आदर्श सिंह
चीनी दुनिया की छत को तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) कहता है। इस हिसाब से तिब्बत के नागरिकों को काफी स्वायत्तता प्राप्त होनी चाहिए। लेकिन तिब्बतियों को अपनी भाषा में पढ़ने की अनुमति नहीं है, अपने इतिहास, अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के बारे में जानने का अधिकार नहीं है; अपने धार्मिक व सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रदर्शन का अधिकार नहीं, चीन से बाहर जाने के लिए पासपोर्ट मिलना लगभग असंभव है और तिब्बत में किसी विदेशी का आ पाना भी असंभव है कि वह इस स्वायत्तता को एक झलक भी देख सके।
वहीं अर्धसरकारी और गैरसरकारी संगठनों के अनुसार तिब्बत में 1950 से लेकर अब तक कम से कम दस लाख लोग मारे गए हैं, उनकी सभ्यता एवं संस्कृति को तहस-नहस करने का जा चुके सुनियोजित अभियान जारी है। चीन की सर्वसत्तावादी तानाशाह कम्युनिस्ट सरकार का दावा है कि यह सब वह तिब्बती जनता के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए कर रही है। लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता पर नजर रखने वाले अमेरिकी वाचडाग फ्रीडम हाउस ने इस मामले में तिब्बत को सीरिया के बाद दूसरे नंबर पर रखा है। यानी तिब्बतियों के मुकाबले अफगानिस्तान का शिया व हजारा समुदाय भी ज्यादा स्वतंत्र है।
तिब्बत में बौद्ध प्रतीक मिटाने का अभियान
ऐसे माहौल में एक आम तिब्बती के पास यही विकल्प है कि वह या तो अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक परंपराओं को तिलांजलि दे दे या किसी जेल या लेबर कैंप (जहां जबरन काम करवाया जाता है और साथ में मार्क्सवादी ज्ञान दिया जाता है) में जाने को तैयार रहे। चीन का सबसे ताजा आदेश यह है कि उसने आमदो प्रांत में सभी पार्टी सदस्यों, व काडरों के किसी भी धार्मिक गतिविधि में भाग लेने पर रोक लगा दी है। तिब्बत में दशकों से बौद्ध धर्म की की निशानियों को मिटाने का अभियान चल रहा है।
तिब्बती अपने घरों में जो प्रार्थना के झंडे लगाते हैं, उस पर भी रोक है। अगर वे झंडे लगाते हैं तो साथ में उन्हें चीनी झंडा भी लगाना होगा और जो हर हाल में प्रार्थना के झंडे से ऊंचा रहेगा। चीन इस तरह तिब्बत में अपना झंडा बुलंद कर रहा है। ऐसे नए नियम कानून लाए गए हैं कि तिब्बती मठों में नए भिक्षुओं का आना लगभग असंभव हो गया है। बीसवीं सदी की शुरुआत तक जिस देश का अपना झंडा, अपनी मुद्रा, अपना पासपोर्ट था, अब वहां प्राथमिक स्कूलों में भी तिब्बती के बजाए मंडारिन में शिक्षा दी जा रही है। लोगों को डराने-धमकाने के लिए प्रमुख तिब्बती मठों में सीसीटीवी कैमरे और चेहरा पहचानने वाले कैमरे लगाए जा रहे हैं।
कुल मिलाकर तिब्बतियों के सांस्कृतिक संहार के लिए चीन उन्हीं तरीकों का प्रयोग कर रहा है जिन्हें वह मंचूरिया, इनर मंगोलिया और सिनकियांग में सफलतापूर्वक आजमा चुका है। इसमें तीन तरीके शामिल हैं। पहला, इन इलाकों में हान चीनियों को बसाकर मूल निवासियों को अपने ही घर में अल्पसंख्यक बना देना, निगरानी तकनीकों के जरिए बड़े पैमाने पर लोगों पर नजर रखकर उन्हें आतंकित करना, बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां, यातना और स्थानीय भाषा, संस्कृति और रिवाजों पर प्रतिबंध, उन्हें हतोत्साहित करना और उन पर चीनी भाषा व संस्कृति थोपना। अंतत: यहां के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और स्थानीय नागरिकों का चीन की फैक्ट्रियों में सस्ते मजदूर के रूप में इस्तेमाल।
नए सिरे से लेबर कैंप की मुहिम
निर्वासित तिब्बती सरकार के राष्ट्रपति लोबसान सांग्ये कहते हैं कि शी जिनपिंग सरकार कुख्यात लेबर कैंपों को अब एक बार तिब्बत में नए सिरे से शुरू करने जा रही है। लेकिन इसमें नई बात यह है कि इसे तेजी से, व्यापक स्तर पर और पूरी तरह सैन्य शैली में लागू किया जा रहा है। उनका कहना है कि चीनी सरकार तिब्बतियों को सैन्य शैली में प्रशिक्षित और साम्यवादी प्रोपेगंडा में दीक्षित करने के लिए बड़े पैमान पर लेबर और राजनीतिक पुन: शिक्षा कैंपों का विकास कर रही है।
सिर्फ छह महीने के भीतर पांच लाख ग्रामीण तिब्बतियों को इन शिविरों में भेजा गया है। वहां से बाहर निकलने के बाद इन लोगों को गरीबी उन्मूलन के नाम पर चीन की मुख्य भूमि में स्थित फैक्ट्रियों में खटने के लिए भेज दिया जाता है। चीन के लिए तिब्बत में गरीबी उन्मूलन तिब्बतियों के चीनीकरण का दूसरा नाम है। जेम्सटाउन फाउंडेशन की एक रिपोर्ट, जिसके तथ्यों की बाद में समाचार एजेंसी ‘रायटर’ ने भी पुष्टि की, के अनुसार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों के लिए निश्चित कोटा तय किया गया है कि उन्हें कितने तिब्बतियों को इन राजनीतिक प्रोपेगंडा शिविरों में दीक्षित होने के लिए भेजना है। इस कोटे का कड़ाई से पालन किया जाता है।
सभी को बनना होगा हान चीनियों जैसा
2013 में ही ह्यूमन राइट्स वाच ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि, ‘‘हालांकि राजनीतिक बंदियों और असंतुष्टों के लिए चीन लंबे समय से तिब्बत में गुलाग और लेबर कैंपों का संचालन कर रहा है लेकिन पिछले एक साल में जिस तरह से यहां जबरन विस्थापन की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है, वह माओ के बाद के काल के लिए अप्रत्याशित है।’’ यहां यह याद रखना जरूरी है कि शी जिनपिंग 2012 में ही चीन के राष्ट्रपति बन चुके थे। और वे पहले ही दिन से यह बता रहे हैं कि हर किसी को चीन के प्रति प्रेम रखना होगा, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति आजीवन कृतज्ञ रहना होगा। और अब सभी को हान चीनियों जैसा चीनी बनना होगा। इसमें कोई ढिलाई बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
28 मई, 2014 को दिए एक बयान में उन्होंने कहा था, ‘‘जिन्हें गिरफ्तार करने की जरूरत है, उन्हें गिरफ्तार करना होगा, जिन्हें सजा देने की जरूरत है, उन्हें सजा देनी होगी।’’ इस काम में विफल रहने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों के लिए भी सजा का प्रावधान है। शिनकियांग में काउंटी स्तर के कम्युनिस्ट पार्टी पदाधिकारियों को इस बात की सजा मिली कि वे जिन्हें ‘पकड़ना चाहिए था, जिन्हें सजा देनी चाहिए थी’ के आदेश का सख्ती से पालन करने से चूक गए।
धार्मिक गतिविधियों पर बारीक नजर
बौद्ध धर्म के चीनीकरण के लिए 2019 में बनाई गई एक पांच वर्षीय योजना में सभी धार्मिक गतिविधियों पर बारीकी से नजर रखने, झंडारोहण गतिविधियों को बढ़ावा देने और लोगों को चीनी साम्यवाद, चीनी कानून, चीनी संविधान और शी जिनपिंग के विचारों को लोगों तक पहुंचाने पर जोर देने की बात कही गई है। धार्मिक गतिविधियों पर बारीकी से नजर का मतलब तिब्बती बौद्ध धर्म, तिब्बती सभ्यता, संस्कृति और परंपरा को पूरी तरह से मिटा देना है ताकि इनकी कोई निशानी भी बाकी नहीं रहे। उनके मठों- मंदिरों को सुनियोजित तरीके से लक्षित कर कहर ढाया जा रहा है।
अब तक छह हजार से ज्यादा मठों को ध्वस्त या उजाड़ा जा चुका है। अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार तिब्बत की धरोहरों, स्थापत्य और परंपराओं को इस हद तक नुकसान पहुंचाया जा चुका है कि शायद अब इनका पुनर्निर्माण और पुनरुद्धार भी संभव नहीं है। साथ ही सामुदायिक अव्यवस्था, सामुदायिक सद्भाव को भी सुनियोजित तरीके से चोट पहुंचाई जा रही है और सेक्स व शराब को जानबूझकर बढ़ावा दिया जा रहा है। सिर्फ धार्मिक परंपराओं का पालन करने और उनमें आस्था रखने के लिए लोगों को गिरफ्तारी, यातना, उत्पीड़न, यौन शोषण बिना किसी मुकदमे के लंबे समय तक जेल का सामना करना पड़ता है।
चीन तिब्बत मुद्दे पर किसी भी आलोचना को अपना ‘कोर इंट्रेस्ट’ करार देते हुए सभी देशों को अपने कथित अंदरूनी मामलों में दखल से बचने को कहता है। लेकिन उसका ‘कोर इंट्रेस्ट’ सुरसा के मुंह की तरह फैलता जा रहा है। यही वह समय है जब दुनिया एकजुट होकर कहे कि एक दमनकारी सत्ता को किसी शांतिप्रिय जनता की आस्थाओं, परंपराओं को दफन करने का अधिकार नहीं है। सब जानते हैं कि चीन मान-मनौवल की नहीं, सिर्फ ताकत की भाषा समझता है।
फिर भी हर दिल में हैं दलाई लामा
इसके बावजूद चीनी सरकार अपने मंसूबों में कहां तक सफल हो पाई है? इंटरनेशनल कैंपेन फॉर तिब्बत के उपाध्यक्ष भुचुंग के. त्सेरिंग ने अमेरिकी समाचार पत्र फाक्स न्यूज को दिए एक साक्षात्कार में दावा किया कि चीन की दमनकारी नीतियों के विरोध में 2009 से अब तक 150 भिक्षु आत्मदाह कर चुके हैं। यह तथ्य यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि तिब्बत की बौद्ध परंपरा को मिटाने के प्रयासों में कितनी सफलता हाथ लगी है। चीन एक 86 वर्षीय भिक्षु के एक भिक्षु से भयभीत देश है। तिब्बत में घुसने वाले विदेशियों की बेहद सघन जांच होती है, उनके साथ हर समय एक पुलिसकर्मी रहता है जो इस पर नजर रखता है कि वह किसी स्थानीय तिब्बती से घुल-मिल न पाए। साथ में जितनी किताबें, नोट हैं, सबकी बारीकी से छानबीन की जाती है, मोबाइल फोन के फोटो और वीडियो की भी जांच होती है कि कहीं उनमें दलाई लामा की कोई तस्वीर तो नहीं। लेकिन दमनकारी सत्ता के लाख प्रयासों के बावजूद तिब्बती जनता के हृदय में दलाई लामा के प्रति श्रद्धा में रत्ती भर कमी नहीं आई है।
दलाई लामा की तस्वीरों पर प्रतिबंध के बाद उन्होंने करुणावतार बोधिसत्व के हजार हाथों वाले स्वरूप अवलोकितेश्वर की तस्वीरों की पूजा करनी शुरू दी है। दलाई लामा को अवलोकितेश्वर का अवतार माना जाता है। चीनी साम्यवादी सरकार 1950 से दलाई लामा को ‘अनपर्सन’ करने (वह कम्युनिस्ट रणनीति जिसमें चतुराई से किसी व्यक्ति के बारे में उसके सभी उल्लेखों जैसे किताबों से नाम, जगहों इत्यादि से, सभी तस्वीरों को मिटा दिया जाता है ताकि कुछ दिन बाद वह अपने आप लोगों की स्मृतियों से ओझल हो जाए) करने के प्रयास कर रही है। लेकिन तिब्बती कहते हैं कि चीन लाख प्रयास कर ले, हम जानते हैं कि दलाई लामा कहां रहते हैं। यानी हर तिब्बती के हृदय में।
दलाई लामा के बाद क्या
सवाल यह है कि दलाई लामा के बाद तिब्बत का क्या भविष्य होगा। चीन निश्चित ही इकतरफा रूप से अगले दलाई लामा का चुनाव कर लेगा जो उसकी हां में हां मिलाएं। लेकिन विश्व समुदाय को तिब्बत में जारी सांस्कृतिक संहार का संज्ञान लेना होगा। चीन तिब्बत मुद्दे पर किसी भी आलोचना को अपना ‘कोर इंट्रेस्ट’ करार देते हुए सभी देशों को अपने कथित अंदरूनी मामलों में दखल से बचने को कहता है। लेकिन उसका ‘कोर इंट्रेस्ट’ सुरसा के मुंह की तरह फैलता जा रहा है। यही वह समय है जब दुनिया एकजुट होकर कहे कि एक दमनकारी सत्ता को किसी शांतिप्रिय जनता की आस्थाओं, परंपराओं को दफन करने का अधिकार नहीं है। सब जानते हैं कि चीन मान-मनौवल की नहीं, सिर्फ ताकत की भाषा समझता है।
(लेखक साइंस डिवाइन फाउंडेशन से जुड़े हैं और रक्षा एवं वैदेशिक मामलों में रुचि रखते हैं)
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