राजधानी दिल्ली 1947 से अब तक खूब बदली, पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन और लोधी कॉलोनी रेलवे स्टेशन का चेहरा-मोहरा कमोबेश पहले वाला ही है। इन्हें बदलते वक्त ने भी नहीं बदला।
विवेक शुक्ला
राजधानी दिल्ली 1947 से अब तक खूब बदली, पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन और लोधी कॉलोनी रेलवे स्टेशन का चेहरा-मोहरा कमोबेश पहले वाला ही है। इन्हें बदलते वक्त ने भी नहीं बदला। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हिन्दू-सिख शरणार्थियों को लेकर पहुंच रही थीं पाकिस्तान से रेलें। आने-जाने वाले सभी की आंखों में अपने घरों, गलियों, मोहल्लों, शहरों से हमेशा-हमेशा के लिए दूर हो जाने का दर्द और अनिश्चित भविष्य को लेकर चिंता का भाव था। दिल्ली आने वाले अधिकतर शरणार्थियों का इधर कोई घर-बार भी नहीं था। ये वहां से लूट-पिट कर आ रहे थे। ये सब भगवान का नाम लेकर अमृतसर तक पहुंच जाना चाहते थे। उससे पहले खतरा था। दिल्ली की तरफ आने वाली रेलों पर निर्जन स्थानों पर हमले हो रहे थे। उस सफर को कथाकार भीष्म साहनी ने विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी अपनी कालजयी कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ में जीवंत कर दिया है। ‘अमृतसर आ गया है’ में ट्रेन में बैठे एक सरदार जी सबसे पूछ रहे थे कि “पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बंबई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जा कर बस जाएंगे। किसी ने जवाब दिया था बंबई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बंबई छोड़ देने में क्या तुक है! लाहौर और गुरदासपुर के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा।”
इस बीच, आप दिल्ली के बारापुला फ्लाईओवर को पार करते हुए लोदी रोड के अंदर दाखिल होते हैं। कुछ आगे बढ़ते ही आपको छोटी सी सड़क के बायीं तरफ लोधी रोड रेलवे स्टेशन का बोर्ड दिखाई देता है। यहां रेलवे स्टेशनों के आसपास होने वाली सामान्य चहल-पहल नहीं है। ना कुली ना कोई मुसाफिर। सिर्फ उदासी।
इसका भारत के बंटवारे और दिल्ली और आसपास के शहरों के मुसलमानों से बहुत नजदीक का संबंध है। दरअसल देश के बंटवारे के बाद इसी रेलवे स्टेशन से ना जाने कितने मुसलमानों ने अपने वतन को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कहा था। कुछ सिसकियां भरते हुए रेल के डिब्बे के अंदर बैठे थे। उनके लिए यहां से चला करती थीं लाहौर के लिए ट्रेनें। पाकिस्तान के गुजरे दौर के तेज गेंदबाज सिकंदर बख्त के पिता जवां बख्त और उनके परिवार के दूसरे सदस्यों ने भी लोधी रोड रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़ी थी। जवां बख्त करोल बाग में रहते थे और कुछ समय तक सेंट स्टीफंस कॉलेज में भी पढ़े थे।
दिल्ली और लाहौर के बीच रेलें 1947 के अगस्त महीने के तीसरे हफ्ते से शुरू होकर 22 नवंबर, 1947 तक चली थीं। लोधी रोड स्टेशन से रोज दो ट्रेनें लाहौर के लिए चला करती थीं। एक सुबह 7 बजे और दूसरी दिन में 9 बजे। इनमें मुसाफिर भेड़-बकरियों की तरह ठूंस दिए जाते थे। इनमें बूढ़े-बच्चे, गर्भवती महिलाएं सब रहते थे। कुछ यात्री छतों पर सवार होते थे। यहां से उन मुसलमानों को पाकिस्तान ले जाया जा रहा था, जो पुराना किला और हुमायूं का किला के कैंपों में रह रहे थे। इनसे लोधी रोड स्टेशन पर लाला देशबंधु गुप्ता, मीर मुश्ताक अहमद, लाला रूप नारायण, चौधरी ब्रहृम प्रकाश जैसे राजधानी के जुझारू राजनीतिक कार्यकर्ता हाथ जोड़कर आग्रह भी करते थे कि वे पाकिस्तान जाने का फैसला त्याग दें। वे भारत में ही रहें। इनके समझाने के बाद कुछ लोग रेलवे स्टेशन से वापस घर भी चले जाते थे। लेकिन अधिकतर अपने सफर पर निकल जाते थे। हां, कई वहां जाकर फिर वापस आ गए थे। उनमें एक एस.एम.अब्दुल्ला भी थे। वे मशहूर लेखिका सादिया देहलवी के मामू थे। अब्दुल्ला साहब कहते थे कि वे 1948 में कराची से वापस दिल्ली आ गए थे क्योंकि उन्हें नए शहर में दिल्ली वाला मेल-मिलाप नहीं मिला था। तब सफदरजंग एयरपोर्ट से बहुत कम उड़ानें लाहौर या कराची के लिए उड़ा करती थीं। उनमें असरदार और संपन्न लोग ही पाकिस्तान जाते थे। इसलिए लगता यह है कि परवेज मुशर्रफ का परिवार भी ट्रेन से ही अपने नए देश में गया होगा।
उधर, एशिया की सबसे बड़ी रेलवे कर्मियों की कॉलोनी किशन गंज से लगभग 20 फीसद लोगों ने वाया लोधी रोड स्टेशन पाकिस्तान का रुख कर लिया था। ये सब अपने सरकारी घरों को खाली करके गए थे। किशन गंज से गए लोग फिर वापस नहीं आए। वापस आने वालों में वे मुसलमान खासतौर पर थे जिनकी दिल्ली में काफी संपत्ति थी। ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ आज के हरियाणा के कुछ शहरों के स्टेशनों जैसे सोनीपत, करनाल, अंबाला वगैरह पर कुछ पलों के लिए रुकते हुए अपनी मंजिल की तरफ बढ़ जाया करती थी। लोधी रोड स्टेशन के बाहर बोर्ड पर इसके इतिहास पर कुछ जानकारी लिख दी जाए तो कितना अच्छा रहे। पर यह काम कौन करे। ये कभी समझ नहीं आया कि लोधी रोड के मामूली से स्टेशन को इतने बड़े काम के लिए क्यों और किसने चुना। लोधी रोड स्टेशन के भीतर जाकर देखा तो टिकट खिड़की बंद थी। स्टेशन पर एक महिलाकर्मी मिलीं। इस भद्र महिला ने बताया कि इधर रोज 10-15 टिकट बिक जाते हैं। इधर सिर्फ रिंग रेलवे की गाड़ियां ही रुकती हैं। यकीन मानिए कि स्टेशन पर सिर्फ दो बंदें बैठे थे। लोधी रोड स्टेशन के पास ही खन्ना मार्केट है। उसकी अधिकतर दुकानों के मालिक पाकिस्तान से आए परिवारों के लोग हैं। एकाध ने सुन रखा था कि लोधी रोड रेलवे स्टेशन से पाकिस्तान के लिए विशेष रेलें चला करती थीं। इससे ज्यादा जानकारी किसी के पास नहीं थी। एक सज्जन ने बताया कि स्टेशन के बाहर एक साधु राम नाम का शख्स 1940 के दशक से बैठा करता था। फिर उसका पुत्र बैठने लगा। वे यहां विभाजन के दौर के मंजर को बयां कर सकते थे। पर कोविड काल के बाद बंसी का बेटा भी स्टेशन नहीं आता।
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