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संघर्ष से मिली जीत

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Jan 29, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 29 Jan 2018 12:43:10

17 दिसंबर, 2017
आवरण कथा ‘सबक सही’ से स्पष्ट हो गया कि सत्य की जीत होती ही है। अमेरिका में छठी और सातवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तकों में हिन्दू धर्म को गलत तरीके से परिभाषित करने के विरुद्ध गत एक दशक से जारी आंदोलन में विजय मिली और कैलीफोर्निया स्टेट बोर्ड आॅफ एजुकेशन पुस्तकों में बदलाव के लिए तैयार हो गया। यह सच में हिन्दुत्व की विजय है।
—आशुतोष भटनागर, लाजपत नगर(नई दिल्ली)

  जो हिंदुत्व का विरोध करते हैं उन्होंने कभी भी हिन्दुत्व के न तो मूल भाव को समझने की कोशिश की और न ही भारतीय साहित्य को पढ़ने की हिम्मत जुटाई। अधकचरी जानकारी के आधार पर हिन्दुत्व का एक ऐसा स्वरूप तैयार कर विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया जो भारत की संस्कृति और यहां के इतिहास मेल ही नहीं खाता। खैर, धीरे-धीरे इसमें बदलाव आया है और दुनिया हिन्दुत्व को समझने का प्रयास करने लगी है। कैलीफोर्निया में पुस्तकों में हुआ बदलाव यह संकेत स्पष्ट रूप से देता है।
—हरिहर सिंह चौहान, इंदौर(म.प्र.)

जीत विकास की!
‘विकास में विश्वास (10 दिसंबर, 2017)’ रपट बिल्कुल खरी उतरी। हाल ही में दोनों राज्यों के विधान सभा चुनाव में जनता ने उन तमाम मुद्दों को दरकिनार किया, जिनके बल पर कांग्रेस यहां जड़े जमाना चाहती थी। इसके लिए उनके नेताओं ने समाज तोड़ने से लेकर हर वह कार्य किया जो अराजक था। इसके बाद भी दोनों राज्यों की जनता ने समझदारी का परिचय दिया और बढ़ते भारत के साथ कदम से कदम मिलाया।
—राममोहन चंद्रवंशी, हरदा (म.प्र.)

 चुनाव प्रचार के दौरान राहुल ने कहा कि विकास पागल हो गया है। लेकिन जिस जातिवाद को उन्हें पागल कहना चाहिए,उस पर वे जनता को बांटते दिखे। इसके बावजूद उनके मंसूबे कामयाब नहीं हुए। चुनाव के दौरान उनकी पार्टी के नेता मणिशंकर अय्यर प्रधानमंत्री के विरुद्ध अपशब्द का इस्तेमाल करते दिखे। यहां उनकी निराशा और हताशा ही दिखाई दे रही थी।
              —दया वर्धनी, सिंकदराबाद (तेलंगाना)

 ‘अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो’ नीति आज भी कांग्रेस के क्रियाकलापों में दिखाई देती है। वे हिन्दू-मुस्लिम को लड़ाते-लड़ाते अब दलित-सर्वण को लड़ाने में जुट चुके हैं। कुछ  समय में   घटी घटनाएं इसकी गवाह हैं।
    —विमल नारायण खन्ना, कानपुर (उ.प्र.)

मत पूछो अब हाल
हाथों के तोते उड़े, दुखी केजरीवाल, ठंडी सांसें भर रहे, मत पूछो अब हाल।
मत पूछो अब हाल, बुद्घि का पिटा दिवाला, कीचड़ में खुद गिरे, हुआ चेहरा भी काला।
कह ‘प्रशांत’ था जनता ने सिर पर बैठाया, लेकिन भ्रष्ट हरकतों से सम्मान गिराया॥
— ‘प्रशांत’

इतिहास से खिलवाड़
यदि ‘बाजीराव मस्तानी‘ फिल्म में जिस प्रकार भंसाली ने बाजीराव पेशवा प्रथम का चरित्र-हनन करते हुए इतिहास से खिलवाड़ किया था, उसका उसी समय विरोध हो गया होता, तो शायद पद्मावती फिल्म में वैसी शरारत की कोशिश वे न करते। एक ऐसा योद्धा-सेनापति, जो अपने सभी 42 युद्धों में अपराजित रहा, ब्रिटिश फील्ड मार्शल मोंटगोमरी ने जिसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार सेनापतियों में शुमार किया, उसे मुख्य रूप से एक आशिक, एक मजनू बनाकर प्रदर्शित करना क्या सत्य की हत्या नहीं? याद रहे, केवल 19 वर्ष की आयु से बाजीराव ने अपना विजय अभियान शुरू किया था। मोंटगोमरी ने दूसरे महायुद्ध में हिटलर की फौज पर मिस्र में जो पहली जीत 1942 में दर्ज की, उसकी रणनीति उन्होंने बाजीराव की पालखेड विजय (1728) से पायी थी। पालखेड को उन्होंने ‘रणनीतिक गतिशीलता का कमाल’ बताया है। 1738 में दिल्ली पर कब्जा कर बाजीराव ने मुगल सुल्तान मो. शाह रंगीला को प्रति वर्ष 50 लाख स्वर्ण सिक्के की शर्त पर जीवित छोड़ा था। दिल्ली में इसके बाद मराठा सेना का एक दस्ता तैनात रहा। इस अद्वितीय रण-विजेता को भंसाली ने महज एक ‘इश्कबाज’ बना डाला। जब इस पर विरोध के स्वर नहीं उठे तो उन्होंने वीरांगना पद्मावती के चरित्र से खिलवाड़ का साहस जुटा लिया। उन्होंने विवाद के प्रारंभ में इस बात से इंकार किया था कि रानी और अलाउद्दीन के बीच किसी प्रेम-प्रसंग का कोई चित्रण फिल्म में है। फिर स्पष्टीकरण दिया कि एक स्वप्न-दृश्य है। इस बात से लोगों का भड़कना स्वाभाविक था कि भंसाली स्वयं विवाद पैदा करके फिल्म को फायदा दिलाना चाहते थे।    
    —अजय मित्तल, मेरठ (उ.प्र.)

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