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जो ज्ञान दे वह विद्यालय, जो सिर्फ साक्षर बनाए वह स्कूल

by WEB DESK
Dec 7, 2021, 09:45 am IST
in भारत, मत अभिमत, दिल्ली
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जो शिक्षा दे, वह विद्यालय, जो सिर्फ साक्षर बनाए, वह स्कूल। मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे सिर्फ साक्षर होकर डिग्रियों के बोझ से दब जाएं। मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने, उसके बोझ को हल्का करने की महारत देना चाहता हूं। मैंने तुम्हें अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए भेजा था, आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं। संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा संवेदनशील निरक्षर होना है। इसलिए बिस्तर बांधो और घर चलो।’’

आशुतोष राणा की फेसबुक वॉल से

बात सत्तर के दशक की है। पूज्य पिताजी ने बड़े भाई मदनमोहन, जो रॉबर्ट्सन कॉलेज जबलपुर से एमएससी कर रहे थे, की सलाह पर हम तीन भाइयों को बेहतर शिक्षा के लिए गाडरवारा के कस्बाई विद्यालय से उठाकर जबलपुर शहर के क्राइस्टचर्च स्कूल में दाखिला करा दिया। मध्य प्रदेश के महाकौशल अंचल में क्राइस्टचर्च उस समय अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में शीर्ष पर था। पूज्य बाबूजी व मां, हमें (नंदकुमार, जयंत व मैं आशुतोष) का क्राइस्टचर्च में दाखिला करा, हमें छात्रावास में छोड़ अगले रविवार को पुन: मिलने का आश्वासन देकर चले गए। पर मुझे नहीं पता था कि आने वाला इतवार मेरे जीवन में सदा के लिए चिन्हित होने वाला है।

इतवार का मतलब है छुट्टी, पर वह इतवार मेरे जीवन की ‘घुट्टी’ बन गया। ये मेरे जीवन के पहले सात दिन थे, जब  मैं बिना मां-बाबूजी के घर से बाहर रहा। सुबह से ही मैं आह्लादित था। मन मिश्रित भावों से भरा हुआ था। हृदय के किसी कोने में मां-बाबूजी को प्रभावित करने का भाव बलवती हो रहा था। यही दिन था, जब मुझे प्रेम व प्रभाव के बीच का अंतर समझ आया। बच्चे माता-पिता से सिर्फ प्रेम नहीं पाना चाहते, उन्हें प्रभावित भी करना चाहते हैं। दोपहर 3:30 बजे हम छात्रावास के आगंतुक कक्ष में आ गए। हमने खिड़की से स्कूल परिसर में मुख्य द्वार से अपनी हरी खुली फोर्ड जीप को अंदर आते देखा, जिसे मेरे बड़े भाई मोहन, जिन्हें पूरा घर भाईजी कहता था, चला रहे थे। मैं बेहद उत्साहित था।

मुझे अपने पर पूर्ण विश्वास था कि आज मां-बाबूजी को प्रभावित कर ही लूंगा। मैंने पुष्टि करने के लिए जयंत भैया, जो मुझसे 6 वर्ष बड़े हैं, से पूछा, ‘कैसा लग रहा हूं?’ वह बोले, ‘शानदार लग रहे हो।’ नंद भैया ने उनकी बात का अनुमोदन कर मेरे हौसले को और बढ़ा दिया। जीप रुकी। मां-बाबूजी उतरे। हम दौड़कर उनसे नहीं मिल सकते थे। यह स्कूल के नियमों के खिलाफ था। हम कमरे में ही विश्राम की मुद्रा में एक कतार में खड़े उनके आने का इंतजार करने लगे। जैसे ही वे करीब आए, हमने सम्मिलित स्वर में खड़े-खड़े गुड इवनिंग मम्मी, गुड इवनिंग बाबूजी कहा। सुनकर बाबूजी हल्का-सा चौंके, फिर तुरंत उनके चहरे पर हल्की स्मित आई, जिसमें बेहद लाड़ था। मैं समझ गया कि वे प्रभावित हो चुके हैं। मैं जो मां से लिपटा रहता था, उनके करीब नहीं जा रहा था, ताकि उन्हें पता चले कि मैं आत्मनिर्भर हो गया हूं। मां ने स्नेहसिक्त मुस्कान से मुझे छुआ, बाबूजी को देखा और मुस्कुरा दीं। समझ गया कि वे प्रभावित हो गई हैं। हम एक कोने में बैठ बातें करने लगे। हमसे पूरे हफ्ते का विवरण मांगा गया। करीब 6:30 बजे बाबूजी ने कहा कि अपना सामान बांधो। तुम लोगों को गाडरवारा चलना है। वहीं आगे की पढ़ाई होगी। हमने अचकचा कर मां की तरफ देखा। वे बाबूजी के समर्थन में दिखाई दीं।

मैं बिना मां-बाबूजी के घर से बाहर रहा। सुबह से ही मैं आह्लादित था।
हृदय के किसी कोने में मां-बाबूजी को प्रभावित करने का भाव बलवती हो रहा था।
यही दिन था, जब मुझे प्रेम व प्रभाव के बीच का अंतर समझ आया।
बच्चे माता-पिता से सिर्फ प्रेम नहीं पाना चाहते ।

हमारे घर में प्रश्न पूछने की आजादी थी। छोटों को अपनी बात पहले रखने का अधिकार था। पहला सवाल मैंने दागा। बाबूजी से वापस ले जाने का कारण पूछा। उन्होंने कहा, ‘रानाजी मैं तुम्हें मात्र अच्छा विद्यार्थी नहीं, एक अच्छा व्यक्ति बनाना चाहता हूं। तुम लोगों को यहां सीखने भेजा था, पुराना भूलने नहीं। कोई नया यदि पुराने को भुला दे तो उस नए की शुभता संदेह के दायरे में आ जाती है। हमारे घर में छोटा अपने से बड़े परिजन, परिचित,अपरिचित जो भी आता है, उसके चरण स्पर्श करता है। लेकिन इस नए वातावरण ने मात्र सात दिनों में ही मेरे बच्चों को माता-पिता के ही चरण स्पर्श की जगह गुड इवनिंग कहना सिखा दिया। मैं नहीं कहता कि इस अभिवादन में सम्मान नहीं है, किंतु चरण स्पर्श करने में सम्मान होता है, यह मैं विश्वास से कह सकता हूं।

विद्या व्यक्ति को संवेदनशील बनाने के लिए होती है, संवेदनहीन बनाने के लिए नहीं। मैंने देखा तुम अपनी मां से लिपटना चाहते थे, लेकिन दूर ही खड़े रहे। विद्या दूर खड़े व्यक्ति के पास जाने का हुनर देती है न कि अपने से जुड़े को दूर करती है। आज मुझे विद्यालय और स्कूल का अंतर समझ आया। जो शिक्षा दे, वह विद्यालय, जो सिर्फ साक्षर बनाए, वह स्कूल। मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे सिर्फ साक्षर होकर डिग्रियों के बोझ से दब जाएं। मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने, उसके बोझ को हल्का करने की महारत देना चाहता हूं। मैंने तुम्हें अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए भेजा था, आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं। संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा संवेदनशील निरक्षर होना है। इसलिए बिस्तर बांधो और घर चलो।’’
 

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