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मोपला से महाराष्ट्र तक, हिंदुओं से ही किसी भी चीज का बदला क्यों लेते हैं मुसलमान ?

मृदुल त्यागी by मृदुल त्यागी
Nov 15, 2021, 11:03 am IST
in भारत, महाराष्ट्र
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मोपला और खिलाफत ने मुसलमानों को बड़ा अहम सबक दिया. मुसलमान समझ गए कि वह दुनिया में किसी भी बात का बदला लेने के नाम पर हिंसा कर सकते हैं, हिंदुओं पर जुल्म कर सकते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा.

त्रिपुरा की राजधानी है अगरतला. ये भारत का पूर्वी कोना है. ठीक पश्चिम में महाराष्ट्र का एक शहर है अमरावती. दोनों के बीच फासला है 2561 किलोमीटर। पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापने वाली पत्रिका शार्ली हेब्दो के पेरिस कार्यालय की दूरी है 6582 किलोमीटर। इन दूरियों को नापने की वजह है. वजह ये है कि त्रिपुरा में सांप्रदिक हिंसा की घटनाओं को लेकर महाराष्ट्र के अमरावती में जुमे की नमाज के बाद आग लगा दी गई. पथराव, फायरिंग, आगजनी. वो सब हुआ, जो यह देश समय-समय पर जुमे की नमाज के बाद देखता आया है. अमरावती में शुक्रवार को भड़की हिंसा के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया है. दर्जनों पुलिस अधिकारी घायल हैं. कई आईपीएस इसमें शामिल हैं. कई अन्य इलाकों में से भी हिंसा की खबरें हैं. आखिर ये कौन सी सोच है, कौन से लोग हैं, जो दुनिया में कहीं भी घटना हो, स्थानीय सड़कों पर सार्वजनिक संपत्ति और हिंदुओं के जानो-माल से बदला लेने के लिए उतर पड़ते हैं. कौन हैं ये जिन्हें कानून का खौफ नहीं. जिन्हें नहीं लगता कि दूसरे घर की लपट देखकर ये अपने घर में आग लगा रहे हैं. यही शार्ली हेब्दो के विवादित कार्टून के बाद हुआ. यही म्यांमार में जिहादियों पर सेना की कार्रवाई को लेकर हुआ. कौन हैं ये. ये वही लोग हैं, जिनकी आदत खिलाफत आंदोलन के समय से खराब कर दी गई थी.

पहले ये समझें कि आज हम किस दौर में जी रहे हैं. एक जिन्ना था, देश बंट गया. इस समय हजारों जिन्ना हमारे बीच दहाड़ रहे हैं. चुनाव के समय जिन्ना की मार्केटिंग क्यूं होती है. यानी जिन्ना की आज भी मुसलमानों के बीच अपील है. भारतीय इतिहास के इस खलनायक के नाम पर आज भी कुछ लोग वोट डालते हैं. कमाल ये कि असदुद्दीन ओवैसी कह रहे हैं कि जिन्ना भारत के बंटवारे के लिए जिम्मेदार था और सेकुलर नशे में चूर अखिलेश यादव जिन्ना को महापुरुष की तरह पूज रहे हैं. यह भी भारतीय राजनीति की ही पंथनिरपेक्षता की विडंबना है कि कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद (जो पार्षद तक का चुनाव नहीं जीत सकते) हिंदुत्व और आईएसआईएस व बोको हरम को समान बता रहे हैं. हाल ही के ये दो प्रसंग दर्शाते हैं कि मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए तथाकथित पंथनिरपेक्ष नेता या दल किसी भी हद तक जा सकते हैं. हिंदू पुनर्जागरण काल (जिसे हम राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन से मंदिर के निर्माण का काल कह सकते हैं) में यदि 85 प्रतिशत बहुसंख्यक समाज को गाली देकर, हिंदू विरोध करके यदि ये राजनीतिक दल समझते हैं कि वे सत्ता हासिल कर सकते हैं, तो ये एक सपना भर है. लेकिन इनका सपना न तो 2014 के चुनाव से टूटा, न ही 2019 के प्रचंड बहुमत वाली सरकार से. बाटला हाउस मुठभेड़ मामले में कोर्ट का फैसला आ जाने के बावजूद सलमान खुर्शीद अगर ये कहते हैं कि सोनिया गांधी द्रवित हो उठी थीं, तो यह सिर्फ उनकी मर्जी नहीं है. इसकी पुष्टि राहुल गांधी के इस बयान से भी हो जाती है कि हिंदू और हिंदुत्व में अंतर है, ये अगर एक होते तो नाम अलग क्यों होते. खैर राहुल गांधी को कोई अब इस देश में गंभीरता से नहीं लेता. फिर भी विपक्षी दल का इस तरह हिंदुत्व के खिलाफ स्टैंड लेना दर्शाता है कि पंथनिरपेक्ष राजनीति का आज भी मतलब सिर्फ मुस्लिम मतों की लूट में हिस्सेदारी बढ़ाना है.

महाराष्ट्र में मुसलमान आज जो आग लगा रहा है, इसके लिए हमें अतीत में चलना होगा. इसलिए कि इस तुष्टीकरण की नींव कांग्रेस ने ही रखी थी. ऐसा भी कह सकते हैं कि द्विराष्ट्र सिद्धांत का विचार मोहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेस की मुस्लिम परस्त नीतियों से ही हासिल किया. प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों ने तुर्की से खलीफा का शासन समाप्त कर दिया. दुनिया भर में मुसलमानों पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई. वास्तव में खलीफा खुद मुस्लिम जगत के लिए अप्रासांगिक हो चुका था. फिर भी छिट-पुट तौर पर 1919 में मुसलमान आंदोलन करने लगे. ये खिलाफत आंदोलन कहलाया. भारत में अशराफ मुसलमान (अगड़े मुस्लिम, जो अपनी जड़ें अरब में मानते हैं) के अलावा कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं थी. लेकिन कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण यानी मुसलमानों को साधने के लिए इसे हथियार बनाया. खुद महात्मा गांधी ने एक ऐसी घटना, जिसका भारत से कोई सरोकार नहीं था, उसके खिलाफ आंदोलन को समर्थन दिया. महात्मा गांधी ने हिंदुओं तक से आह्वान किया कि वे खलीफा का राज स्थापित करने में मुस्लिम भाइयों का किसी भी हद तक (यहां अहिंसा की शर्त खत्म थी) सहयोग करें. कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया. इसमें कहा गया- यह हर गैर मुस्लिम हिन्दुस्तानी का फर्ज है कि वो हर तरीके से मुस्लिम भाई की इस घोर मजहबी विपत्ति को दूर करने में सहायता करे. जहां कांग्रेस खिलाफत के समर्थन में असहयोग आंदोलन चला रही थी, वहीं मुसलमानों को पहली बार देशभर में यह अहसास हो गया कि उनका देश की राजनीति में विशेष दर्जा है. मुगल दौर के अंत और प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की साम्राज्य के पतन का बदला हिंदुओं से लिया गया.

1920 में मालाबार सुलगने लगा. मोपला (मालाबारी मुसलमान) नरसंहार यहीं से शुरू हुआ. इसके लिए केंद्रिय खिलाफत समिति ने गजब का तर्क तैयार किया. उनका कहना था कि ब्रिटिश राज में भारत दारुल हरब (काफिरों का देश) है. यहां मुस्लिम राज स्थापित करना जरूरी था. निशाना बने हिंदू. इरनाडू और वालुराना मुस्लिम सल्तनत घोषित कर दिए गए. अली मुदलयार की तोजपोशी के बाद हिंदुओं पर कहर टूटा. हजारों हिंदुओं को मार दिया गया. मंदिर नष्ट कर दिए गए. सैंकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ. पूरे इलाके के अधिकतर हिंदुओं को जबरन मुसलमान बना दिया गया. इतने बड़े नरसंहार पर महात्मा गांधी ने कहा था- हिन्दुओ में इतना साहस और आस्था होनी चाहिए कि मजहबियों द्वारा की जाने वाली गड़बड़ियों के बाबजूद वे अपने धर्म की रक्षा कर सकें. मेरा यह विश्वास है कि हिन्दुओं ने मोपला लोगों के पागलपन का बड़े धैर्य से सामना किया और पढ़ा-लिखा मुसलमान ईमानदारी से इस बात के लिए दुखी है कि मोपला लोगों ने हजरत की शिक्षाओं को गलत समझा है.

यहीं से इस देश में मुस्लिम दादागिरी और तुष्टीकरण की नींव पड़ी. मोपला और खिलाफत ने मुसलमानों को बड़ा अहम सबक दिया. मुसलमान समझ गए कि वह दुनिया में किसी भी बात का बदला लेने के नाम पर हिंसा कर सकते हैं, हिंदुओं पर जुल्म कर सकते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा. दूसरी बात ये कि हिंदू नेतृत्व और खासतौर पर कांग्रेस मुसलमानों की किसी भी हिंसा पर आंख मूंदे रहेगी. खिलाफत आंदोलन मोहम्मद अली जिन्ना के लिए भी एक सबक बना. मालाबार के इलाके में जो एक सीमित क्षेत्र में हुआ था, उसी प्रयोग को जिन्ना और मुस्लिम लीग ने 1946 में डायरेक्ट एक्शन के नाम पर पूरे देश में अंजाम दिया गया. कांग्रेस मोपला नरसंहार के समय सहमी रही और फिर डायरेक्ट एक्शन के समय भी उसने हिंदुओं को किसी तरह का नेतृत्व नहीं दिया.

भारत के विभाजन के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल ने ये सवाल उठाया, सार्वजनिक तौर पर उठाया कि बंटवारे के वास्ते मुस्लिम लीग का साथ देने वाले मुसलमानों का एक बड़ा तबका भारत में ही क्यों रह गया. उनकी इस चिंता में भविष्य के संकेत छिपे थे. सरदार पटेल ने आजादी के आंदोलन के दौरान मुसलमानों के नेतृत्व की गुंडागर्दी देखी थी. उनकी आशंका सही साबित हुई. आजादी के बाद संविधान निर्माण सभा के दौरान ही मुसलमान प्रतिनिधि विशेषाधिकारों की मांग उठाने लगे. इतिहास साक्षी है कि कदम दर कदम कांग्रेस ने उसी तरह से मुस्लिम तुष्टीकरण को हवा दी, जैसे वह आजादी से पहले करती आई थी. 2006 में फ्रांस की पत्रिका शार्ली हेब्दो ने पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापा. इसके खिलाफ भारत में प्रदर्शनों के दौरान वही नजारा था, जो आज महाराष्ट्र में अमरावती व अन्य इलाकों में है. तब डेनिश कार्टूनिस्ट का सिर कलम करने के लिए भारत में फतवे जारी हुए थे. मुसलमानों की भीड़ ने हिंसा, आगजनी और तोड़-फोड़ की थी. 2020 में जब शार्ली हेब्दो ने एक बार फिर यही कार्टून छापा तो भारतीय मुसलमानों को बहाना मिल गया. याकूब मेमन की फांसी के समय मुंबई की सड़कों पर हिंसा का नंगा नाच हुआ. शहीद स्मारक तक ध्वस्त कर दिया गया. याकूब मेमन मुंबई बम कांड का अभियुक्त था. आप सोचिए कि किसी भी वैश्विक घटना या आतंकी को फांसी का विरोध भारत के मुसलमानों का एक वर्ग सड़क पर अराजकता फैलाकर करता है. म्यांमार में आंतरिक हिंसा के बाद रोहिंग्या मुसलमानों की सहानुभूति में भारत की सड़कों पर मुसलमानों ने उपद्रव मचाया. नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लागू होने के बाद, जबकि इसमें स्थानीय मुसलमानों के हितों के खिलाफ कुछ नहीं था, देश भर में सड़कों पर हिंसा हुई. अब त्रिपुरा में मस्जिदों पर हमले की अफवाह के खिलाफ फिर से सड़कों पर हिंसा हो रही है.

ये बिल्कुल ठीक वैसा ही है, जैसे बाबरी ढांचे को कारसेवकों द्वारा ध्वस्त करने के बाद बांग्लादेश और पाकिस्तान में सैंकड़ों मंदिरों को क्षति पहुंचाई गई. असल में ये दीनी भाईचारा है. इस्लाम के मूल में सिर्फ एक चीज है. वह है दारूल हरब. यानी इस्लाम का शासन. यहां राष्ट्र, राष्ट्रभाव और राष्ट्रभक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है. दुनिया के किसी भी कोने में बसा मुसलमान किसी भी मुस्लिम के लिए अपने पड़ोसी हिंदू (इस्लामिक अर्थ में काफिर) से पहले है. सड़कों पर होने वाली इस्लामिक हिंसा असल में दारूल हरब के खिलाफ मुसलमानों का आंदोलन है. यह मोपला नरसंहार के बाद मुसलमानों के दिमाग में गहरे तक बैठ चुका है कि वह जब चाहें इस देश की सड़कों पर उतरकर कुछ भी करेंगे. और इस देश की तथाकथित पंथनिरपेक्ष राजनीति उनकी मिन्नत ही करेगी. इसके साथ ही एक सवाल भी है कि मौजूदा समय में इस तरह के उपद्रव के लिए इन मुसलमानों को पश्चिम बंगाल, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे ही राज्य क्यों मिलते हैं. यह हिंसा महाराष्ट्र से सटे गुजरात या कर्नाटक में क्यों नहीं फैलती. क्यों नहीं उत्तर प्रदेश में सड़कों पर ये गुंडागर्दी होती है.  

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