नारद: चुनावी देग पर खबरें
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नारद: चुनावी देग पर खबरें

by
Oct 2, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Oct 2017 11:56:11

आने वाले विधानसभा चुनावों और 2019 में लोकसभा चुनाव का माहौल मीडिया में बनना शुरू हो चुका है

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में छह महीने पहले मीडिया ने जो विष बेल बोई थी वो लहलहा उठी है। तब उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले थे। दिल्ली से गए राजदीप सरदेसाई और बरखा दत्त जैसे पत्रकारों ने कहानी गढ़ी थी कि विश्वविद्यालय में छात्राओं के साथ भेदभाव हो रहा है। उन्हें छोटी पैंट पहनने, मांसाहार करने और इंटरनेट कनेक्शन से रोका जा रहा है। इंडिया टुडे समूह के चैनलों और कांग्रेस प्रायोजित वेबसाइटों ने खबर को खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया और 'शेम बीएचयू' नाम से अभियान भी चलाया। अब जब अगले चुनावों की तैयारी शुरू हो चुकी है मीडिया के पास एक पका-पकाया मुद्दा तैयार है। छेड़खानी की बढ़ती घटनाओं से नाराज छात्राओं ने जिस संघर्ष को शुरू किया उसे मीडिया की मदद से ही वो रूप दे दिया गया जिसमें न तो छात्राओं का कोई भला है, न ही संस्थान का।
इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स आॅफ इंडिया, एनडीटीवी और बीबीसी जैसे संस्थानों ने बीएचयू को लेकर फर्जी खबरों की भरमार कर दी। इंडियन एक्सप्रेस ने छात्राओं से भेदभाव की वो कहानियां छापी, जो छह महीने पहले झूठी साबित हो चुकी हैं। टाइम्स आॅफ इंडिया ने विश्वविद्यालय परिसर के बाहर सैर-सपाटे को छेड़खानी से जोड़कर हर छात्र-छात्रा को कलंकित करने की कोशिश की। बीबीसी की हिंदी वेबसाइट के वामपंथी पत्रकारों ने बताया कि बीएचयू में मुसलमानों के लिए पढ़ना बहुत मुश्किल है। एनडीटीवी तो अपने चिर-परिचित अंदाज में था। खुद बीएचयू की एक छात्रा ने फेसबुक पर बताया कि एनडीटीवी की टीम अपने साथ 5 लड़कियों को लेकर आई थी। उन अनजान पांच लड़कियों ने खुद को छात्रा बताते हुए विश्वविद्यालय को खूब भला-बुरा कहा और फिर वो चैनल की टीम के साथ ही वापस चली गईं। मृणाल पांडेय जैसी वरिष्ठ पत्रकार ने एक घायल लड़की की झूठी तस्वीर फैलाई जिसे बाद में उन्हें हटाना पड़ा। कई अखबारों और चैनलों ने उत्तर प्रदेश में महिलाओं पर अपराध के दो साल पुराने आंकड़ों को दिखाकर साबित करने की कोशिश की कि इस मोर्चे पर भाजपा की सरकार नाकाम हो गई है।
जो मीडिया महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर खुद को बहुत संवेदनशील दिखाने की कोशिश करता है उसकी सच्चाई भी समय-समय पर दिखती है। हरियाणा के सोनीपत के एक निजी स्कूल की छात्रा ने अपने साथ हो रहे यौन शोषण की शिकायत प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर की। पुलिस ने जांच की और आरोपी पकड़े गए। यहां तक पूरी गोपनीयता रही। लेकिन जैसे ही मीडिया को पता चला, लगभग हर टीवी चैनल ने उस स्कूल का नाम दिखाया जहां की ये घटना थी। क्या ऐसा करने से पीड़ित की पहचान जाहिर नहीं हो जाएगी? बाकी छात्राओं पर इसका क्या असर पड़ सकता है क्या यह किसी को बताने की जरूरत होनी चाहिए? केरल की एक लड़की की कहानी सामने आई, जिसे बहला-फुसलाकर मुसलमान बनाया गया था। उस लड़की ने वापस हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया। उसने अपने साथ ही हुए घटनाक्रम की जो जानकारी दी वो भयावह है। लेकिन मुख्यधारा के अखबारों और चैनलों ने मानो आंख-कान बंद कर लिए। टाइम्स नाऊ चैनल के अलावा ज्यादातर चैनलों और अखबारों ने या तो यह खबर दबा दी। अगर दिखाई भी तो यह साबित करते हुए कि इसमें कोई बड़ी बात नहीं।
राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा से जुड़ी खबरों को भी मीडिया में अच्छी खासी जगह मिली। वो अपने साथ कुछ पसंदीदा पत्रकारों को लेकर गए थे। इन पत्रकारों ने उनके हास्यास्पद भाषणों को 'ऐतिहासिक' साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मीडिया राहुल गांधी को पहले कम से कम 8-10 बार नए रंग-रोगन में लॉन्च करवा चुका है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर से हवा बनाने की कोशिश चल रही है। अमेरिका से लौट कर राहुल गुजरात गए तो वहां भी मीडिया की उनकी 'मंडली' साथ रही। राहुल गांधी ने गुजरात में सरदार पटेल की प्रतिमा लगाने को शर्मनाक कहा और उसे 'मेड इन चाइना' बता डाला। मुख्यधारा के शायद एक भी चैनल या अखबार ने इस झूठ पर ध्यान नहीं दिया। दरअसल ये झूठ मीडिया का ही फैलाया हुआ है और अब राहुल गांधी जैसे 'अबोध' नेता उसे दोहराने में जुटे हैं।
पहले कुछ शरारती और आसमाजिक तत्व अफवाहें उड़ाया करते थे। आजकल ये काम मुख्यधारा मीडिया का हो गया है। इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ने खबर छापी की रेलवे टिकट की बुकिंग अब कुछ गिने-चुने बैंकों के कार्ड से ही की जा सकती है। यह वो अफवाह थी जो किसी छिपे मकसद को पूरा करने के लिए सोच-समझकर उड़ाई गई थी। देखा-देखी बिना पुष्टि किए कई और चैनलों, अखबारों और वेबसाइटों पर ये खबर पहुंच गई। रेलवे इसका खंडन करता रहा, लेकिन वो स्वतंत्र मीडिया ही क्या जो ऐसे खंडनों पर ध्यान दे। आने वाले विधानसभा चुनावों और 2019 में लोकसभा चुनाव का माहौल मीडिया में बनना शुरू हो चुका है। तीन साल पहले तक जनता के पैसे पर सुख सुविधाएं और संरक्षण पाने वाले पत्रकारों और मीडिया समूहों का एक वर्ग बहुत बेचैन है।    

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