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समाज बांटने की नक्सली साजिश

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Jan 15, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Jan 2018 11:11:10

राजनीतिक एजेंडे पर समाज को बांटने की खतरनाक साजिश को बेनकाब करना वक्त की मांग

डॉ. गोविंद कल्याणकर

लोकतंत्र  को नकारते हुए राजनीतिक फायदे के लिए एक नव नक्सलवाद का खतरनाक खेल शुरू हुआ है। सत्ता के बाहर बैठे बेचैन कांग्रेसी, हिंदुत्व के प्रति बढ़ते समर्थन से बौखलाए साम्यवादी, भारत में कन्वर्जन में शामिल विदेशी ताकतें हैं।  कोरेगांव-भीमा के संघर्ष के बाद सामने आए तथ्य इसी ओर इशारा कर रहे हैं। महाराष्ट्र को झुलसाने का खतरनाक खेल जिस तरीके के खेला गया उसे देखते हुए अब और सतर्क रहने की जरूरत है।
कोरेगांव-भीमा घटना से दो दिन पहले पुणे में एक यलगार परिषद का आयोजन शनिवार वाडा पर किया गया था। इसका आयोजक था कबीर कला मंच! मंच के शीतल साठे, माले जैसे कार्यकर्ताओं को कई साल पहले नक्सलवादियों से जुड़े होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। कई दिनों से यह गुट कला के नाम पर समाज को माओवादी सोच की तरफ ले जाने में जुटा है। यलगार परिषद में गुजरात में भाजपा के विरुद्ध दुष्प्रचार में लगे जिग्नेश मेवानी, प्रकाश आंबेडकर थे, जेएनयू में ‘भारत तेरे टुकडेÞ होंगे’ नारे लगाने का आरोपी उमर खालिद, मराठाओं को हिंदू धर्म से अलग करने में जुटे गुट के बी. जी. कोलसे पाटिल और रोहित वेमुला की मां जैसे लोग थे।
जिग्नेश मेवानी, हर्षद पटेल और अल्पेश मेहता गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ थे। इनकी सहभागिता से प्रधानमंत्री मोदी को पराजित करने का सपना राहुल गांधी देख रहे थे। उन्हें वहां मुंह की खानी पड़ी, अब महाराष्ट्र में यही कोशिश हो रही है। क्या इसी हेतु कोरेगांव-भीमा का षड्यंत्र रचा गया और उसे अंजाम दिया गया? कबीर कला मंच द्वारा यलगार परिषद का आयोजन करना और उस परिषद में जिग्नेश मेवानी का भडकाऊ भाषण इसी ओर इशारा करता है। कोरेगांव में 1818 में जो लड़ाई हुई थी वह तो अंग्रेज और तत्कालीन हिंदवी स्वराज्य की सेना में हुई थी। लेकिन अंग्रेजों ने इस युद्ध का विजयस्तंभ बनाकर उस जीत को अंग्रेज सेना में सम्मिलित ‘महार सैनिकों की पेशवा पर विजय’ बताया। अंग्रेजों द्वारा फूट डालने के लिए फैलाए इस भ्रम की आड़ में यलगार परिषद का आयोजन किया गया था। वास्तव में यह युद्ध पेशवा की हार से ज्यादा भारतवर्ष की हार का प्रतीक है। यलगार परिषद को संबोधित करते हुए जिग्नेश मेवानी ने कहा, ‘हम दूसरे विधायकों के जैसे केवल विधान सभा में ही सवाल नही पूछेंगे। नव पेशवा से इस लड़ाई को अगर       हमें जीतना है, तो कोरेगांव-भीमा संघर्ष को आगे ले जाना है। एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर शासन सड़कों पर लड़ने से     खत्म होगा।’
कोरेगांव-भीमा घटना की पूर्वसंध्या पर यह भाषण क्या सड़कों पर लोकतंत्र, सामाजिक शांति को पलीता लगाने की साजिश नहीं थी? घटना होने के कुछ ही समय बाद संभाजी भिडेÞ और मिलिंद एकबोटे जैसे हिंदुत्वनिष्ठ संगठन के लोगों के नाम किस आधार पर और किसने उछाले? क्या यह भी इस षड्यंत्र का हिस्सा है? क्या यह हिंदुत्व को कटघरे में खड़ा करने की साजिश है? अगले दिन प्रकाश आंबेडकर ने महाराष्ट्र बंद का आयोजन कर सड़कों पर पत्थरबाजी करवाकर इस साजिश की दूसरी कड़ी को अंजाम दिया। प्रकाश आंबेडकर का एजेंडा मोदी सरकार में शामिल दलित नेता रामदास अठावले का समर्थन घटाकर खुद को महाराष्ट्र का सबसे बड़ा दलित नेता साबित करना है। रोहित वेमुला की आत्महत्या को राजनीतिक मुद्दा बनाने में सक्रिय कम्युनिस्टों ने इस शहरी नक्सलवादी साजिश में वेमुला की मां को भी शामिल किया। एक अंग्रेजी समाचारपत्र में प्रकाश आंबेडकर का एक लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें उन्होंने महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय को वेदों के नाम पर हिंदुत्व से तोड़ने वाली बात लिखी है। औरंगाबाद में कुछ लोगों ने बौद्ध भिक्षुओं की एक रैली निकलवाकर हिंदुत्व पर कीचड़ उछालने की कोशिश की। राजनीतिक स्वार्थ के लिए समाज को बांटने का यह षड्यंत्र खतरनाक है। इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना, विचारों की लड़ाई विचारों से लड़ने के बजाय सड़कों पर हिंसा फैलाना आदि जघन्य अपराध है। जरूरत है ऐसे तत्वों का नकाब उतारकर उनका असली चेहरा समाज के सामने लाया जाए।

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