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होम भारत

दो पाटों के बीच में, आखिर क्या चाहते हैं पुतिन ?

by WEB DESK
Feb 23, 2022, 04:48 am IST
in भारत, विश्लेषण, दिल्ली
व्लादिमीर पुतिन

व्लादिमीर पुतिन

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निश्चित रूप से पश्चिमी और पूर्वी यूक्रेन तथा पश्चिम समर्थकों व रूस समर्थकों में बुरी तरह बंट चुके इस देश को एकता की सख्त आवश्यकता है। 

आदर्श सिंह

रूस की सवा लाख से ज्यादा फौज यूक्रेन से लगती सीमाओं पर तीन तरफ से घेराबंदी कर तैनात है और सैन्य युद्धाभ्यास जारी है। काला सागर में रूसी नौसैनिक बेड़ा पूरी तरह उतर चुका है। अमेरिका साल के शुरू से ही कह रहा है कि सैनिकों के इस जमावड़े के पीछे रूस की योजना यूक्रेन पर हमले की है और यह किसी भी समय हो सकता है। उधर, यूक्रेनी राष्ट्रपति  वोलोदोमीर जेलेंस्की खतरे को कमतर करने के लिए कहते रहे कि यूक्रेन तैयार है, लेकिन हमला होने वाला है, इसका कोई सबूत नहीं है। हमारे पास कोई खुफिया जानकारी नहीं है। उन्होंने कहा कि जनता का सबसे खतरनाक शत्रु है घबराहट और भय। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवान ने फरवरी के दूसरे हफ्ते में कहा कि हमला बस दो-चार दिन में हो सकता है। लेकिन अब तक हमले की आशंका से इनकार कर रहे जेलिंस्की ने एक फेसबुक पोस्ट में बाकायदा हमले की तारीख की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि रूस 16 फरवरी को हमला करेगा और यूक्रेनी इस दिन को एकता दिवस के रूप में मनाएंगे। निश्चित रूप से पश्चिमी और पूर्वी यूक्रेन तथा पश्चिम समर्थकों व रूस समर्थकों में बुरी तरह बंट चुके इस देश को एकता की सख्त आवश्यकता है। 

फिलहाल हमला नहीं हुआ है, लेकिन पूर्वी यूक्रेन में रूस समर्थित विद्रोहियों के कब्जे वाले इलाकों में झड़पें और गोलीबारी चालू हो गई है। यूक्रेन पर साइबर हमलों का सिलसिला भी जारी है। रूस का कहना है कि अगर सब कुछ रूस पर निर्भर रहा तो युद्ध की नौबत नहीं आएगी। यानी एक तरह से युद्ध टालने की जिम्मेदारी यूक्रेन की है। कूटनीति अपने चरम पर है। फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों से लेकर जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स तक युद्ध टालने के लिए मास्को में हाजिरी बजा चुके हैं। नाटो की बैठकें जारी हैं। लेकिन रूस फिलहाल अपनी शर्तों पर अड़ा हुआ है और पुतिन भली भांति जानते हैं कि उन्होंने जो दांव चला है, वह बेकार नहीं जाएगा। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का कहना है कि रूस युद्ध नहीं चाहता लेकिन हम किसी को अपने हितों को कुचलने या उसकी अनदेखी करने की अनमुति नहीं दे सकते। रूसी और यूक्रेनी दोनों अपने अनुभव से जानते हैं कि इस तरह की भाषा एक तरह से हमले की तैयारी है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय एक सोवियत प्रोपेगंडा गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। इस गाने में पूरी तरह वही चीजें थीं जो आज रूसी नेता बोल रहे हैं। यानी हम युद्ध नहीं चाहते लेकिन हम अपनी रक्षा करेंगे, दुश्मनों का उनके घर में घुसकर खात्मा करेंगे। तब तैयारी फिनलैंड पर हमले की थी। रूस कहता रहा कि वह युद्ध नहीं चाहता लेकिन लड़ाई के बहाने खोजता रहा और आखिर में 1939 में उसने फिनलैंड पर हमला बोल दिया। बहाने खोजने की वैसी ही कोशिश आज भी जारी है। फरवरी के शुरू में रूस ने एक फेक वीडियो जारी किया जिसमें यूक्रेनी फौज को पूर्वी यूक्रेन स्थित डोनबास में नागरिकों पर हमला करते हुए दिखाया गया है। 

सवाल है कि पुतिन क्या चाहते हैं। पुतिन सिर्फ यूक्रेन पर ही नहीं बल्कि पूरे नाटो और यूरोप समेत अमेरिका पर अपनी शर्तें थोपना चाहते हैं। और शर्तें ऐसी हैं कि जिन्हें चाहकर भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। 2021 के अंत में रूस ने अमेरिका को अपनी मांगों की एक लंबी सूची सौंपी और कहा कि यह यूक्रेन के साथ बड़े पैमाने पर युद्ध की संभावना को टाले के लिए आवश्यक है। इन मांगों में शामिल है पूर्वी यूरोप में अब नाटो के किसी भी विस्तार पर औपचारिक रोक, सोवियत संघ का हिस्सा रह चुके देशों में नाटो के सैन्य ढांचे जैसे सैन्य अड्डों और हथियार प्रणालियों के विस्तार पर स्थायी रोक, यूक्रेन को किसी भी तरह की पश्चिमी सैन्य सहायता पर रोक और यूरोप में मध्यम दूरी की मिसाइलों पर पाबंदी। इन मांगों में एक संदेश है कि यदि इसे नहीं माना गया तो रूस भी यूक्रेन पर हमले जैसा कदम उठा सकता है।

पुतिन आखिर यूक्रेन पर हमले का कदम क्यों उठाना चाहते हैं और इससे रूस को क्या हासिल होने वाला है? इसके कारण बहुत स्पष्ट हैं। यूक्रेन बहुत जरूरी है रूस की सुरक्षा के लिए। रूस पर नैपोलियन से लेकर हिटलर तक के जब-जब हमले हुए हैं, यूक्रेन के रास्ते ही हुए हैं। रूस की सुरक्षा के लिए यूक्रेन वैसे ही है जैसे इंग्लैंड की सुरक्षा के लिए स्काटलैंड या अमेरिका के लिए टेक्सास। यूक्रेन में तब तक किसी विदेशी ताकत की दिलचस्पी नहीं जगती जब तक कि उसकी मंशा रूस पर हमले की न हो। साथ ही अमेरिका अपनी सुविधानुसार तमाम हथियार नियंत्रण संधियों से भी बाहर हो गया। ऐसे में पुतिन के लिए नाटो का विस्तार का मतलब पानी सिर से ऊपर हो जाना है। यूक्रेन सदियों तक रूस के कब्जे में रहा है और दोनों के बीच ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संबंध बहुत गहरे रहे हैं। यह कहना भी मुश्किल है कि यूक्रेन रूस का हिस्सा रहा है या रूस यूक्रेन का क्योंकि जहां से रूसी स्लाव साम्राज्य की स्थापना हुई वह जगह यूक्रेन की राजधानी कीव थी। ज्यादातर रूसी या विशेष रूप से पुतिन यूक्रेन को रूस का हिस्सा ही समझते रहे हैं। यूक्रेन की साढ़े चार करोड़ की जनसंख्या में 80 लाख रूसी हैं। और मास्को कहता है कि स्वतंत्रता के समय यूक्रेन ने समझौते पर दस्तखत किए थे कि वह किसी भी गुट का हिस्सा नहीं बनेगा।

वर्तमान समस्या के पीछे पश्चिमी देश और रूस बराबर के जिम्मेदार हैं। दोनों में से किसी ने भी किसी भी समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का पालन नहीं किया। यह स्थिति आनी ही थी और इसके बीज इस समस्या के बीज सोवियत संघ के टूटने और अगस्त 1991 में यूक्रेन के स्वतंत्र होने के समय ही पड़ गए थे। और थोड़ा तीन दशक पीछे जाएं तो तब अमेरिका की हरचंद कोशिश थी कि बाकी सोवियत देश भले ही आजाद हो जाएं लेकिन यूक्रेन किसी भी तरह रूस का हिस्सा बना रहे। कारण था यूक्रेन के परमाणु हथियार। यूक्रेन जिसके बारे में कहते हैं कि तीस साल की यह स्वतंत्रता उसके इतिहास की सबसे लंबी स्वतंत्रता है, जब आजाद हुआ तो रूस, अमेरिका के बाद सीधे दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी परमाणु ताकत के रूप में उभरा। स्वतंत्रता के समय उसके पास 1900 परमाणु बम और 2500 टैक्टिकल परमाणु बम थे। यद्यपि इन परमाणु हथियारों को दागने का कोड रूस के पास ही था लेकिन यूक्रेन की तकनीकी क्षमताओं को देखते हुए इस मुश्किल से पार पाना कोई बड़ी बात नहीं थी। अमेरिका की चिंता ये थी कि सोवियत संघ को तो वो जानते थे लेकिन अगर किसी नए देश के पास इतने परमाणु हथियार आ गए तो ये खतरे की घंटी है। उसकी नीति साफ थी कि जिस दुश्मन को अच्छे से जानते हो उससे निपटने में भलाई है न कि कोई नया शत्रु आए जिसके बारे में कुछ जानते ही नहीं। 

यूक्रेन के पास यूरेनियम का जखीरा था और दूसरा लाभ था कि सोवियत संघ की ज्यादातर मिसाइल फैक्ट्रियां भी उसी की भूमि पर थीं। तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने कहा कि यह अलग यूगोस्लाविया है। यहां 30, 000 (तीस हजार) परमाणु हथियार हैं और आखिरी चीज जो हम नहीं चाहते हैं वो है पूर्व सोवियत देशों के बीच परमाणु होड़। सोवियत संघ के बिखरने के तुरंत बाद रूस और यूक्रेन में पूर्व सोवियत नौसेना के क्रीमिया के सेवेस्तोपोल में स्थित काला सागर बेड़े को लेकर विवाद शुरू हो गया। 

आखिर में 1994 में बुडापेस्ट में यूरोप व अमेरिका के 50 नेताओं की उपस्थिति में बुडापेस्ट मेमोरेंडम पर दस्तखत किए गए। इसमें अपने परमाणु हथियारों को सौंपने के बदले में यूक्रेन को उसकी क्षेत्रीय अखंडता का आश्वासन दिया गया। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सिर्फ आश्वासन था, गारंटी नहीं। लेकिन यूक्रेन के पास कोई चारा नहीं था। ऐसा नहीं करने पर अमेरिका और रूस दोनों उसके शत्रु बन जाते और यूक्रेन आर्थिक रूप से ध्वस्त होने के कगार पर था। यूक्रेन तब भी जानता था कि उसकी क्षेत्रीय अखंडता के वादे का रूस ज्यादा दिन सम्मान नहीं करने वाला लेकिन ऐसी किसी स्थिति में वह पश्चिम से कम से कम मदद की गुहार लगा सकता है। मदद मिलेगी भी लेकिन जो फर्क 1994 में था, वो आज भी है। आश्वासन है, गारंटी नहीं है।

उधर, शीत युद्ध जीत लेने और एकध्रुवीय विश्व हो जाने के बाद पश्चिम ने उदारवादी मूल्यों और लोकतंत्र को बढ़ावा देने की आड़ में चुनी हुई सरकारों को निहित स्वार्थी तत्वों के आंदोलनों के जरिए अस्थिर करने के प्रयास शुरू कर दिए। यह आज तक जारी है। पिछले साल ही पुतिन ने एक आलेख में लिखा कि यूक्रेन रूस को अस्थिर करने के प्रयास में जुटी ताकतों का अड्डा बन गया है। रूस के पड़ोसी जार्जिया में और फिर 2014 में यूक्रेन में कलर्ड रिवोल्यूशन के जरिए रूस समर्थक नेताओं को सत्ता से हटा दिया गया। 2014 में यूक्रेन में रूस समर्थक राष्ट्रपति को सत्ता छोड़कर भागना पड़ा और उन्हें रूस में शरण लेनी पड़ी। रूस को अस्थिर करने के लिए पश्चिम की नीतियां तीन चीजों पर आधारित थीं। पहला, नाटो का विस्तार, दूसरा यूरोपीय समुदाय (ईयू) का विस्तार और तीसरा, लोकतंत्र का प्रसार। फ्रांस और जर्मनी के विरोध के बावजूद जार्जिया और यूक्रेन को नाटो और ईयू में शामिल करने के प्रयास जारी रहे। 2008 में इस दिशा में बढ़ने पर लगभग सहमति बन गई थी लेकिन फ्रांस और जर्मनी को यूक्रेन को नाटो में शामिल करने पर रूस की प्रतिक्रिया का अंदाजा था। इन दोनों देशों के विरोध के बाद कहा गया कि यूक्रेन नाटो में शामिल होगा। इसका जवाब पुतिन ने जार्जिया पर हमला कर दिया।

यूक्रेन में 2014 में ईयू और पश्चिमी देशों के समर्थकों द्वारा पश्चिमी मदद से ऑरेंज रिवोल्यूशन के जरिए यूक्रेन समर्थक राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को अपदस्थ करने के बाद रूस क्रोधित और महसूस कर रहा था। लेकिन इन क्रांतियों की सफलता से उत्साहित इसके पैरोकारों ने यह दावे भी करने शुरू कर दिए कि सिलसिला यूक्रेन तक ही नहीं रुकेगा। असली निशाना रूस है और उदारवादी लोकतंत्र की बयार वहां भी पहुंचेगी। पुतिन ने इन बयानबाजियों का जवाब क्रीमिया पर कब्जा कर दिया। साथ ही उन्होंने पूर्वी यूक्रेन में सशस्त्र विरोध को बढ़ावा दिया और डोनबास सहित पूर्वी यूक्रेन के बड़े हिस्से पर रूस समर्थक विद्रोहियों का कब्जा हो गया। रूस ने इन विद्रोहियों को घातक हथियार और मिसाइलें दीं और इन्हीं मिसाइलों से मलेशियाई यात्री विमान को मार गिराया गया जिसमें 298 लोगों की मौत हो गई। अब पूर्वी यूक्रेन का एक बड़ा हिस्सा कीव के नियंत्रण से बाहर है। फिलहाल जो स्थिति है, उसमें यह स्पष्ट है कि यूक्रेन रूस समर्थित इन बागियों के कब्जे वाले इलाकों को दोबरा अपने नियंत्रण में नहीं ले सकता।

पश्चिम और रूस के बीच लड़ाई में पिस रहा है यूक्रेन जिसने इतिहास में पहली बार स्वतंत्रता का इतना लंबा दौर देखा है। फिर भी यह स्पष्ट कि यूरोप अब पहले जैसा नहीं रह जाएगा। नाटो एक बार फिर यूरोप में प्रासंगिक हो गया है और अमेरिका की पूछ बढ़ गई है, पुतिन हमला नहीं भी करते हैं तो भी अब लगभग ये तय है कि यूक्रेन अब नाटो में शामिल होने पर कई बार सोचेगा। यूक्रेनी नेताओं की ओर से मिल रहे संकेत स्पष्ट हैं। साथ ही, यूरोप में हथियार नियंत्रण संधियों पर एक बार फिर से बातचीत शुरू होने के आसार हैं।

युद्ध रोकने के लिए पुतिन की मांगें

पूर्वी यूरोप में अब नाटो के किसी भी विस्तार पर औपचारिक रोक, सोवियत संघ का हिस्सा रह चुके देशों में नाटो के सैन्य ढांचे जैसे सैन्य अड्डों और हथियार प्रणालियों के विस्तार पर स्थायी रोक, यूक्रेन को किसी भी तरह की पश्चमी सैन्य सहायता पर रोक और यूरोप में मध्यम दूरी की मिसाइलों पर पाबंदी। 

बदले में कुछ नहीं
1994 में बुडापेस्ट में यूरोप व अमेरिका के 50 नेताओं की उपस्थिति में बुडापेस्ट मेमोरेंडम पर दस्तखत किए गए। इसमें यूक्रेन को अपने 1800 परमाणु हथियारों को सौंपने के बदले में उसकी क्षेत्रीय अखंडता का आश्वासन दिया गया। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सिर्फ आश्वासन था, गारंटी नहीं।
 
अस्थिर करने की रणनीति
रूस को अस्थिर करने के लिए पश्चिम की नीतियां तीन चीजों पर आधारित हैं। पहला, नाटो का विस्तार, दूसरा यरोपीय समुदाय (ईयू) का विस्तार और तीसरा, लोकतंत्र के प्रसार की आड़ में निहित स्वार्थी तत्वों के जरिए आंदोलन खड़ा कर चुनी हुई सरकारों को अपस्थ करना।
 
फिलहाल के नतीजे
नाटो एक बार फिर यूरोप में प्रासंगिक हो गया है और अमेरिका की पूछ बढ़ गई है। पुतिन हमला नहीं भी करते हैं तो भी अब लगभग ये तय है कि यूक्रेन शायद ही नाटो में शामिल होने की सोचे। यूक्रेनी नेताओं की ओर से मिल रहे संकेत स्पष्ट हैं। साथ ही, यूरोप में हथियार नियंत्रण संधियों पर एक बार फिर से बातचीत शुरू होने के आसार हैं।

 

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