनुमति मिलने के पश्चात गर्भगृह में लगी चांदी की प्लेटें उतार दी गईं। गर्भगृह का आवश्यक माप लेकर उसके अनुरूप सोने की प्लेट तैयार कर लगाई जाएंगी। चूंकि गर्भगृह में पूर्व में चांदी की प्लेट लगी थीं। लिहाजा, सोने की प्लेट लगाने के लिए गर्भगृह में नाममात्र के लिए ही अतिरिक्त कार्य की आवश्यकता होगी।
उन्होंने केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह में सोने की प्लेटें चढ़ाए जाने मामले में कुछ लोगों के विरोध को औचित्यहीन बताया और कहा कि ऐसा करने से किसी भी प्रकार की परंपराओं अथवा धार्मिक मान्यताओं से छेड़छाड़ नहीं की जा रही है। इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से ही हिंदू मंदिर वैभवता के प्रतीक रहे हैं। स्वर्ण व रत्नजड़ित आभूषणों से देवी-देवताओं का श्रृंगार किया जाता था। मंदिरों के गर्भगृह व स्तंभ मूल्यवान धातुओं व रत्नों से सजाए जाते थे। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से प्रथम ज्योतिर्लिंग सोमनाथ मंदिर में कई बार आक्रांताओं द्वारा लूटपाट मचाए जाने का इतिहास में वर्णन मिलता है।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से वर्तमान में भी सोमनाथ व काशी विश्वनाथ समेत अनेक बड़े शिवालयों के गर्भगृह से लेकर बाहरी आवरण तक को सोने से सजाया गया है। जो लोग केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह में सोने की परत चढ़ाए जाने का विरोध कर रहे हैं, वो सोशल मीडिया पर शास्त्रों का हवाला देकर कई भ्रामक तथ्य फैला रहे हैं। समय के साथ धार्मिक स्थलों में आवश्यक परिवर्तन स्वाभाविक हैं।
अजेंद्र ने इतिहास का हवाला देते हुए कहा कि दशकों पहले तक श्री केदारनाथ मंदिर की छत घास- फूस (स्थानीय भाषा में खाड़ू) से बनायी जाती थी। श्री केदारनाथ मंदिर की छत के लिए खाड़ू घास उगाने के लिए कुछ खेत नियत थे। स्थानीय भाषा में उन ढालनुमा खेतों को “खड़वान” कहते हैं। उसके बाद समय बदला तो घास के स्थान पर पत्थर की पठाल लगायी गयी। उसके बाद टिन की छत तथा वर्तमान में तांबे के पतरों (शीट) की छत है।
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