मानसिक दासता से मुक्ति का प्रश्न
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मानसिक दासता से मुक्ति का प्रश्न

by WEB DESK
Nov 9, 2021, 10:31 pm IST
in भारत, उत्तराखंड
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सरदार उधम सिंह पर बनी फिल्म को आस्कर के लिए भेजने के लिए बनी सूची से बाहर कर दिया गया है। ज्यूरी ने इसके पीछे फिल्म में अंग्रेजों के प्रति नफरत दर्शाने का तर्क दिया है। क्या यह फिल्म फेडरेशन आॅफ इंडिया की मानसिक दासता नहीं है। स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे देश में ऐसी मानसिकताओं के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए

 

पीयूष द्विवेदी

अंग्रेजों की पराधीनता से हम 1947 में मुक्त हो गए थे, जिसके अगले वर्ष साढ़े सात दशक पूरे होने वाले हैं। लेकिन स्वतंत्रता के इस लंबे कालखण्ड के बीतने के बाद भी कभी अंग्रेजी के वर्चस्व तो कभी अंग्रेजी संस्कृति के अंधानुकरण के रूप में यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि अंग्रेजी हुकूमत की भौतिक दासता से मुक्ति के इतने वर्ष बाद भी क्या हम उनके द्वारा थोपी गई मानसिक दासता से मुक्त नहीं हो पाए हैं? हाल ही में हुई एक घटना ने इस प्रश्न को पुन: प्रासंगिक बना दिया है।

दरअसल देश के महान सपूत बलिदानी उधम सिंह पर सरदार उधम नाम से एक फिल्म आई है। इसमें उधम सिंह के जीवन तथा जलियांवाला बाग नरसंहार के अपराधी जनरल डायर से बदला लेने की पूरी घटना दिखाई गई है। इस फिल्म को दर्शकों और समीक्षकों, दोनों से बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला है। फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया द्वारा इस फिल्म को आस्कर में भेजने के लिए शार्टलिस्ट की गई भारतीय फिल्मों में भी शामिल किया गया था, लेकिन बाद में बाहर कर दिया गया।

खबरों की मानें तो इस फिल्म को बाहर करने के संबंध में ज्यूरी ने कहा है कि, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक गुमनाम नायक पर एक भव्य फिल्म बनाने का यह एक ईमानदार प्रयास है। लेकिन इस प्रक्रिया में, यह फिर से अंग्रेजों के प्रति हमारी नफरत को प्रदर्शित करता है। वैश्वीकरण के युग में, इस नफरत को फिर इस तरह से दिखाना उचित नहीं है। ज्यूरी के बयान के बाद से ही सोशल मीडिया पर इसका विरोध किया जा रहा है।

 

देश के महान सपूत बलिदानी उधम सिंह पर सरदार उधम नाम से एक फिल्म आई है। इसमें उधम सिंह के जीवन तथा जलियांवाला बाग नरसंहार के अपराधी जनरल डायर से बदला लेने की पूरी घटना दिखाई गई है। इस फिल्म को दर्शकों और समीक्षकों, दोनों से बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला है। फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया द्वारा इस फिल्म को आस्कर में भेजने के लिए शार्टलिस्ट की गई भारतीय फिल्मों में भी शामिल किया गया था, लेकिन बाद में बाहर कर दिया गया।

किसी फिल्म को आस्कर में भेजना न भेजना, फिल्म फेडरेशन आफ इण्डिया का विषय है, लेकिन उधम सिंह पर बनी फिल्म को आस्कर में न भेजने के लिए ज्यूरी के तर्क के हिसाब से चलें, तब तो भारत को अपने स्वाधीनता आंदोलन के पूरे इतिहास को खत्म देना चाहिए ताकि वैश्वीकरण के इस युग में अंग्रेजों के प्रति नफरत से बचा जा सके। इतिहास को सच्चाई के साथ सामने रख देना, नफरत दर्शाना नहीं होता। ब्रिटेन ने इतिहास में जो किया है, वह उससे पीछा नहीं छुड़ा सकता। वैश्वीकरण के इस दौर में इतिहास के अपने अपराधों को स्वीकारना व उनका प्रायश्चित करना ब्रिटेन की विवशता है। इसके लिए भारत को अंग्रेजों से नफरत प्रदर्शित करने से बचने के नाम पर अपना इतिहास भुलाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

दूसरी चीज यह कि यदि फिल्म फेडरेशन आफ इण्डिया ज्यूरी सदस्यों के अंग्रेजों से नफरत के तर्क से चलें तब तो रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी को कोई आस्कर नहीं मिलना चाहिए था, क्योंकि इस फिल्म में भी अंग्रेजी शासन के दमन व शोषण को दिखाया ही गया था, लेकिन इस फिल्म ने आधा दर्जन से अधिक आस्कर अवार्ड अपने नाम किए। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म द पैट्रियट भी, जिसमें ब्रिटेन का जमकर विरोध किया गया था, आॅस्कर की तीन श्रेणियों में नामित हुई थी।आशय यह है कि अंग्रेजों का विरोध होने से कोई फिल्म आस्कर में भेजे जाने के लिए अयोग्य नहीं हो जाती।

इसमें संदेह नहीं कि सरदार उधम आस्कर में भेजे जाने लायक फिल्म थी, लेकिन यदि नहीं भेजा गया तो सम्बंधित ज्यूरी को इसके लिए कुछ उचित कारण बताने चाहिए थे। अंग्रेजों से नफरत का यह तर्क न केवल अस्वीकार्य है, अपितु ज्यूरी की मानसिक दासता को ही दिखाता है। 

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