एक मतान्ध तालिबानी विचारधारा के क्रूर चेहरे को छिपाने के लिए हिन्दुत्व को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास होने जा रहा है। वह भी उन उदारवादियों द्वारा जो अपने आपको प्रगतिशील, पंथनिरपेक्ष बताते हुए नहीं अघाते
राकेश सैन
नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर चले रामायण धारावाहिक के असर को कम करने के लिए लिबरलों ने पूरी दुनिया में ‘मैनी रामायंस’, ‘थ्री हण्डरेड रामायंस’ शोधग्रन्थों पर आधारित कार्यक्रम चला हिन्दुत्व को बदनाम करने का प्रयास किया था। अब उसी तर्ज पर अफगानिस्तान में कट्टर इस्लाम का चेहरा बन कर पुनर्जीवित हुए तालिबानियों को कवर फायर देने व उनके दुष्कर्मों से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए लिबरल बिरादरी ने हिन्दुत्व को कटघरे में खड़ा का प्रयास किया है। इन लिबरलों द्वारा 10 से 12 सितम्बर, 2021 को ‘वैश्विक हिन्दुत्व का विघटन’ (डिस्मेण्टलिंग ग्लोबल हिन्दुत्व), विषय पर एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है।इस सम्मेलन का आयोजन करने के लिए संसार के 40 से अधिक विश्वविद्यालयों ने पहल की है। इनमें अमेरिका के प्रिंसटन, स्टैनफोर्ड, सिएटल, बोस्टन आदि विश्वविद्यालय सम्मिलित हैं। इनके आयोजकों के नाम जानने पर स्वत: ही पता चल जाता है कि ये सब किस कबीले के लोग हैं। विगत कुछ वर्षों में विश्व स्तर पर हिन्दुत्व की विचारधारा से बड़ी संख्या में लोग आकर्षित हो रहे हैं। इसे चुनौती देने के लिए हिन्दू विरोधियों द्वारा इस प्रकार के सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। विदेशों से हो रहा यह वैचारिक आक्रमण न केवल हिन्दू धर्म के विरुद्ध है, अपितु भारत के विरुद्ध भी है। जिससे सावधान रहने की आवश्यकता है।
इस समारोह के आयोजकों में पहला नाम है फिल्म निर्माता आनन्द पटवर्धन का जो हिन्दू विरोध के लिए कुख्यात हैं। 1992 में इन दी नेम आफ गॉड (राम के नाम पर) डाक्यूमेंटरी में ये राममन्दिर आन्दोलन का प्रखरता से विरोध कर चुके हैं। इसी तरह अन्य आयोजक आयशा किदवई जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और धुर वामपंथी विषाक्त चाशनी से सनी हैं। जेएनयू में लगे भारत विरोधी नारों के प्रकरण के बाद वह इसके मुख्य आरोपी कन्हैया कुमार के समर्थन में आन्दोलन कर चुकी हैं। कविता कृष्णन अतिवादी वाम दल कम्युनिस्ट पार्टी आफ इण्डिया (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) की सदस्या व अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन की सचिव हैं। समारोह से जुड़े राजस्थान स्थित दलितवादी नेता भंवर मेघवंशी की योग्यता केवल इतनी है कि वे हर साल मनुस्मृति जलाने का पराक्रम करते हैं। मोहम्मद जुनैद पाकिस्तान के युवा क्रिकेटर हैं। नन्दिनी सुन्दर छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की समर्थक मानी जाती हैं और नेहा दीक्षित वामपंथी विचारधारा की कथित पत्रकार हैं। समारोह की आयोजन समिति से जुड़े अन्य लोगों का परिचय भी न्यूनाधिक इन्ही गुणों से मिलता—जुलता है। यह वही मंडली है, जो समय-समय पर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय आयोजनों में शामिल होकर भारत, हिन्दुत्व, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और नरेन्द्र मोदी सहित राष्ट्रीय विचारों से जुड़े लोगों पर अर्नगल आरोप—प्रत्यारोप लगाकर अपनी दुकानें चलाए रखने के काम में लगी रहती हैं।
साल, 2014 में भारत में हुए सत्ता परिवर्तन पर टिप्पणी करते हुए एक विदेशी समाचार पत्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा था- सरकार बदलने से भारतीय जनमानस नहीं बदला, बल्कि जनमानस बदलने से ही सरकार बदली है। स्वामी विवेकानन्द जैसी महान विभूतियों की भविष्यवाणी के अनुरूप हिन्दुत्व अब संक्रमण काल से निकल कर जागरण काल में प्रवेश करने जा रहा है। देशवासियों के सम्मुख भारत माता को विश्वगुरु के पद पर देेखने की ललक तीव्र होती जा रही है, जिसे राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भी महसूस किया जा रहा है। दुनिया में योग व आयुर्वेद का बढ़ता प्रचलन, विश्व योग दिवस के आयोजन, भारत से चोरी या तस्करी हुई सांस्कृति धरोहरों की दुनिया के विभिन्न देशों द्वारा की जा रही स्वैच्छिक वापसी, सबका साथ-सबका विकास के रूप में स्थापित हो रहा भारत का वैश्विक चिन्तन आदि अनेक उदाहरण हैं, जिससे साफ संकेत मिलने लगे हैं कि दुनिया में हिन्दुत्व की चमक, धमक और खनक महसूस की जाने लगी है। दूसरी ओर तालिबान के पुनर्जन्म से मजहबी आतंकवाद का चेहरा पूरी तरह बेनकाब होता जा रहा है। उक्त कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दुत्व की उज्ज्वल मुखाकृति को अधिक विभत्स बता कर इसी मजहबी आतंकवाद के चेहरे को बचाने का प्रयास होने वाला है।
हिन्दुत्व पर उक्त आक्रमण को राष्ट्र के रूप में भारत पर हमले के रूप में भी देखा जा सकता है, क्योंकि देश का सर्वोच्च न्यायालय हिन्दुत्व को देश का जीवन दर्शन बता चुका है। वस्तुत: हिन्दुत्व का पूरा दर्शन ही सह-अस्तित्ववादिता पर केन्द्रित है। उदार समझा जाने वाला पश्चिमी जगत प्रगति के अपने सभी दावों के बावजूद अब तक केवल सहिष्णुता की स्थिति तक ही पहुंच सका है। सहिष्णुता में विवशता परिलक्षित होती है। वहीं सह-अस्तित्ववाद में सहज स्वीकार्यता का भाव है। हिन्दुत्व जड़-चेतन सभी में एक ही विराट सत्ता का पवित्र प्रकाश देखता है। वह प्राणी-मात्र के कल्याण की कामना करता है। जय है तो धर्म की, क्षय है तो अधर्म की। यहां संघर्ष के स्थान पर सहयोग और सामंजस्य पर बल दिया गया है। हिन्दुत्व ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा में विश्वास रखता है। यह अन्धी एवं अन्तहीन प्रतिस्पर्धा नहीं, संवाद, सहयोग और सामंजस्य पर बल देता है। यह संकीर्ण, आक्रामक और विस्तारवादी नहीं, अपितु सर्वसमावेशी विचारधारा है। इसमें श्रेष्ठता का दम्भ नहीं, जीवन-जगत-प्रकृति-मातृभूमि के प्रति कृतज्ञता की भावना है। यह समन्वयवादी है। यह सभी मत-पन्थ-प्रान्त, भाषा-भाषियों को साथ लेकर चलता है। यह एकरूपता नहीं, विविधता का पोषक है। यह एकरस नहीं, समरस एवं सन्तुलित जीवन-दृष्टि में विश्वास रखता है।
इन लिबरलों की भांति भारत के मर्म और मन को पहचान पाने में असमर्थ विचारधाराओं ने ही सार्वजनिक विमर्श में हिन्दू, हिन्दुत्व, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयत्व जैसे विचारों एवं शब्दों को वर्जति और अस्पृश्य माना। जो चिन्तक भारत को भारत की दृष्टि से देखते, समझते और जानते रहे हैं, उन्हें न तो इन शब्दों से कोई आपत्ति है, न इनके कथित उभार से। बल्कि हिन्दू-दर्शन, हिन्दू-चिन्तन, हिन्दू जीवन सबके लिए आश्वस्तकारी है। यहां सब प्रकार की कट्टरता और आक्रामकता पूर्णत: निषेध है। हिन्दुत्व में सामूहिक मतों-मान्यताओंं के साथ-साथ व्यक्ति-स्वातंत्र्य एवं सर्वथा भिन्न-मौलिक-अनुभूत सत्य के लिए भी पर्याप्त स्थान है।
हिन्दुत्व की उदारता का उदाहरण है सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय। शास्त्री यज्ञपुरष दास जी और अन्य विरुद्ध मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य (1966 (3) एससआर 242) के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर ने अपने निर्णय में लिखा- जब हम हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में सोचते हैं तो हमें हिन्दू धर्म को परिभाषित करने में कठिनाई अनुभव होती है। विश्व के अन्य मजहबों के विपरीत हिन्दू धर्म किसी एक दूत को नहीं मानता। किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता। किसी एक मत का अनुयायी नहीं है। वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता। यह किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्धति या रीति-नीति को नहीं मानता। वह किसी मजहब या सम्प्रदाय की सन्तुष्टि नहीं करता है। बृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।
इसी तरह रमेश यशवन्त प्रभु विरुद्ध प्रभाकर कुन्टे (एआईआर 1996 एससी 1113) प्रकरण में उच्चतम न्यायालय को विचार करना था कि चुनावों के दौरान मतदाताओं से हिन्दुत्व के नाम पर वोट मांगना क्या मजहबी भ्रष्ट आचरण है। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुए अपने निर्णय में कहा- हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दुइज्म को संक्षिप्त अर्थों में परिभाषित कर किन्हीं मजहबी संकीर्ण सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है। इसे भारतीय संस्कृति और परम्परा से अलग नहीं किया जा सकता। यह दर्शाता है कि हिन्दुत्व शब्द इस उपमहाद्वीप के लोगों की जीवन पद्धति से सम्बन्धित है। इसे कट्टरपन्थी मजहबी संकीर्णता के समान नहीं कहा जा सकता। साधारणतया हिन्दुत्व को एक जीवन पद्धति और मानव मन की दशा से ही समझा जा सकता है।
दूसरी ओर अन्तर्राष्ट्रीय विचारक व विद्वान वेबस्टर के अंग्रेजी भाषा के तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय शब्दकोष के विस्तृत संकलन में हिन्दुत्व का अर्थ करते हुए कहा गया है कि- यह सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विश्वास और दृष्टिकोण का जटिल मिश्रण है। यह भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुआ। यह जातीयता पर आधारित, मानवता पर विश्वास करता है। यह एक विचार है जो कि हर प्रकार के विश्वासों पर विश्वास करता है तथा धर्म, कर्म, अहिंसा, संस्कार व मोक्ष को मानता है और उनका पालन करता है। यह ज्ञान का रास्ता है, स्नेह का रास्ता है, जो पुनर्जन्म पर विश्वास करता है। यह एक जीवन पद्धति है जो हिन्दू की विचारधारा है।
अंग्रेजी लेखक केरीब्राउन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द इसेन्शियल टीचिंग्स ऑफ हिन्दुइज्म’ में लिखा है कि- आज हम जिस संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में जानते हैं और जिसे भारतीय सनातन धर्म या शाश्वत नियम कहते हैं वह उस मजहब से बड़ा सिद्धान्त है जिस मजहब को पश्चिम के लोग समझते हैं। कोई किसी भगवान में विश्वास करे या किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करे फिर भी वह हिन्दू है। यह एक जीवन पद्धति है, यह मस्तिष्क की एक दशा है।
कितनी दु:खद बात है कि एक मतान्ध तालिबानी विचारधारा के क्रूर चेहरे को छिपाने के लिए एक ऐसी उदार, सह-अस्तित्ववादी, सर्वसमावेशी, समरसतावादी, मानवतावादी विचार हिन्दुत्व को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास होने जा रहा है और वह भी उन उदारवादियों द्वारा जो अपने आपको प्रगतिशील, पंथनिरपेक्ष बताते हुए नहीं अघाते।
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