सनातन संस्कृति में सावन माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नाग पूजन की परम्परा पौराणिक युग से चली आ रही है। सृष्टि के कण-कण में परमात्म तत्व का दर्शन कराने वाली हमारी ऋषि मनीषा ने लोकजीवन में नागों की महत्ता की प्रतिष्ठा बेहद गहनता से की है। अमृत्व प्राप्ति की कामना से देव-दानवों के मध्य हुआ समुद्र मंथन तभी संभव हो सका था जब नागराज वासुकि ने मथानी बनकर इस महाअभियान में अपना सहयोग दिया था। शिव महापुराण में वर्णित उद्धरण के अनुसार जब इस महामंथन में सागर के गर्भ से निकले कालकूट महाविष के प्रलयंकारी प्रभाव से सृष्टि की रक्षा के लिए जब भगवान शिव ने उस हलाहल को ग्रहण किया तो नागराज वासुकी तत्क्षण उनके गले से कसकर लिपट गये ताकि वह विष कंठ से नीचे न उतर सके। मान्यता है कि तभी से नागराज वासुकी न सिर्फ सदा-सदा के लिए नीलकंठ महादेव के गले के हार के रूप में सुशोभित हो गये, वरन लोकजीवन में श्रद्धा से पूजे जाने लगे।
हिन्दू धर्मावलम्बियों की प्रगाढ़ मान्यता है कि धरती शेषनाग के फन पर टिकी हुई है। जहां एक ओर नागराज वासुकी भोलेशंकर के गले का श्रृंगार हैं वहीं दूसरी ओर सृष्टि के पालक भगवान श्रीहरि विष्णु सहत्रमुख अनंतनाग की शैया पर विराजते हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा कहती है कि क्षीरसागर में शेषनाग की शैया पर विराजमान होकर श्रीहरि माता लक्ष्मी के साथ मिलकर सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन करते हैं। अनंतनाग की इस श्रद्धा भक्ति से प्रसन्न होकर श्री विष्णु जहां अपने रामावतार में उनको अपने अनुज लक्ष्मण के रूप में स्नेह का वरदान देते हैं, वहीं कृष्णावतार में अग्रज बलराम के रूप में सम्मान। द्वापर युग में जब कृष्ण अवतार हुआ तो मूसलाधार बारिश वाली तूफानी रात में शेषनाग ने ही अपने छत्र से शिशु कृष्ण की रक्षाकर वसुदेव जी की गोकुल पहुंचने में मदद की थी।
श्रीमद्भागवत महापुराण में दक्ष प्रजापति की पुत्री कयादु और कश्यप ऋषि की संतान रूप में नागों की उत्पत्ति का रोचक वृतांत मिलता है। अग्नि पुराण में में उपलब्ध नागों की वंशावली से जुड़े तमाम कथानक हिन्दू संस्कृति में नागों की महत्ता साबित करते हैं। इस ग्रन्थ में पांच प्रकार के नागों- अनंत (सहत्र मुख वाले शेषनाग), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक व पिंगल के बारे में विस्तार से उल्लेख मिलता है। नागों की महत्ता का अंदाजा इसी बात से सहजता से लगाया जा सकता है कि उनका निवास स्थान “नागलोक” के नाम से जाना जाता है। श्रीमद्भागवत पुराण में तक्षक नाग के डसने से राजा परीक्षित की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र जनमेजय के नाग यज्ञ का पौराणिक प्रसंग नागों की अद्भुत गाथा है। इसी तरह का एक अन्य कथानक है कि एक बार देवर्षि नारद ने कर्कोटक नाग के छल से रुष्ट होकर उसे सवंश विनष्ट हो जाने का शाप दिया था तब राजा नल ने उसके प्राणों की रक्षा की थी।
कश्मीर के राजकवि कल्हण ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “राजतरंगिणी” में कश्मीर को नाग भूमि कहा है। हिंदू व बौद्ध साहित्य में नाग को धरती में छिपे गुप्त खजानों का संरक्षक माना गया है। मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के पुरातात्विक उत्खनन में मिले प्रमाण भी सिंधु सभ्यता में नाग-पूजन की परम्परा को प्रमाणित करते प्रतीत होते हैं। तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि नाग पूजन की परम्परा भारतीय सीमाओं से बाहर मिस्र, सीरिया व बेबीलोन में भी प्रचलित थी। मिस्र के शेख हरेदी नामक स्थान पर सर्प पूजा तो आज भी श्रद्धा-विश्वास से की जाती है। बताते चलें कि हिमाचल, उत्तराखंड, नेपाल, असम और अरुणाचल तथा दक्षिण भारत के पर्वतीय अंचलों में नाग पूजा प्रमुखता से होती है। हिन्दू धर्म में सर्पहत्या को महापाप माना गया है। यही वजह है कि हमारे धर्म शास्त्रों में श्रावण माह विशेष कर नागपंचमी के दिन धरती खोदना निषिद्ध माना गया है। सनातनधर्मी नागपंचमी के दिन नागों का दर्शन व पूजन शुभ फलदायी मानते हैं। इस नागपूजा में “सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले” अर्थात जो नाग, पृथ्वी, आकाश, स्वर्ण, सूर्य की किरणों, सरोवरों, कूप तथा तालाब आदि में निवास करते हैं, वे सब हम पर प्रसन्न हों; इस मंत्र का उच्चारण कर विभिन्न नागों का दूध व लावा चढ़ाकर विधिवत पूजन किया जाता है।
अब यदि वैज्ञानिक दृष्टि से बात करें तो नाग व सर्प कृषक मित्र जीव हैं। ये चूहा व अन्य हानिकारक जीवों का भक्षण कर हमारी अनमोल कृषि संपदा की रक्षा करते हैं। पर्यावरण तथा वन संपदा की रक्षा में भी नागों की महत्वपूर्ण भूमिका जीवशास्त्री मानते हैं। इनके औषधीय उपयोग भी कम नहीं हैं। इनके विष से अनेक जीवनरक्षक दवाएं बनती हैं।
बेहद हैरतअंगेज है समस्तीपुर का नाग मेला
बिहार के समस्तीपुर जिले में नाग पंचमी के पर्व पर ऐसा अद्भुत मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु सांपों के साथ ऐसे हैरतअंगेज करतब दिखलाते हैं जिन्हें देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। नाग पंचमी के दिन सांपों के इस खेल को देखने के लिए आसपास के जिलों से हजारों लोगों की भीड़ यहां जुटती है। इस मेले की खासियत यह है कि गंडक नदी से सांपों के साथ तरह तरह करतब दिखाने वाले लोग जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘भगत’ कहा जाता है, मंत्र विद्या के बल पर नदी से सैकड़ों की संख्या में जहरीले सांपों को निकालते हैं और नदी में घंटों करतब करने के बाद अपने अपने सांपों को लेकर ढोल-मंजीरे की थाप पर भजन गाते और माँ भगवती का जयकारा लगाते हुए देवी मंदिर तक जाते हैं और मंदिर में इन सर्पों की विधिवत पूजा करने के बाद पूरी श्रद्धा से उन्हें वापस गंडक नदी में छोड़ दिया जाता है। स्थानीय लोगों का दावा है कि तीन सौ साल से चले आ रहे इस मेले में किसी को भी सांप ने नहीं काटा है।
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