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मीडिया : कोरोना काल में पश्चिमी मीडिया का दुराग्रह उजागर

by WEB DESK
Jul 20, 2021, 12:44 pm IST
in दिल्ली
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डॉ. अजय खेमरिया


पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर डींगें हांकने वाला पश्चिमी मीडिया भारत के संदर्भ में कोरोना से जुड़ी रिपोर्टिंग को लेकर पक्षपाती नजर आता है। उसके रवैए में एक स्थायी नफरत झलकती है। आईआईएमसी के एक शोध के निष्कर्षों से पश्चिमी मीडिया का भारत को लेकर दुराग्रह व नफरत फिर से उजागर

कोरोना काल में पश्चिमी मीडिया में कुछ शीर्षक यूं थे…
‘भारत ने ब्राजील को पछाड़ा’
‘भारत ने इटली को पीछे छोड़ा’
‘डॉक्टरों पर थूक रहे हैं भारतीय’
‘दिल्ली बना हॉटस्पॉट’
‘भारत में मानवीय त्रासदी बना कोरोना’
‘भारत में 20 लाख मौत के आसार’
‘भारत में बहुत मुश्किल है वैक्सिनेशन की राह’
‘गंगा डू नॉट लाई, इट रिटर्न्स द बॉडी’
‘स्ट्रगलिंग टू सर्वाइव, ब्रोक रिकॉर्ड एवरी’
‘लॉकडाउन एक मानवीय त्रासदी’
इन शीर्षकों और शब्दावली को ध्यान से देखने पर आसानी से समझ आ जाता है कि विदेशी मीडिया ने भारत के मामले में कितनी जवाबदेही और निष्पक्षता के साथ अपने पत्रकारीय धर्म का निर्वहन किया!

कोरोना महामारी की दूसरी लहर तो मानो आपदा में अवसर साबित हुई विदेशी मीडिया संस्थानों के लिए। बगैर प्रामाणिकता के जिस तरह से विदेशी मीडिया में भारत को लेकर कवरेज किया गया, वह न केवल सच्चाई से परे है बल्कि जवाबदेही के किसी मानक पर भी खरा नहीं उतरता। भारत के प्रति एक स्थाई नफरत का मनोविज्ञान कोरोना की रिपोर्टिंग में साफ नजर आता है। विश्व बिरादरी में एक नई एवं सशक्त भूमिका के साथ खड़ा आज का भारत असल में औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त लोगों के मनो-मस्तिष्क को स्वीकार्य नहीं है। खासकर मोदी युग के साथ तो लेफ्ट लिबरल लॉबी भारतीय स्वत्व के अभ्युदय से बुरी तरह बौखलाई हुई है। मोदी, हिंदुत्व और भारतीय स्वत्व के विरोध में एक बड़ा वर्ग  मानो पागल-सा हो चुका है। दुर्भाग्य यह है कि विदेशी मीडिया और बुद्धिजीवी अभी भी भारत को देखने, समझने के लिए उन लेफ्ट लिबरल मस्तिष्कों को अपना स्रोत बनाए हुए हैं जो भारतीय लोकजीवन में खारिज कर दिए गए हैं। नतीजतन नए भारत और मोदी को लेकर पश्चिमी मीडिया भी गैरजिम्मेदाराना रुख बरत कर खुद को बेनकाब कर रहा है।

सर्वेक्षण से पश्चिमी मीडिया कठघरे में
सच्चाई और जवाबदेही के युग्म से पत्रकारिता के आदर्श का खम्भ ठोकने वाला पश्चिमी मीडिया स्वयं किस हद दर्जे के दोहरे मापदंड पर जिंदा है, यह कोरोना की दूसरी लहर से जुड़ी भारत सबंधी रिपोर्टों से स्वयंसिद्ध है। खास बात यह है कि अब आम भारतीय भी इस दोहरे आचरण की कड़ियों को प्रामाणिकता के धरातल पर पकड़ना सीख गया है। भारतीय जनसंचार संस्थान के एक आॅनलाइन सर्वेक्षण एवं शोध के नतीजे बताते हैं कि भारत में अधिसंख्य चेतन लोग इस बात को समझते हैं कि यूरोप, अमेरिका और अन्य देशों की मीडिया एजेंसियों ने कोरोना को लेकर अतिरंजित, गैरजिम्मेदाराना और दहशत पैदा करने वाली खबरें छापीं। इन खबरों के मूल में भारत के प्रति एक औपनिवेशिक मानसिकता को इस दरम्यान किसी दीवार पर मोटे हर्फों में लिखी इबारत की तरह पढ़ा जा सकता है। आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी की पहल पर देश के शीर्ष मीडियाजनों, बुद्धिजीवियों की राय को समाहित करता यह विश्वसनीय सर्वे समवेत रूप से विदेशी मीडिया संस्थानों खासकर बीबीसी, द इकोनॉमिस्ट, द गार्जियन, वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, सीएनएन की पक्षपातपूर्ण, झूठी रिपोर्टिंग को आमजन की दृष्टि में भी कठघरे में खड़ा करता है। कोविड 19 को लेकर भारत से जुड़ी रिपोर्ट के दुराग्रह को समझने से पहले हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि ये मीडिया संस्थान हमारे देश के प्रति एक प्रायोजित भाव के शिकार हैं, खासकर नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद। न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने लिए भारतीय संवाददाता हेतु जारी किए गए विज्ञापन में जिन अहर्ताओं का उल्लेख किया, उससे यह तथ्य स्वयंसिद्ध है कि पश्चिमी मीडिया किस दोगलेपन और सुपारी मानसिकता के साथ भारत की तस्वीर अपने प्रकाशनों के साथ दुनिया में पेश करना चाहता है।

आईआईएमसी के सर्वेक्षण और शोध-विमर्श से यह बात स्पष्ट है कि पश्चिमी जगत आज भी भारत की छवि को सांप-संपेरे, जादू-टोने वाले देश से बाहर मानने के लिए तैयार नहीं है। ’70 के दशक की तीसरी दुनिया या अल्पविकसित देशों में भारत को पिछड़ा देश माना जाता था। पश्चिमी बौद्धिक जगत आज भी वहीं खड़ा है। चंद्रयान और गगनयान जैसे विज्ञान और तकनीकी संपन्न नवाचार हों या फार्मा इंडस्ट्री में हमारी बादशाहत, पश्चिम इसे मान्यता देने को आज भी राजी नहीं है। कोरोना की पहली लहर में हमने जिस प्रामाणिकता से दुनिया के सामने मिसाल पेश की, उसका कोई सकारात्मक उल्लेख विदेशी मीडिया संस्थानों में नजर नहीं आया। इस दौर में ब्रिटेन, अमेरिका, स्पेन, इटली, जर्मनी, आॅस्ट्रेलिया जैसे धनी-मानी राष्ट्र पस्त हो चुके थे। इस नाकामी को प्रमुखता से उठाने की जगह इन मीडिया हाउस ने भारत में प्रवासी मजदूरों को पहले पन्ने पर जगह दी। जबकि डब्लूएचओ भारतीय कोविड प्रबंधन मॉडल को सराह रहा था।

दुराग्रही रवैया
हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोविड की दूसरी लहर ने भारत में अप्रत्याशित रूप से व्यापक जनहानि की परिस्थिति निर्मित की, लेकिन इस दूसरी लहर में मानो पश्चिमी मीडिया को भारत के विरुद्ध आपदा में अवसर मिल गया हो। इस दौरान बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट जैसे संस्थानों ने  अस्पतालों, श्मसानों से लेकर गंगा में जलदाह से जुड़ी अतिरंजित, डरावनी और भयादोहित करने वाली रिपोर्टें प्रकाशित कीं। इन खबरों से साबित होता है कि पश्चिमी मीडिया किस हद दर्जे की दुराग्रही, दोहरी एवं औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है। अमेरिका में जब 9/11 की आतंकी घटना हुई थी, तब न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और बीबीसी ने खून का एक कतरा भी नहीं दिखाने का निर्णय लिया था। तर्क यह दिया गया कि सच्चाई और जवाबदेही मिलकर पत्रकारिता को निष्पक्ष बनाते हैं, इसलिए मृतकों के परिजनों के प्रति जवाबदेही और समाज को भयादोहित होने से बचाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। पर भारत का मामला बनते ही यह जवाबदेही और निष्पक्षता खूंटी पर टांग दी गई। हमारे लोकजीवन में अंतिम संस्कार एक बेहद संवेदनशील मामला होता है। क्या जिन तस्वीरों को विदेशी अखबारों ने पहले पन्ने पर जलती लाशों या जलदाह के रूप में छापा, उन्हें जवाबदेही के आदर्श पर खरी कही जा सकता था?  

गैरजिम्मेदाराना और भ्रामक खबरों का जाल
आईआईएमसी का शोध बताता है कि कोविड 19 के मामले में मार्च 2020 से जून 2021 के मध्य भारत से जुड़ी करीब 700 रिपोर्ट गार्जियन, वाशिंगटन पोस्ट, बीबीसी, अलजजीरा, फॉक्स न्यूज, न्यूयॉर्क टाइम्स, द इकोनॉमिस्ट, सीएनएन जैसे संस्थानों में छपी हैं। ये सभी खबरें भारतीय समाज में भय निर्मित करने वाली, अतिरंजित, अनावश्यक आलोचना एवं जमीनी तथ्यों से परे थीं। यानी पश्चिमी मीडिया द्वारा जिस जवाबदेही और सच्चाई के युग्म की बातें अपने देशों में रिपोर्टिंग के लिए की जातीं हैं, वे भारत के मामले में खुद के ऊपर लागू नहीं की गर्इं। शरारती मानसिकता के उद्देश्य से दूसरी लहर में संक्रमितों एवं मृतकों के आंकड़े शीर्षक में सजाए गए। बीबीसी की कुल रिपोर्ट में से 98 फीसद समाज को भयादोहित और उपचार प्रविधियों से लेकर वैक्सीनेशन के प्रति समाज में भ्रम फैलाने वाली रही हैं। संक्रमितों के आंकड़े बड़ी चालाकी से बदनामी के उद्देश्य से पेश किए गए। मसलन 7 सितंबर, 2020 को बीबीसी ने शीर्षक लगाया— भारत ने ब्राजील को पछाड़ा। अब ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत की आबादी ब्राजील से छह गुना ज्यादा है। यानी हमारी कुल आबादी के तथ्य को दरकिनार कर दहशत फैलाने में बीबीसी जैसे मीडिया हाउस अग्रणी रहे। यूरोप में कुल 48 देश हैं जहां साढ़े पांच करोड़ लोग कोविड से संक्रमित हुए और अब तक करीब 11 लाख लोगों की मौत हो चुकी है। इन सभी 48 देशों की आबादी मिलाकर 75 करोड़ है। उत्तरी अमेरिका के 39 मुल्कों को मिला दिया जाए तो इन 87 देशों की सम्मिलित आबादी 134 करोड़ होती है। यानी दुनिया के 87 देशों से अधिक लोग भारत में रहते हैं, इसके वाबजूद संक्रमित और मृतकों की संख्या इन देशों से आज भी हमारे यहां कम है।
27 अप्रैल को वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा— भारत में लगातार छठवें दिन संक्रमितों का आंकड़ा तीन लाख पार।’ कुछ समय बाद बीबीसी ने लिखा— ‘भारत ने इटली को पछाड़ा।’ बीबीसी ने एक रिपोर्ट में कहा कि 20 लाख संक्रमितों के साथ भारत दुनिया में तीसरे नम्बर पर आया। इस तरह की बीसियों रिपोर्ट में बड़ी चालाकी से भारत की कुल आबादी के आधार को हटाकर उन मुल्कों से तुलना की गई जो यूपी, बिहार, मप्र जैसे राज्यों से भी छोटे हैं।

पांच राज्यों के नतीजों को अपनी दुराग्रही मानसिकता के साथ रिपोर्ट करते हुए वाशिंगटन पोस्ट ने यह खबर लगाई कि मोदी की भाजपा महामारी के वोट के बीच हार गई। यानी कोरोना और चुनावी नतीजों को एक साथ जोड़कर मोदी के विरुद्ध प्लांट कर दिया गया। वाशिंगटन पोस्ट की एक स्टोरी में इस बात का खुलासा किया गया कि भारत में गरीब आदमी अस्पतालों की लूट का शिकार हो रहा है जबकि तथ्य यह है कि सरकारी अस्पतालों में देशभर में नि:शुल्क इलाज हुआ। जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में पाया गया कि अमेरिका में वहां के नागरिकों से अस्पतालों ने 5 गुना अधिक शुल्क लिया है। लेकिन अमेरिकी मीडिया ने इसे जगह नहीं दी।

एकांगी सूचनाओं का सामान्यीकरण
87 देशों की आबादी को समेटे हुए विविधताओं से भरे भारत में किसी एक कोने की घटना को भी पश्चिमी जगत ने सामान्यीकरण की तरह पेश करने में बेशर्मी की सीमाएं लांघ दीं। बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, अलजजीरा ने कोरोना माता की पूजा की खबर और तस्वीरों को साझा किया जो देश के किसी कोने में जनजातीय लोगों द्वारा की गई थीं। कहीं गोबर शरीर पर लगाने की तस्वीरें प्रसारित की गर्इं। गंगा के तटों पर लाशों के फोटो या मुक्तिधामों पर सामूहिक संस्कारों को ऐसे दिखाया गया मानो भारत में लाशों के सिवाय कुछ भी अच्छा नहीं है। बेशक वह दु:खद और कल्पना से परे कालखंड था लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका, स्पेन, इटली, इंग्लैंड में भी इससे बुरे हालात थे। लेकिन फरवरी 2020 से जुलाई 2021 तक अगर पश्चिमी मीडिया की कोविड से जुड़ी स्थानीय खबरों को सिलसिलेवार देखा जाए तो पत्रकारिता के मूल्यों के नाम पर उसका दोगला और दोहरापन स्वयंसिद्ध है।

वैक्सीन पर सफलता से बढ़ा दुराग्रह
इन करीब 700 खबरों को गहराई से विश्लेषित किया जाए तो हम पाते हैं कि विदेशी मीडिया का यह स्थाई दुराग्रह भाव 15 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी के उस ऐलान के बाद और भी आक्रामक हो गया जिसमें उन्होंने वैक्सीन उत्पादन और वैक्सीनेशन की कार्ययोजना का खाका दुनिया के सामने रखा। यह कोविड की पहली लहर पर मोदी के परिणामोन्मुखी प्रयासों को वैश्विक अधिमान्यता का दौर भी था। इस आक्रामकता का आधार इसलिए भी बना क्योंकि तब तक यूरोप और उत्तरी अमेरिका के धनी-मानी और सर्वोत्कृष्ट स्वास्थ्य सेवा तंत्र वाले मुल्क कोरोना से हाहाकार कर रहे थे। दुर्भाग्य से दूसरी लहर में भारतीय व्यवस्था और प्रशासन तंत्र लड़खड़ाया, यह तथ्य है लेकिन यह भी समानान्तर तथ्य था कि ‘भारत संक्रमण और मौतों के मामले में जनसंख्या के पैमाने पर आज भी दुनिया में विकसित राष्ट्रों से पीछे है।’ इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भारत में प्रति लाख आबादी पर मौत का आंकड़ा 287 है, वहीं रूस में यह आंकड़ा 2021, अमेरिका में 1857, ब्रिटेन में 1899, इटली में 2025, पेरू में 5765, जर्मनी में 1012, कनाडा में 649 दर्ज किया जा रहा है। पश्चिमी मीडिया हाउस इस सांख्यिकीय सच्चाई को पूरी तरह से छिपाए हुए है।

वस्तुत: यह शोध निष्कर्ष यह साफ करता है कि आज जरूरत इस बात की है कि भारत भी पश्चिमी मीडिया के जवाब में ऐसे संस्थान खड़े करे जो इस प्रायोजित एजेंडे और प्रोपेगैंडा का उसी के अनुपात में जवाब सुनिश्चित कर सकें।
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