डॉ. क्षिप्रा माथुर
भारत की छह प्रतिशत आबादी अभी बेहद गरीबी में है। नीति आयोग के वर्ष 2021 में पहली बार जारी हुए ‘बहु-आयामी गरीबी सूचकांक’ यानी ‘एमपीआई’ में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और मेघालय सबसे निचले पायदान पर रहे। और, राजस्थान जैसा प्रदेश, जो पानी को छोड़कर दूसरे संसाधनों से भरा-पूरा है, उसकी 29.46 प्रतिशत आबादी गरीबी से जूझती हुई मिली। यह बेहद शर्मनाक इसलिए है कि अपने पिछड़ेपन को भुनाने का आदी हो चुका यह प्रदेश अपनी ही खूबियों को नजरअन्दाज करके उसे अपनी आर्थिक सेहत के लिए इस्तेमाल नहीं कर पा रहा। इस राज्य की पहचान पानी की कमी वाले प्रदेश की तरह इसलिए रही है क्योंकि इसका करीब 60प्रतिशत इलाका रेगिस्तानी है। मगर इसके साथ ही इस प्रदेश में इतनी विविधता है कि सारे देश के रंग यहीं मिल जाएंगे। यहां के चूरू में जब पारा गिरता है तो बर्फ जमने लगती है, पश्चिम में जब सूरज बरसता है तो सारे रिकॉर्ड तोड़ देता है़, माउंट आबू का पहाड़ी इलाका उत्तराखंड की वादियों जैसा है, वागड़ और हाड़ौती हरियाली से भरपूर और पानी से लबालब हैं, बल्कि पानी के खराब प्रबन्धन की वजह से बाढ़ की चपेट में भी आता है। यहां के घाना, सरिस्का, रणथम्भौर, नाहरगढ़ और झालाना अमरण्यों में फैले जंगलों में जीव-जंतुओं और दुनिया भर से आने वाले पंछियों का बसेरा है। जम़ीन के गर्भ में बेशकीमती संसाधन हैं और खदानें हैं, गांवों में हुनर और कला की भरमार है। फिक्र की बात यह है कि इतना सब होते हुए भी चौथाई से ज्यादा आबादी गरीबी में है।
नमक का दरिया
गरीबी में जीने वालों के लिए लूण यानी नमक और रोटी से कीमती और क्या होगा। नमक को आर्थिक सेहत के नजरिए से देखें तो यहां की एकमात्र खारी झील के साथ हुए सुलूक की प्रदेश ने जो कीमत चुकाई, उसका अन्दाज लग सकता है। अंग्रेजी हुकूमत और भारत सरकार, दोनों ने राजस्थान का नमक तो खूब खाया लेकिन इसका कर्ज कभी अदा नहीं किया। नमक की झील के लिए मशहूर सांभर का इलाका कुछ वर्ष पहले यहां आने वाले लाखों प्रवासी पंछियों की मौत की वजह से सुर्खियों में आया। देश की दूसरी सबसे बड़ी नमक की इस झील की असल पहचान यह है कि यहां बनने वाले वाला नमक, लवण यानी मिनरल्स और आयोडीन से भरपूर होता है।
साथ ही झील में मिलने वाले स्पाइरोलिना सहित और फायदेमन्द शैवाल यानी एल्गी भी इसे और झीलों से पृथक करते हैं। स्पाइरोलिना को सुपर फूड की तरह देखा जाता है जिसमें 65प्रतिशत प्रोटीन होता है। झील में मिलने वाले शैवाल और लवण की ही वजह से सांभर नामक बाकी के चांदी जैसे सफेद नमक के बजाय हल्की गुलाबी रंगत लिए होता है। यह इलाका वेटलैंड का भी है यानी ऐसा इलाका जहां की जमीन, पानी और जीव-जन्तुओं के आपसी रिश्ते इतने खास हैं कि उन्हें बचाए रखना हमारे अपने वजूद के लिए भी जरूरी है। अपनी खासियत का जो खामियाजा इस इलाके ने भुगता है, उसकी जड़ें इतिहास में हैं जिन्हें जलवायु संकट, टिकाऊ विकास और जीडीपी के बीच तालमेल बैठाते दौर में खंगालने का वक्त है। अपने जायज आर्थिक अधिकारों की दावेदारी के बगैर कोई प्रदेश विकास की दौड़ में आगे खड़ा नजर नहीं आ सकता। यही वजह है कि अब नए दौर का ‘नमक आन्दोलन’ खड़ा हुआ है जो विकास की छटपटाहट का नतीजा है।
देश की दूसरी सबसे बड़ी नमक की इस झील की असल पहचान ये है कि यहां बनने वाले वाला नमक, लवण यानी मिनरल्स और आयोडीन से भरपूर होता है। साथ ही झील में मिलने वाले स्पाइरोलिना सहित और फायदेमन्द शैवाल यानी एल्गी भी इसे और झीलों से पृथक करते हैं। स्पाइरोलिना को सुपर फूड की तरह देखा जाता है जिसमें 65 प्रतिशत प्रोटीन होता है। |
झूठा करार, हक पर मार
देश में जब 1930 में नमक सत्याग्रह छिड़ा था, उसके पीछे वजह थी कि ब्रिटिश हुकूमत अपने देश में बने नमक को भारत में बेचना चाहती थी। इसीलिए उन्होंने भारत के बाजार को कमजोर करने के लिए नमक बनाने पर भारी कर लगाया। लोगों ने इसका विरोध किया और गांधी ने दांडी मार्च निकालकर इस आन्दोलन की अगुआई की। उस वक्त के राजपूताने में रियासतों में सत्ताओं के खिलाफ खड़े हो रहे जन-नेताओं ने इस नमक आन्दोलन में बढ-चढ़कर हिस्सा लिया। मगर इस आन्दोलन से कई वर्ष पहले राजपूताना के साथ जो ज्यादती हो रही थी,उस पर कभी किसी ने ऐतराज किया हो, इसके कोई सुबूत नहीं मिलते। दांडी मार्च से करीब 60 वर्ष पहले ही अंग्रेजी हुकूमत ने सांभर के नमक के लिए सांभर साल्ट कम्पनी के साथ 90वर्ष का करार कर लिया था।
अंग्रेजों की एक ही मंशा थी कि जो नमक सांभर में बनेगा, उसे कम्पनी पूरा खरीद लेगी, उसे दुनिया भर में बेचेगी, उससे मुनाफा कमाएगी। यह एक तरफा करार था जिसमें सारा संसाधन सांभर का होने के बावजूद यहां की जनता का, कमाई पर कोई हक नहीं था। बल्कि यहां रहने वाले लोग नमक बनाने का कारोबार न कर पाएं, ऐसा इंतजाम था। अंग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के बाद राजस्थान के तीन जिलों से सटी करीब 230 वर्ग किलोमीटर में फैली इस सांभर झील का करार 1960 में जाकर पूरा हुआ। मगर इसके बाद भी जो नया करारनामा तैयार हुआ, उसमें उसी नौकरशाही और राजनीति की छाप रही जिसे जनता के हक की कभी परवाह नहीं थी।
‘अभिनव राजस्थान’ की पड़़ताल
दशक भर से प्रदेश में लोकनीति और सूचनाओं से नागरिकों को सशक्त करने का काम कर रहे ‘अभिनव राजस्थान’ संगठन ने इतिहास में दबे इस सच को खंगाला। पूर्व आईएएस अधिकारी डॉ. अशोक चौधरी ने सूचना के अधिकार से जानकारी जुटाई कि कैसे 90वर्ष के करार के बाद 1960 में नेहरू शासनकाल में तीन अधिकारियों की समिति ने सांभर के नमक का पूरा हक फिर से कम्पनी को ही सौंप दिया। यानी अंग्रेजों के हाथों से निकलकर अब संघीय सरकार के उपक्रम के तौर पर खड़ी नई कम्पनी की मनमानी पहले की तरह ही जारी रखी गई। कागजों की पड़ताल में यह भी जाहिर हुआ कि इस करार की किसी भी स्तर पर कहीं रजिस्ट्री नहीं है। यानी जाहिर तौर पर तीन अधिकारियों के दस्तखत से तैयार कम्पनी के हक में तैयार इस करार की कोई कानूनी वैधता ही नहीं है। इस मसले को लेकर स्थानीय लोगों को साथ लेकर छेड़े आन्दोलन में उन्होंने जो रोडमैप तैयार किया है, उसमें सांभर-नावां के बाशिन्दों का नमक के कारोबार पर हक, इलाके की आर्थिक बेहतरी, और सांभर झील के सही नाप-जोख के साथ ही यहां के नमक की ‘जियो टैगिंग’ की बात है, जिससे दुनिया में इसकी अलग पहचान रहे, साख बढ़े।
यह बात अहम है कि स्वतंत्र भारत में संविधान के कायदों से देश चलना था और रियासतों के राज्यों में मिलने के बाद संघीय ढांचे की हिफाजत भी करनी थी। वर्ष1958 में कम्पनी को हिन्दुस्तान साल्ट कम्पनी का नाम मिला और राज्य में इसने सांभर साल्ट कम्पनी के नाम से नमक का कारोबार जारी रखा। नतीजा यह है कि आज देश के कुल नमक का करीब 10 प्रतिशत नमक देने वाला यह इलाका आर्थिक तौर पर कमजोर होने की वजह से पलायन झेल रहा है। नावां यानी सांभर के उत्तरी इलाके में लोग अपनी-अपनी जमीनों में बोरवेल खोदकर झील का पानी खींचकर नमक निकालते हैं जिसकी कानूनी इजाजत नहीं है। ऐेसे में इन पर मुकदमे दायर होते हैं।
विकास का विरोधाभास
राजनीतिक पार्टियां इतने बड़े मसले को संसद तक नहीं ले जा सकीं। विधानसभा में दमखम से नहीं उठा सकीं। फैसला नहीं ले सकीं। अपने ही लोगों पर लगाए मुकदमे वापस नहीं ले सकीं। बात इतनी सीधी है कि जिस करार के तहत राज्य को उसके हक से दूर किया गया, उसे रद्द करने में कोई अड़चन है ही नहीं क्योंकि यह लीज रजिस्टर्ड ही नहीं है। जनता का हक जनता के पास ही है। वर्ष 2021 की शुरुआत में राष्ट्रीय ग्रीन टिब्यूनल की नमक के अन्धाधुन्ध दोहन से पर्यावरण के नुकसान के सवाल पर राजस्थान के वन विभाग ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया कि झील पर कोई अतिक्रमण नहीं है और कम्पनी की ऐसी कोई गतिविधि नहीं जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता हो। रिपोर्ट में 2016 में नीरी यानी पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संस्थान की ओर से दिए सुझावों का भी हवाला है। इसमें पानी के दोहन को रोकने के लिए औद्योगिक काम के लिए इस्तेमाल के लिए झील पर वॉटर मीटर लगाने का सुझाव भी है। वर्ष 2010 से 2016 के बीच बनी कपूर और वन पर्यावरण मंत्रालय की समितियों ने नमक के गैर-कानूनी उत्पादन पर लगाम और कम्पनी की गतिविधियों को जायज ठहराते हुए लोगों पर सख्ती की बात कही है। रिपोर्टों में यह विरोधाभास भी है कि एक तरफ ये झील के इलाके में मानव दखल कम करने की जरूरत बताती हैं तो दूसरी तरफ ईको-टूरिज्म को बढ़ावा देने की बात करती हैं। इन तमाम रिपोर्टों में कहीं भी इलाके की आर्थिक समृद्धि, कुदरत के कानूनों के मुताबिक इलाके के निवासियों के जायज हक और ऐतिहासिक भूलों को सुधारने का कहीं जिक्र तक नहीं है।
बड़प्पन और तरक्की
फिलहाल मसले को ज्यादा उलझाए बगैर और बौद्धिक मगजमारी से बाहर निकलकर सरकार को राज्य की हिस्सेदारी पाने और सांभर-नावां के निवासियों को भी नमक के खजाने से कमाई का रास्ता खोलने की योजना पर काम करना चाहिए। मोटे आकलन से कहें तो ये फैसले सांभर की नमक उत्पादन में भागीदारी को 10 से बढ़ाकर 30प्रतिशत कर देंगे। कुदरत की सौंपी इतनी बड़ी सम्पदा, इतनी खूबसूरत विरासत के बावजूद अगर यहां मायूसी पसरी है तो ये नीतियों की शिकस्त तो है ही, एक मायने में जन-प्रतिनिधियों की नाकामी भी है। कांतली, बांडी, मासी और लूणी नदियों के कैचमैंट से अपनी गुलाबी रंगत हासिल करने वाली इस झील को आबाद करने की इस पहल में नीति आयोग भी अपनी समझ जोड़ सकता है। एक रिपोर्ट और तैयार हो जिसमें कुदरती संसाधनों की रोशनी में, संघ-राज्य के तय दायरों में राज्यों को कमजोर करने वाले करारों का खुलासा हो। भारत सरकार यह के लिए भी उस पर बरसों से चढ़े नमक का कर्ज उतारने का मौका है।
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