इस्लामिक आक्रान्ताओं के अत्याचारों से इतिहास भरा है। इन्हीं अत्याचारों और ऐतिहासिक इमारतों के ध्वस्त करने की राह में एक भव्य-दिव्य मंदिर विदिशा का विजय सूर्य मंदिर भी रहा है, जिसकी गवाही आज भी उसके खण्डहर दे रहे हैं। भग्नावशेषों में बदलकर अंतिम बार मुगलों द्वारा जमींदोज किया जा चुका यह मंदिर एक बार फिर प्राचीन संमृद्ध हिन्दू संस्कृति के लिए न्याय की गुहार लगाता भूमि से बाहर निकल आया है। इसे मध्य प्रदेश का दूसरा भोजशाला विवाद भी मान सकते हैं। नया विवाद इसमें शासन द्वारा पूजा करने की अनुमति नहीं देने और इस ऐतिहासिक प्राचीन मंदिर को मस्जिद बता देने से जुड़ गया है।
दरअसल, मध्य प्रदेश के विदिशा में स्थित प्राचीन (बीजामण्डल) विजय सूर्य मंदिर के बाहर हर साल एक बार नागपंचमी के दिन हिंदू पूजा-अर्चना करते हैं। इस बार हिन्दुओं ने मंदिर के भीतर जाकर पूजन की अनुमति मांगी, तो कलेक्टर ने पूजा की अनुमति न देते हुए एक पत्र पुलिस अधिक्षक के नाम जारी कर दिया। जिसमें इस परिसर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अधीन होने का हवाला देते हुए लिखा गया है कि ये मंदिर नहीं बीजामंडल मस्जिद है। बीजामण्डल मस्जिद एक राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक है तथा यहां कोई धार्मिक आयोजन नहीं किया जा सकता है , (यह नान लिविंग स्मारक है) जिसमें किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना वर्जित है। यही नहीं प्राचीन स्मारक एव पुरातत्वीय स्थल एवं अवशेष नियम 1959 के 8 (एफ) के तहत स्मारक पर कोई नई परिपाटी का आयोजन/आरम्भ किया जाना नियम विरूद्ध है तथा प्राचीन स्मास्क एवं पुरातत्वीय स्थल एवं अवशेष अधिनियम 1958 के 30 (1) के तहत यह दण्डनीय है।
नहीं कर सकते पूजा
जिला कलेक्टर विदिशा का जारी यह पत्र कहता है कि यदि किसी ने पूजा-अर्चना यहां की तो उसे दो वर्ष का कारावास अथवा एक लाख का जुर्माना अथवा दोनों दण्ड दिए जा सकते हैं। विभाग द्वारा किसी भी व्यक्ति, संस्था एवं समुदाय को उक्त स्मारक पर इस प्रकार के नये आयोजन की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इसलिए 9 अगस्त 2024 नागपंचमी के अवसर पर पुलिस बल तैनात कर कानून व्यवस्था बनाएं। इस तरह से कलेक्टर ने यहां किसी तरह के पूजन की अनुमति देने से पूरी तरह मना कर दिया है। अब बड़ा प्रश्न यह है कि भले ही इस मंदिर को अंतिम बार औरंगजेब द्वारा नष्ट किया गया, लेकिन इसके बाद भी कभी भी किसी भी साल कम से कम नागपंचमी पर यहां किसी हिन्दू श्रद्धालू को पूजा-अर्चना करने से रोका नहीं गया था, जोकि अब यह आदेश निकालकर किया गया है।
इस पूरे प्रकरण ने अब नया रूप ले लिया है। कलेक्टर बुद्धेश कुमार वैद्य के निर्णय को लेकर जहां यह कहा जा रहा है कि वह तो नियमों से बंधे हैं और जो आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का 1951 का गजट नोटिफिकेशन, जिसमें विदिशा के बीजामंडल को मस्जिद के रूप में दर्ज किया गया है, कहता है, उसके अनुसार कार्य कर रहे हैं। जबकि दूसरी ओर हिन्दू आस्था का कहना है कि जिस पूजा को कभी किसी ने चैलेंज नहीं किया, अब क्यों पूजा करने से रोका जा रहा है। वह भी नियमों का हवाला देकर और जेल तथा अर्थदण्ड का भय दिखाकर प्रशासन यह सब कर रहा है!
अंग्रेजों ने अपने दस्तावेजों में लिख दिया था मस्जिद, मुसलमान यहां नहीं करते नमाज
इस प्राचीन मंदिर का सदियों से महत्व रहा है, किंतु औरंगजेब ने अंतिम बार इसे तुड़वाकर उन्हीं भग्नावशेषों से इसके ऊपर एक कोने में मस्जिद का स्वरूप खड़ा किया, लेकिन इसके बाद भी यहां हिन्दू आस्था बनी रही और पूजा-अर्चना चलती रही। मुसलमान भी यहां नमाज नहीं पढ़ते थे। अंग्रेजों ने इसे दस्तावेजों में ‘बीजामण्डल मस्जिद’ लिख दिया। आगे यह पुरातात्विक स्थल होने से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अधीन आ गया, जिसमें कि यह भाषा सतत बनी रही।
पूरा विवाद इसी एक शब्द ‘मस्जिद’ कागजों में लिखे रहने से बना हुआ है। जब एक बार मुसलमानों द्वारा सामूहिक नमाज के लिए जगह मांगी गई तब मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने अपने से 40 हजार रुपए देकर विदिशा में एक जगह खरीदी और उसे मुसलमानों को ईदगाह के रूप में भेंट स्वरूप दे दिया। तब से आज तक कभी किसी भी मुसलमान ने इस पर अपना दावा नहीं ठोका।
1600 वर्ष पहले बना था यह भव्य मंदिर
स्थानीय हिन्दूनिष्ठ कार्यकर्ताओं ने कलेक्टर को एक ज्ञापन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के नाम दिया, एएसआई ने जिस परिसर में ताला लगा रखा है, उसे खोलकर अंदर पूजा करने की अनुमति मांगी। इसके बाद एएसआई के जवाब तथा उस पर जो उत्तर कलेक्टर द्वारा दिया गया, उससे यहां स्थितियां भिन्न हो गई हैं। इस संबंध में हिन्दू युवाओं का स्थानीय स्तर पर नेतृत्व कर रहे शुभम वर्मा ने कहा कि 1600 वर्ष पुराने इस प्राचीन मंदिर को एएसआई ने मस्जिद के रूप में दर्ज कर रखा है। यह जानकर आज हिन्दू समाज अत्यंत दुखी एवं आहत है। हमने कलेक्टर एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की मर्जी से सिर्फ एक दिन 9 अगस्त 2024 (नागपंचमी) को मंदिर में ताला खोलकर पूजा की अनुमति मांगी थी, किन्तु वह भी प्रशासन द्वारा नहीं दी गई ।
वे कहते हैं कि कि यहां प्रशासन ने सिर्फ पूजा-अर्चना की बात की, इबादत और नमाज की बात नहीं की। नमाज पास में इमामबाड़े में होती है। यदि यह बीजामंडल मस्जिद होती तो इतने वर्षों से हम हिन्दू यहां बाहर ही सही पूजा अर्चना क्यों कर रहे हैं ? हमने मंदिर के अंदर एक दिन पूजा करने की अनुमति मांगी थी, यहां तो कलेक्टर ने उलटा पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर पुलिस बल तैनात कर कानून व्यवस्था बनाए रखने की बात कर दी। अब हमारे ही मंदिर में पूजा करने से रोकने के लिए 2 वर्ष जेल एवं 1 लाख जुर्माने से डराया जा रहा है।
चालुक्य राजा कृष्ण के प्रधानमन्त्री वाचस्पति ने बनवाया था मन्दिर
इतिहास में जाएं तो यह एक ऐसा मंदिर है, जिसकी गिनती एक समय में भारत के सबसे बड़े मंदिरों में होती थी और इसका वैभव दुनिया भर में फैला हुआ था। इसी बीजामंडल अर्थात विजय मन्दिर नाम के कारण ही विदिशा का नाम भेलसा पड़ा था। सबसे पहले चालुक्य वंशी राजा कृष्ण के प्रधानमन्त्री वाचस्पति ने विदिशा में भिल्ल्स्वामीन (सूर्य) का विशाल मन्दिर बनवाया था। इतिहास इस बात की गवाही देता है कि चालुक्य राजाओं ने अपनी सौर्य पूर्ण विजय को अमर बनाने के लिए इसका निर्माण किया था।
मंदिर की कला और बनावट बताती है, इस मन्दिर का पुनः निर्माण परमार शासकों के शासनकाल में 10 वीं सदी में हुआ। उसके बाद फिर एक बार 11वीं शताब्दी में भी हुआ। अयोध्या, काशी, मथुरा एवं सोमनाथ के मन्दिर की भाँति कई इस्लामिक आक्रांताओं ने इसे भी बार-बार नष्ट करने का प्रयास किया। हर बार मुस्लिम आक्रान्ता इसे नष्ट करके जाते, यहाँ के निवासी उतनी ही शीघ्रता से इसका पुनर्निर्माण करके पहले की तरह ही वहां पूजन करना जारी रखते ।
अलबरूनी ने भी इसकी भव्यता का किया वर्णन
वरिष्ठ इतिहासकार एवं पत्रकार अरविन्द कुमार शर्मा कहते हैं कि इसके बारे में इतिहास में जो सबसे पुराना साक्ष्य मिलता है, वह सन् 1024 में महमूद गजनी के साथ आए उसके मन्त्री अलबरूनी के दस्तावेज हैं। उसने इस मन्दिर का वर्णन किया है। प्रसिद्ध इतिहासकार मिन्हाजुद्दीन ने भी इस मन्दिर की भव्यता के बारे में लिखा है,उनके लिखे से यह ज्ञात होता है कि इसकी चमक-दमक देखकर बुत परस्ती को हराम कहने वाले मुस्लिम हमलावरों ने इस पर लगातार हमले किए। बाहर लगा एएसआई का एक बोर्ड बताता है कि विजय मंदिर का निर्माण आठवीं शताब्दी में किया गया है। 11वीं शताब्दी में परमार वंश के राजा नरवर्मन ने इसका फिर से निर्माण कराया और 1682 ई. में औरंगजेब ने इसे तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी, उसने तो इसे तोपों से उड़वाया था।
मुस्लिमों ने इसे 1922 में विवादास्पद बनाने का प्रयास किया
कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस मंदिर को तोड़ने का सिलसिला दिल्ली सल्तनत के मुस्लिम आक्रांताओं ने ही शुरू किया था। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात सन् 1760 ई. में पेशवा के भेलसा में आते समय इसका मस्जिद स्वरूप नष्ट हो गया और भोई आदि जाति के हिन्दू इसे माता का मन्दिर समझकर भाजी-रोटी से इसकी पूजा करने लगे। वहीं, यहाँ चर्चिका माता, महिषासुर मर्दिनी इत्यादि देवियों की खंडित मूर्तियाँ, शिलालेख मिलने के कारण इसे चर्चिका देवी, विजया देवी, बीजासन देवी के मंदिर के रूप में भी जाना जाने लगा । फिर सन् 1922 के समय मुस्लिमों द्वारा यहां नमाज पढ़नी शुरू कर दी गई और हिन्दुओं द्वारा की जाने वाली पूजा का विरोध प्रारम्भ हो गया। 1947 के बाद से हिन्दू महासभा द्वारा इसे प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया गया, जिसके बाद विजय मंदिर को सरकारी नियंत्रण में ले लिया गया था ।
कोणार्क मंदिर का कराता है आभास
वर्तमान में इसके परिसर को देखकर यह सहज समझा जा सकता है कि खजुराहो के मन्दिरों की तुलना में यह मन्दिर बहुत बड़ा है। यह कोणार्क के सूर्य मंदिर की भांति विशाल होने का आभास कराता है । इस मंदिर को लेकर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) का हाल में दिया एक वक्तव्य सामने आया था, जिसमें कहा गया कि इसे टूरिज्म स्पॉट बनाया जाएगा। जिसका विरोध यहां के स्थानीय निवासियों ने किया है ।
हिन्दू आस्था की मांग, पुन: मिलना चाहिए इस मंदिर को इसका भव्य स्वरूप
स्थानीय लोगों का कहना है कि यदि बिना मंदिर बनाए इसे टूरिज्म स्पॉट बना दिया गया तो यह बस नाचने, गाने एवं सेल्फी लेने और शराब पीने वालों का स्थान बनकर रह जाएगा। यह स्थान विदिशा को देश की दस दिशाओं से जोड़ता था, अतः आर्कियोलॉजी के हिसाब से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए इस बीजामंडल अर्थात विजय मंदिर को टूरिज्म स्पॉट बनाने के स्थान पर यहां एएसआई से पुनः सर्वे करवाकर दोबारा प्राचीन काल जैसे भव्य हिन्दू मंदिर का निर्माण करवाया जाना चाहिए, ताकि इसका भव्यता को पुन: वापस लाया जा सके । वहीं, ऐसा करने से ना सिर्फ हिंदुओं की आस्था को ठेस पहुंचने से बचेगी बल्कि इतिहास, आर्कियोलॉजी एवं काल गणना इत्यादि के भी महत्वपूर्ण साक्ष्य यहां मिलेंगे जो भविष्य में प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा को जानने में भी महत्वपूर्ण होंगे। फिलहाल चिंता यहां नागपंचमी पर हिन्दुओं के द्वारा पूजा-अर्चना करने की बनी हुई है।
टिप्पणियाँ