प्रो. भगवती प्रकाश
वैदिक वाड्मय में राष्ट्र का उन्नत विवेचन है। कहा गया है कि किसी राष्ट्र की उन्नति और समृद्धि के लिए शूद्र-वैश्य वर्ग का आधिक्य होना आवश्यक है। वेदों में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति श्रम के स्वेद से उत्पादन करने वाले के तौर पर बताई गई है
भारतीय धरोहर से साभार
वेदों एवं प्राचीन संस्कृत वाड्मय में राष्ट्र की सारगर्भित व्याख्या के साथ राज्यों के शासन, शासन विधान व नियमावलियों और राजधर्म का अत्यन्त उन्नत विवेचन है। यह विवेचन वैदिक व पौराणिक काल में प्रचलित उन्नत राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का प्रमाण है।
राष्ट्र: विश्व के अन्य भागों में आखेट प्रधान कबीलाई सभ्यता के दौर में वेदों ने राष्ट्र व राज्य शासन का पूरी परिपक्वता के साथ विवेचन किया है। वेदों में राष्ट्र चिन्तन को मानव के सार्वभौम कल्याण का आधार माना गया है। विश्व मंगल की प्रेरणा से उच्च जीवन मूल्यों के प्रसार एवं नैतिकता पूर्ण आचार-विचारों का संवाहक होने से राष्ट्र नागरिकों में तेज, ओज व बल का संचार करता है। स्वावलम्बी समाज जीवन की आधारशिला होने से मानव समाज में पारस्परिक सहकार की संस्कृति को भी बल प्रदान करता है।
यजुर्वेद में राष्ट्र की व्याख्या : ‘‘आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के प्रारंभ में जो दीक्षा लेकर तप किया, उससे राष्ट्रनिर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिए सब प्रबुद्धजन इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें।’’ राष्ट्र कहलाने की पात्रता के लिए विद्वज्जनों की विचारवान व लोकतांत्रिक सभा/ समिति/ पंचायतों आदि में सामूहिक निर्णय परंपरा के साथ आत्मरक्षार्थ समुचित बल, समाज के संरक्षण व योगक्षेम के लिए सक्षम होना भी परम आवश्यक है।
मन्त्र: आ ब्रह्मन ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्य: षरऽइशव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुवार्ढानड्वानाशु: सप्ति: पुरन्धियोर्शा जिष्णू रथेष्ठा सभेयो युवास्या यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्योनऽओषधय: पच्यन्तां योगक्षेमो न: कल्पताम।। (यजुर्वेद 22/22)
इस प्रकार ऐसा जन-समूह, जो एक सुनिश्चित भूमिखंड में रहता है, संसार में व्याप्त और इसको चलाने वाले परमात्मा अथवा प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकार करता है, बुद्धि को प्राथमिकता देता है और विद्वज्जनों का आदर करता है और जिसके पास अपने देश को बाहरी आक्रमण और आंतरिक, प्राकृतिक आपत्तियों से बचाने और सभी के योगक्षेम की क्षमता हो, वह एक राष्ट्र है।
ऋग्वेद (4/42/1) के ‘मम द्विता राष्ट्र क्षत्रियस्य’ जैसे मन्त्रों से इस भूमण्डल के दोनों गोलार्द्धों में फैले सार्वभौम राष्ट्र के संरक्षण व क्षति से उसकी रक्षा का निर्देश है। भारत वर्ष, दक्षिण पूर्व एशिया से अफगानिस्तान तक एक सर्वसमर्थ व भू-सांस्कृतिक एकता युक्त राष्ट्र रहा है। इण्डोनेशिया, मलेशिया, अफगानिस्तान आदि पर इस्लामी आक्रमणों से हुए व्यापक मतान्तरण के बाद भी, भू-सांस्कृतिक दृष्टि से आज भी यह पूरा क्षेत्र एक हिन्दू राष्ट्र जैसा ही है।
राष्ट्र व राष्ट्र की समृद्धि की सर्वोपरिता
अथर्ववेद के मंत्र 12/1/8 में सम्पूर्ण पृथ्वी का माता रूप में आह्वान कर उस माता भूमि से ही राष्ट्र के लिए बल व दीप्ति मांगी है। अग्नि पुराण 239/2 के अनुसार राजा के लिए राष्ट्र सर्वोपरि है। राजशास्त्र रचयिता कामन्दक रचित कामन्दकीय नीति सार के श्लोक 6/3 के अनुसार राज्य के सभी घटकों या अंगों का उद्भव राष्ट्र से होता है। अत: राजा को सभी प्रयत्नों को राष्ट्र की संवृद्धि के लिए समर्पित करना चाहिए। उसी में आगे स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्र की संवृद्धि व समृद्धता हेतु इसकी मिट्टी उत्तम गुण युक्त व उपजाऊ हो, जिसमें खूब अन्न उपजे, खनिजों के प्रचुर भण्डार हों, खानों व अन्य सभी पदार्थों की भरमार हो, जहां से व्यापार संचालन सम्भव हो, जो स्थान पशुपालन के लिए उपयुक्त हो, जल की प्रचुरता हो, सुसंस्कृत व सुन्दर नागरिक हों, जंगल हो, हाथियों से युक्त हो, जल व स्थल मार्ग हों और जहां केवल वर्षा जल पर ही निर्भर नहीं रहना पड़े। कामन्दक (4/50-56) ने आगे भी कहा है कि जहां जीविका के साधन सरलता से उपलब्ध हों सकें और शूद्र्र, शिल्पकार एवं व्यापारी अधिक संख्या में हों, वही राष्ट्र सम्पन्न होता है (पाण्डुरंग वामन काणे 640)। शूद्र्र व वैश्यों के प्राधान्य को कामन्दक के अतिरिक्त विष्णु धर्मसूत्र (3/5) सहित कई राज शास्त्र के रचयिताओं ने महत्व देते हुए लिखा है कि जनसंख्या में आनुपातिकता में शूद्र व वैश्य का अपेक्षाकृत अधिक संख्या में होना राष्ट्र की समृद्धि के लिए आवश्यक है।
उद्यमिता का सूत्रधार उत्पादनकर्ता शूद्र वर्ग
राज शास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में शूद्र्र, शिल्पी व कृषक वर्गों की सर्वोच्च महिमा बतलाई गई है। शूद्र वर्ग के संबंध में यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि, शब्दों के वैदिक निर्वचन में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति क्षुद्र शब्द से न होकर, अपने श्रम के स्वेद से अर्थात् अपने परिश्रम के पसीने से मूल्यवान वस्तुओं के उत्पादनकर्ता से है। शूद्र वर्ग को प्राचीन वाड्मय के अनुसार उत्पादक व उद्यमी कहा जा सकता है। अरब व यूरोपीय आक्रान्ताओं के आने के बाद जजिया लगाये जाने एवं कारीगरों के अंगूठे कटवाकर देश के उत्पादन तंत्र को चौपट किए जाने के बाद शूद्र्र वर्ग का आर्थिक पराभव हुआ है।
शूद्र शब्द का वैदिक निर्वचन
‘‘श्रमस्य स्वेदेन उत्पादनरत एव शूद्र:’’
अपने परिश्रम से मूल्यवान वस्तुओं का उत्पादनकर्ता शूद्र्र है। उस शूद्र वर्ग व शिल्पकारों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का विक्रयकर्ता होने से वैश्य वर्ग राज्य की आय या कर-राजस्व प्रदाता माने जाते रहे हैं। इसीलिए राजशास्त्रकारों ने राष्ट्र की समृद्धि का आधार शूद्र्र, कृषक व शिल्पियों को बतलाया है।
कामन्दक, कौटिल्य आदि प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताओं के अनुसार राष्ट्र समृद्ध होना चाहिए, जिसके लिए वहां समृद्धि के आधार शूद्र, शिल्पी व कृषक बड़ी संख्या में हों, जीविका के प्रचुर साधन हों एवं सुरक्षा उपादानों से परिपूर्ण होना चाहिए। यह भी लिखा है कि राष्ट्र की समृद्धि व सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि कृषक भूमि का उन्नयन करने में रुचि रखें, नागरिक करों के भुगतान में समर्थ हों, राज्य व राष्ट्र के प्रति सत्यनिष्ठ व अनुकूल एवं शत्रु के प्रति प्रतिकूल हों एवं धन-धान्य से परिपूर्ण होना चाहिए। राष्ट्र की संतुलित समृद्धि के लिए राष्ट्र के अधिक जनसंख्या वाले भागों से लोगों को लाकर, अल्प जनघनत्व वाले मण्डलों में बसा कर आर्थिक सन्तुलन लाना चाहिए। प्रत्येक ग्राम में 100-500 तक कुल बसाए जाएँ। इनमें शूद्र (उत्पादनकर्ता होने से), कृषक (भूमि उन्नयन व कृषि उपज वृद्धिकर्ता होने से) व उत्पादन कौशल युक्त शिल्पकार राष्ट्र के अन्य मण्डलों व जनपदों से आमंत्रित कर प्रचुरता में बसाये जाएं। (कौटिल्य अर्थशास्त्र 2/1)। देश के सभी मण्डल धन-धान्य, कृषि में समुन्नत व सम्पन्न हों एवं पशुओं के आहार भी प्राचुर्य से युक्त होना चाहिए।
मन्त्र: भूतपूर्वमभूतपूर्व वा जनपदं परदेशापवाहनेन व निवेशयेत। शुद्रकर्षकप्रायंकुशलतावरं पञ्चशतकुलपरं ग्रामं क्रोशद्विक्रोशसीमामन्योन्यारक्षं निवेशयेत।। कौटिल्य अर्थशास्त्र 2/1
ग्राम विस्तार एक या दो क्रोश (कोस) अर्थात् 3-5 किमी होने पर विपत्ति के समय एक ग्राम के वासी दूसरे की सहायता कर सकें। आज के समष्टि अर्थशास्त्र में जहां उद्योग, व्यापार व वाणिज्य के विकास, सकल घरेलू उत्पाद अर्थात् जीडीपी वृद्धि, रोजगार वृद्धि, राजस्व के स्रोतों का विकास, सन्तुलित क्षेत्रीय विकास आदि की चर्चा की जाती है वहीं प्राचीन राजशास्त्रों एवं वेदों में भी राष्ट्र की समृद्धि, रक्षा व्यवस्था एवं जनता के योगक्षेम पर उत्कृष्ट चिन्तन पाया जाता है। ‘योगक्षेम’ शब्द युग्म में ‘योग’ से आशय अप्राप्त की प्राप्ति और ‘क्षेम’ से आशय जो प्राप्त है, उसका रक्षण। इस प्रकार भारत में अनादि काल से राष्ट्र के समुत्कर्ष एवं प्रजा के योगक्षेम अर्थात् रोजगार, लोक कल्याण व सामाजिक सुरक्षा आदि का समुचित चिन्तन है। शूद्र कृषक व शिल्पी राष्ट्र की समृद्धि का आधार माने गए हैं।
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)
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