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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के ‘एक मंदिर, एक श्मशान और एक कुआं’ के भेदभाव को दूर करने के आह्वान ने सामाजिक समरसता और सौहार्द के लिए एक नई कार्य दिशा दिखाई है। संघ से बाहर के बहुत से लोग भी इस पहल का स्वागत कर रहे हैं। तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस, जिन्होंने इस सुधारवादी विचार को सामाजिक बल प्रदान करने हेतु गति दी थी, उसे श्री भागवत आगे ले जा रहे हैं। वर्ष 2017 में कोयम्बटूर में संपन्न रा.स्व.संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के अवसर पर पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर एवं आर्गेनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर द्वारा उनसे बालासाहब देवरस, समरसता में उनके योगदान और आगे की दिशा के बारे में की गई बातचीत के प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं। यह साक्षात्कार पाञ्चजन्य के 2 अप्रैल 2017 के अंक में प्रकाशित हुआ था
समरसता संघ के स्वभाव में 1925 से ही रही है। आगे चलकर इस आग्रह के पीछे बालासाहब देवरस बड़ी प्रेरणा रहे। उनके योगदान को आप कैसे देखते हैं?
हिन्दू संगठन समरसता के बिना असंभव ही है और इसलिए संपूर्ण हिन्दू समाज को एक करने के लिए उसकी दृष्टि भेदविहीन होनी आवश्यक है। इसलिए समरसता की दृष्टि संघ के स्वभाव में ही है। परंतु संघ की शक्ति क्रमश: बढ़ी है। संघ में तो संघ के जन्म से ही यह व्यवहार है, परंतु बालासाहब जब सरसंघचालक बने, उस समय समाज द्वारा संघ से कुछ सुनने और कुछ मात्रा में उस पर विचार करने और प्रयोग करने की स्थिति भी बन रही थी। आज संघ की बात समाज सोचेगा, करेगा, इसका परिमाण बहुत बड़ा है, तब उतना बड़ा नहीं था, लेकिन इसका प्रारंभ हो चुका था। संघ का यह समतामूलक, समरसतामूलक दृष्टिकोण समाज के लिए भी आवश्यक है। यह (दृष्टिकोण) समाज में भी जाना चाहिए। इस दृष्टि से सरसंघचालक बनते ही बालासाहब ने विषय रखा कि अब संघ का मुख्य ध्येय सामाजिक समरसता है। इसकी स्पष्टता स्वयंसेवकों और समाज में भी हो, इसलिए बालासाहब ने बहुत सोच-समझकर वसंत व्याख्यानमाला का भाषण कुछ महीनों तक तैयारी के बाद दिया। संघ का इसके बारे में विचार, व्यवहार तो पहले से था, लेकिन पीछे जो विचार प्रक्रिया थी, वह स्वयंसेवकों को भी स्पष्ट हो गई और समाज में भी एक संदेश गया।
वसंत व्याख्यानमाला में बालासाहब के ऐतिहासिक उद्बोधन के बाद संघ कार्य में कौन से नए आयाम जुड़े?
समाज के साथ जब कार्य शुरू हुआ तो स्वाभाविक रूप से अनेक बातों में नए आयाम जुड़े। समाज के इस भेदभाव के शिकार वर्ग की समस्याएं क्या हैं? उनका मन क्या है? और जो समाज में एक खाई उत्पन्न हुई है, उसके बारे में, उसे पाटने के उपाय क्या होने चाहिए, इस बारे में चिंतन शुरू हुआ। उसमें से सामाजिक समरसता मंच जैसी गतिविधि शुरू हुई। विशेषकर जो वर्ग हिन्दू समाज, हिन्दू वगैरह बातों से दूर रहने की मानसिकता में था, उसके साथ संपर्क करना, उसको समझाना-बुझाना, उसको शाखाओं में लाना, इसके प्रयत्न ज्यादा बड़े हो गए। इसके फलस्वरूप ऐसे वर्गों के आत्मसम्मान का जो संघर्ष था, उसमें हिन्दू संगठन करने वालों की धारा का बल भी कहीं-कहीं जुड़ने लगा।
सामाजिक विभेदों को दूर करने के लिए क्या और उपाय होने चाहिए?
एक सदा के लिए चलने वाला उपाय है कि अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, आजीविका के और सामाजिक आचरण में, सभी भेदभावों को नकारते हुए उचित भूमिकाएं लेना। प्रत्यक्ष व्यवहार की बातों के लिए अपनी आदत बदलना। जैसे अनेक भाषाओं में जातिवाचक मुहावरे हैं। भेदभाव का जो युग था, उसमें तथाकथित ऐसी जातियों, जिनको पिछड़ा कहा जाता था, अस्पृश्य कहते थे, ऐसी जातियों को जरा छोटा स्थान देने वाली कहावतें, मुहावरे हैं। हम उनका उपयोग करते हैं, तो उसके पीछे निहित द्वेषभाव चाहे नहीं लाते हैं, परंतु शब्द तो अस्तित्व में हैं और जो भेदभाव के शिकार हुए हैं, उनके हृदय में ये घर कर गए हैं। हमको ऐसी आदतें बदलनी पड़ेंगी। मन और विचार से सहमत होने के बावजूद शरीर की आदत हो जाती है, वह बदलनी होगी। बोलने की आदत बदलनी पड़ेगी। हमारा व्यवहार पुरानी विषमता को त्यागकर समतायुक्त हुआ कि नहीं, लोग इसकी परीक्षा करेंगे। खासकर वे लोग इसकी परीक्षा करेंगे, जिनको हमको जोड़ना है, जिन अपनों को फिर से अपना बनाना है। सहज व्यवहार में भी अपने आप को परिष्कृत बनाकर प्रयोग करना होगा। दूसरा, सार्वजनिक जीवन में ऐसे प्रश्न आते हैं। अंतरजातीय विवाह होता है, विरोध भी खड़ा होता है। संघ के स्वयंसेवक उसके समर्थन में खड़े दिखने चाहिए। होना भी चाहिए और सामान्यत: ऐसा है भी। यदि कोई अंतरजातीय विवाहों के संदर्भ में सर्वेक्षण करे तो सबसे ज्यादा स्वयंसेवक ही मिलेंगे। संघ के स्वयंसेवकों की इस प्रकार की भूमिका सार्वजनिक रूप से होनी चाहिए। स्वयंसेवक को किसी तात्कालिक भावनाओं मेें न बहते हुए, अहंकार में, इधर-उधर की चपेट में नहीं आना चाहिए। संघ के स्वयंसेवक समाज की एकात्मता, अखण्डता, समरसता को ध्यान में रखकर भूमिका तय करें और उसका निर्भय रूप से निर्वहन करें, इसकी आवश्यकता है।
समरसता की राह में कठिनाइयां क्या हैं?
सबसे बड़ी जरूरत आदत बदलने की है। 2000 वर्षों से हम जो कर रहे हैं, उसमें कई बातों में धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा है। अपनी पुरानी बातों का मोह यदि छोड़कर नहीं जाता, तो उस मोह को तोड़कर, सत्य के साथ खड़ा होना पड़ेगा। बालासाहब ने सिरे से कह दिया-जड़-मूल से खत्म (छङ्मू‘, २३ङ्मू‘ ंल्ल िुं११ी’)। भेदभाव का विषय ऐसे सामने आता है कि ‘प्राचीन ब्राह्मण व्यवस्था ने मुझ पर अन्याय किया। वे स्वार्थी लोग थे, अहंकारी लोग थे।’ पहली प्रतिक्रिया में पूर्वजों का बचाव करना स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। वह कह रहा है भेदभाव के निषेध की बात, उसके मन में हजारों वर्ष से चिढ़ है। चिढ़ को अनदेखा कीजिए। उसकी समता की बात का समर्थन कीजिए। क्योंकि अगर पूर्वज और परंपरा श्रेष्ठ है तो किसी के कहने से कोई आंच आने वाली नहीं है। अन्याय हो रहा है, उसका तो विरोध करना ही पड़ेगा।
सामाजिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में संघ की भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
संघ की सबसे मूलगामी योजना प्रत्यक्ष व्यवहार के आधार पर सबको जोड़ना है। बाहर की परिस्थिति कुछ भी हो, समाज के सब वर्गों के लोग आपस में मित्र बनें। और जैसे एक वर्ग के लोगों में जो मित्र बनते हैं, फिर उनके परिवार भी मित्र बनते हैं, आना-जाना शुरू होता है, पारिवारिक आत्मीयता का व्यवहार होता है, उसी तरीके से सभी वर्गों के परिवार आपस में मिलते-जुलते रहें। जहां-जहां इस प्रकार का व्यवहार होता हो, ‘रोटी व्यवहार-बेटी व्यवहार’ तक में समता लाने का प्रयास होता हो, वहां-वहां अपना हाथ लगे, मदद हो, उसको बल मिले, उसकी विजय हो। यह हमारा कार्य है। अन्यायग्रस्तों का अन्याय जल्द से जल्द दूर हो। अपने व्यवहार के इस उदाहरण का समाज भी अनुकरण करे, इस उद्देश्य से समाज से बातचीत हो। इसलिए सर्वे करो, दुनिया के लोगों को बताओ कि यह ठीक नहीं है।
50 वर्ष पहले जब दीनदयाल जी ने एकात्म मानवदर्शन का विचार दिया था तब समाजवाद शब्द का बोलबाला था। आज वैश्वीकरण का बोलबाला है। तो संदर्भ कितने बदले हैं और पुनर्व्याख्या कहां तक हुई है?
इन बातों का संदर्भ एक नहीं है। लेकिन मूल बात है विचारों के पीछे की प्रामाणिकता। समाजवाद की प्रामाणिकता, जो रूस में समाजवादी शासक आने के बाद कम होती गई, ऐसे ही पूंजीवाद की बात है। वे लोग शोषण करते हैं जिन्हें अपनी सुविधा की बात लेकर चलना है। जैसा बोलते हैं, वैसा करने वाले उदाहरण कम हैं। आज रूस में समाजवाद और अमेरिका में पूंजीवाद किन्हीं आदर्शों पर चलता दिखाई नहीं दे रहा। दोनों में ही स्वार्थ मुख्य बात है। आज के संदर्भ में मुझे तो कोई विचारधाराओं की लड़ाई नहीं दिखती। अपने तत्वों पर प्रामाणिकता से चलने वाले लोग और उन तत्वों का उपयोग कर अपना उल्लू सीधा करने वाले, ये दो प्रकार के लोग हैं। यही दो पक्ष दुनिया में आज प्रबल हैं और सर्वत्र प्रभावी हैं। अपने यहां और सारी दुनिया में ऐसा ही है।
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