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देश में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों के हमदर्द कट्टरवादी उन पर ‘दया’ दिखा रहे हैं,
लेकिन 27 बरस से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों की बात आते ही चुप्पी साध लेते हैं
अश्वनी मिश्र, बारामूला से लौटकर
कुछ दिन पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने भारत में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर एक ट्वीट किया। अंग्रेजी में किए उनके ट्वीट का भाव यह था,‘‘रोहिंग्या शरणार्थियों को देश से निकालने के सरकार के फैसले से हैरान हूं। इनसानियत की प्राचीन परंपरा को मात्र इसलिए तिलांजलि दी जा रही है क्योंकि रोहिंग्या मुस्लिम हैं?’’
कांग्रेस नेता के ट्वीट के बाद वाम दलों के नेताओं ने सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक मंचों तक रोहिंग्या मुसलमानों के पक्ष में न केवल बयान दिए बल्कि उन्हें देश में ही बसाने की वकालत करते हुए सरकार के फैसले की आलोचना की। लेकिन सोशल मीडिया पर मौजूद एक तबके ने थरूर सहित अन्य नेताओं के रोहिंग्याओं के पक्ष में की गई बयानबाजी को आड़े हाथों लेते हुए सवालों की झड़ी लगा दी। इनमें से अधिकतर की प्रतिक्रियाओं का सार यह था कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता उन रोहिंग्याओं का पक्ष लेते हुए आंसू बहा रहे हैं, जो घुसपैठिये हैं और देश के लिए खतरा बन चुके हैं। जम्मू के रहने वाले 33 वर्षीय राजीव पंडिता सवाल पूछते हैं कि अगर थरूर को लोगों का घरबार उजड़ने की वास्तविक चिंता है तो कश्मीरी पंडितों पर उनका अपने बेगाने
जम्मू में जानबूझकर रोहिंग्याओं को बसाया जा रहा
देश में तमाम नेता रोहिंग्या मुसलमानों का पक्ष लेते हुए उनकी वकालत कर रहे हैं और उन्हें पीड़ित, शोषित और शरणार्थी के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। पर जहां तक मैं मानता हूं, यह एक तरह का ‘राजनैतिक आतंकवाद’ है। क्या ऐसे लोगों ने घाटी के कश्मीरी हिन्दुओं की पीड़ा को समझने की कभी कोशिश की। शायद नहीं। मुझे नहीं लगता कि शशि थरूर या अन्य किसी नेता ने हाल-फिलहाल में कभी कश्मीरी पंडितों की दशा पर कोई ट्वीट या प्रतिक्रिया दी हो। दूसरी बात, घाटी में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फं्रट (जेकेएलएफ) के आतंकवादियों ने भारत के लोकतांत्रिक ढांचे पर प्रहार किए। 1990-91 में सरला भट्ट के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया और हत्या कर दी थी। इस दर्दनाक हादसे पर आज तक शशि थरूर या कांग्रेस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। यह लोग भी भारत के ही थे। फिर इन नेताओं के होंठ क्यों सिल गए? क्यों कश्मीरी पंडितों की वेदना पर खामोश रहे? जो घुसपैठ करके देश में रह रहे हैं या यूं कहें किसी षड्यंत्र के तहत देश में बसाए गए उन रोहिंग्या मुसलमानों की चिंता है लेकिन कश्मीरी पंडितों की बात तक नहीं, क्या यही इनका मापदंड है? रही बात जम्मू-कश्मीर में बसे बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुस्लिमों की तो वे यहां रह नहीं रहे हैं, उनको यहां जान-बूझकर बसाया गया है। और यह सब कांग्रेस के नेताओं के संरक्षण में हुआ। इसके पीछे वोट बैंक की राजनीति के सिवाय कुछ नहीं है। जैसे-जैसे यह जम्मू में बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे अपराध में भी बढ़ोतरी होती जा रही है। मेरा व्यक्तिगत मत है कि जम्मू-कश्मीर वैसे भी अतिसंवेदशील राज्य है। कुछ अराष्ट्रीय तत्व हैं, जो यहां के शांत माहौल को अशांत करना चाहते हैं। उनका प्रमुख काम है जम्मू की जनसांख्यिकी में बदलाव लाना। और यह काम वे रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलमानों के जरिए बड़ी तेजी से कर रहे हैं।
-सुरेन्द्र अंबारदार, भाजपा नेता एवं विधान परिषद सदस्य
कोई ट्वीट क्यों दिखाई नहीं देता, जो 27 बरस से अपने ही देश में पराए बनके रह गए हैं? उनकी पीड़ा पर दो शब्द कहने में थरूर सहित वाम दलों के नेताओं के मुंह क्यों सिल जाते हैं?
दरअसल थरूर का यह ट्वीट उस समय आया जब केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों समेत केंद्र शासित प्रदेशों को एक सलाह जारी करते हुए कहा कि वे अपने यहां रोहिंग्या मुसलमानों को चिह्नित करके निकालें। क्योंकि भविष्य में आतंकी संगठन उनके सहारे भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे सकते हैं। सलाह जारी होते ही विवाद बढ़ा तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के म्यांमार दौरे के बीच में ही केंद्र सरकार ने एक बार फिर साफ किया और फैसले की आलोचना करने वालों को जवाब दिया। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि म्यांमार से अवैध तरीके से भारत में घुस आए रोहिंग्या मुसलमानों को देश से निकलना होगा। मीडिया से बात करते हुए रिजिजू ने कहा, ‘‘मैं अन्तरराष्ट्रीय संगठनों से कहना चाहता हूं कि रोहिंग्या संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के तहत पंजीकृत हों या न हों, वे भारत में अवैध तरीके से रह रहे हैं। इसलिए उन्हें ‘उनके मुल्क’ भेजा जाएगा। इसके लिए हम कानूनी रास्ता अपना रहे हैं। लेकिन फिर भी हम पर अमानवीय होने का आरोप लगाया जा रहा है।’’ विपक्ष के नेताओं और सेकुलर मीडिया की रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति हमदर्दी ने एक बार फिर कश्मीर से 27 बरस पहले मार-काट कर भगाये गए लाखों हिन्दुओं के घावों को हरा कर दिया है। क्योंकि ये नेता जिस मानवीयता और परंपरा की बार-बार दुहाई देते नहीं थकते, वह कश्मीरी हिन्दुओं की बात आते ही चुप्पी मार जाते हैं।
इनके दुख पर मौन क्यों?
जख्म भले ही भर जाते हों मगर उनकी टीस रह-रहकर सालती है। खासकर तब जब आप चाहकर भी कुछ न कर पाएं। दशकों से विस्थापन का दर्द झेल रहे कश्मीरी पंडितों का यही हाल है। उनकी आंखों में अब भी अपने घर जाने की उम्मीद है। बेघर होने का दर्द उनकी आंखों से साफ दिखता है और जिस सियासत ने उन्हें अपनी जमीन से दूर फेंका, उसी की ओर वे टकटकी लगाए हैं। जम्मू के जगती, पुरुखू और मुट्ठी में उनकी पुनर्वास कॉलोनी हैं। इन कॉलोनियों में लगभग 50,000 से ज्यादा लोग रहते हैं। ये लोग अब तक तीन बार अपना रैन बसेरा बदल चुके हैं। अगला ठिकाना कहां होगा, किसी को कुछ नहीं पता!
शाम का समय था और हम जम्मू स्थित पुरुखू में थे, जहां कश्मीरी पंडितों के 200 से अधिक परिवार रहते हैं। कॉलोनी तक पहुंचने के लिए टूटी सड़क, प्रवेश द्वार से घुसते ही दूर से दिखाई देती चटकी इमारतें, जगह-जगह उखड़ा प्लास्टर, दड़बेनुमा कमरे और यहां रहने वाले लोगों के उतरे हुए चेहरे खुद-बखुद बताने लगते हैं कि यहां घाटी से पलायन करने आए कश्मीरी पंडित रहते हैं। प्रमुख द्वार से कुछ ही दूरी पर बेतरतीब पड़ी कुर्सियों एवं जमीन पर एक दर्जन से अधिक लोग बैठे हुए थे, जिनमें युवा और वृद्ध थे। हालांकि हमारे आने के बारे में उन्हें पहले ही जानकारी दे दी गई थी, इसलिए आते ही परिचय देने की जरूर नहीं पड़ी। जैसे ही उनके पुनर्वास, समस्या, राहत और उनके पैतृक घर की बात छेड़ी तो कइयों के चेहरे उतर गए। आंखें डबडबा आर्इं। बस आंसू निकलने शेष थे। इसे देखकर तो यही लगा कि यहां रहने वाले अधिकतर लोग अपनी छाती पर भारी बोझ लेकर जिंदगी काट रहे हैं और किस्मत को कोस रहे हैं।
68 साल के राजेश पंडित पहले आसमान की तरफ देखते हैं, फिर सोचते हुए कहते हैं कि हम लोगों को विस्थापित हुए आज 27 वर्ष से अधिक समय हो गया, लेकिन कोई भी सरकार हमें हमारे घर नहीं भेज पाई। हम खानाबदोशों की तरह जिंदगी जी रहे हैं। कभी-कभी तो यह लगता है, न यह हमारा देश है और न ही हम इस देश के रहवासी। अगर होते तो अब तक अपने घर में नहीं होते! वे कहते हैं,‘‘हमारे हालात कोई क्या जाने! आज के नेता तो अलगाववादियों, पत्थर मारने वालों, देश को गाली देने वालों और देश में अव्यवस्था फैलाने वालों के साथ हैं और उन्हीं की वकालत करते हैं। ये लोग उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए पैसे से लेकर नौकरी और अन्य सभी व्यवस्थाएं दे रहे हैं लेकिन हम हिन्दू हैं, बस इसलिए ही हमारी कोई बात नहीं करता।’’
कौशल किशोर 52 साल के हैं और जम्मू में ही एक प्राइवेट नौकरी करते हैं जिससे उन्हें 10,000 रुपये मिलते हैं। परिवार में कुल 5 लोग हैं,जिनमें दो बेटी एवं एक बेटा भी है। 1990 में घाटी में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार के समय वे जम्मू आकर बस गए, तब से अब तक कैंप-कॉलोनी में ही जिंदगी काट रहे हैं। वे बताते हैं,‘‘मैं 25 वर्ष का था। वह रात हम कभी नहीं भूल सकते, जब मुसलमानों ने हमारी बस्ती पर एकजुट होकर हमला किया था। हिन्दुओं को चुन-चुनकर मार रहे थे। मस्जिदों से मौलवी हुंकारें भर रहा था कि घाटी से हिन्दुओं को भागना ही होगा। और आखिर उन्होंने हमें भगा ही दिया। आज हम इन दड़बेनुमा कोठरियों में जिदंंगी काट रहे हैं। कौन सा इनसान है जो अपने घर नहीं जाना चाहता। लेकिन हम कैसे जाएं? हमारे घर, मकान, मंदिर, जमीन सब पर तो मुसलमानों ने कब्जा कर लिया। ऐसे में घाटी में कोई हिन्दू कैसे रह सकता है। जो कुछ रहते भी हैं, वे जान हथेली पर लेकर रहते हैं। लेकिन इसके बाद भी हम अपनी लड़ाई जिन्दगी भर लड़ेंगे। आखिरी दम तक!’’
इस कॉलोनी में एक कोने में एक छोटा मंदिर भी है, जहां सभी लोग पूजा-भजन करते हैं। यहीं पर बैठी कुछ महिलाओं से भी हमारा मिलना हुआ। हमने विस्थापन पर जैसे ही बात करनी शुरू की उनमें से अधिकतर का यही कहना था, क्यों कुरदेना चाहते हो हमारे घावों को…? लेकिन उनमें से एक किशोरी देवी जिनकी उम्र 65 वर्ष थी, रुआंसी आवाज में बताने लगीं। उन्होंने कहा,‘‘हमने सब देखा। सब बताया, पर उससे मिला कुछ नहीं। हमारे घाव तो वैसे ही हरे हैं। शायद मरने के बाद ही यह सब भूल पाऊंगी, उससे पहले तो नहीं!’’
वे कॉलोनी की समस्या की ओर ध्यान दिलाते हुए कहती हैं,‘‘देखिए, इस बिल्ंिडग को, जगह-जगह टूटती जा रही है, प्लास्टर उखड़ता जा रहा है, पर क्या किसी को कोई चिंता है। पानी आए या न आए, बिजली खराब हो जाए तो चक्कर मार के घर के लोग परेशान हो जाते हैं, हमारे बच्चों के पढ़ने से लकर रोजगार की कोई ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं है। कभी-कभी तो हम लोगों को लगता है कि पिछली सरकार ने अपनी जान छुड़ाने के लिए हम लोगों को यहां लाकर पटक दिया है। ताकि उनकी जान छूटे।’’ पास में बैठी 38 वर्षीया संगीता परास्नातक हैं और बेहद जागरूक हैं। वे बताती हैं कि ‘‘आज भी हमें हमारा घर याद आता है। लेकिन हालात देखकर हम सहम जाते हैं और लौटने का ख्याल छोड़ देते हैं। अपने घर में कोई पराया कैसे होता है, हम लोगों से कोई पूछे!’’ वे जम्मू के हालात को लेकर कहती हैं कि यहां भी धीरे-धीरे माहौल को खराब करने के लिए रोहिंग्या मुसलमानों को बसाया जा रहा है। अकेले जम्मू में ही 10,000 से अधिक रोहिंग्या अवैध रूप से रह रहे हैं।’’
नाउम्मीदी में उम्मीद
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के मुताबिक 1989 में कश्मीरी पंडितों की संख्या घाटी में 4 लाख से अधिक थी। लेकिन अब घाटी के बारामूला, श्रीनगर, नुतनुशा, अनंतनाग, पुलवामा और मटन में कुल मिलाकर 2,500- 3,000 के बीच ही कश्मीरी पंडित रह गए हैं। इनमें से कुछ अपने पैतृक घर में और अधिकतर कई जिलों में बनाए गए शरणार्थी शिविरों में रहते हैं। हमारा घाटी के बारामूला स्थित वीरवन शिविर जाना हुआ, जहां 200 के लगभग कश्मीरी पंडित परिवार रहते हैं। उड़ी की तरफ जाती हुई सड़क के ठीक किनारे स्थित शिविर के प्रवेश द्वार का छोटा- सा दरवाजा, दुकानों की तरह बने रैनबसेरे ऐसे अलग-थलग लग रहे थे। हम यहां कई परिवारों से मिले और उनका हाल जाना। 47 साल के राजेन्द्र भूषण तमाम विपदाओं के बाद भी घाटी छोड़ने को राजी नहीं हैं और शिविर में रहते हैं। वे कहते हैं कि जीते जी तो हम घाटी नहीं छोड़ेंगे और इसी दृढ़ विश्वास के साथ यहां डटे हुए हैं। दो छोटे कमरे, घर के बाहर थोड़ी खुली हुई जगह, उन्हें शिविर में मिली हुई है। जिस कमरे में उन्होंने बैठाया, उसी में उनका पूजा स्थल था, जहां भगवान कृष्ण का एक मनमोहक चित्र लगा था। उसे देखते ही बोले, हम इनके ही भरोसे रहते हैं। घर में एक भाई, पत्नी और एक बेटा यही उनका परिवार है।
वे बताने लगे कि हम यहां मुसीबतों के मारों की तरह रह रहे हैं। जैसे ही हालात जरा डगमगाते हैं, परिवार की चिंता बढ़ जाती है। क्योंकि सड़क से निकलने वाला कोई भी व्यक्ति कब शिविर पर पत्थर फेंककर भाग जाता है, पता तक नहीं लगता। वे ‘हिन्दुओं’ का नाम लेकर गाली देते हैं और यहां तक कि जान से मारने की बात करते हैं। फिर भी हम यहां रहते हैं। वे अपनी समस्याओं के बारे में बताते हैं, ‘‘हमारे लोगों के लिए यहां हर तरह की समस्या है। पीने के पानी से लेकर रोजगार तक की। यानी संकट ही संकट।’’ उनके भाई रमेश बताने लगे कि जब घाटी में उपद्रव होता है और ऐसे में हम कहीं फंस जाएं तो उन्मादी तत्व हमें पकड़ लेते हैं और देशविरोधी नारे लगाने के लिए दवाब डालते हैं। अगर ऐसा नहीं करते तो पास में जो भी सामान होता है उसे तोड़ डालते हैं। 32 दांतों के बीच कब दांत जुबान को काट दे, पता ही नहीं। लेकिन फिर भी हम हिम्मत बांधे, सब सह रहे हैं।’’
श्रीनगर के हब्बाकदल इलाके में रहने वाले संजय टिक्कू 1989-90 के कत्लेआम के बाद भी इसी जगह रहते हैं। वे कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के संयोजक हैं और यहीं रहकर कश्मीरी हिंदुओं की आवाज बुलंद करते हैं। वे कहते हैं कि ‘‘हम भी चाहते तो यहां से पलायन कर जाते। लेकिन मैंने तय किया कि अगर मौत लिखी होगी तो वह जम्मू में भी होगी और श्रीनगर में होंगे तो भी होगी, तो क्यों न अपने ही घर में रहा जाए।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘हमारे देश के नेता उनकी वकालत करते हैं, जो यहां अव्यवस्था फैलाते हैं। क्योंकि वे जानते हैं यह वोट बैंक है और ऐसा करने से उन्हें मुसलमानों का वोट मिलेगा। वे हमारी बात क्यों करेंगे। एक-आध दल को छोड़कर हमारी पीड़ा को किसी ने अपनी आवाज दी हो तो वह बताए? कभी देखा भी है कि 27 साल से कश्मीरी पंडित कहां रह रहे हैं?’’ वे कहते हैं कि जितनी जल्दी कश्मीर समस्या का राजनीतिक हल निकलेगा, उतनी ही जल्दी पंडितों की वापसी संभव होगी। क्योंकि जब तक हम यहां हैं तब तक कश्मीर में हिन्दुओं का अस्तित्व है। जिस दिन हम भी मिटा दिए जाएंगे, उस दिन कश्मीर पूरी तरह से इस्लाम के चंगुल में होगा। क्योंकि पिछले बीस साल में 800 से ज्यादा पंडितों की हत्या हो चुकी हैं लेकिन पुलिस ने सिर्फ 219 मामले दर्ज किए हैं। हकीकत में संजय टिक्कू उन बचे- खुचे कुछ हजार कश्मीरी हिन्दुओं में से हैं जो घाटी छोड़ कर कहीं नहीं गए। आज घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं को ढूंढ़ना भूसे में सुई तलाश करने जैसा है।
बढ़ता खतरा
जम्मू-कश्मीर सरकार की मानें तो वह खुद मानती है कि राज्य में 5,700 से लेकर 10,000 हजार के बीच अवैध तरीके से रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने खुद कुछ समय पहले विधानसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा था कि राज्य के कुछ मदरसा रोहिंग्या मुस्लिमों से जुड़े हैं। रही बात अपराध की तो 38 रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ अवैध तरीके से घुसपैठ करते हुए विभिन्न धराओं में 17 प्राथमिकी दर्ज की गई हैं।
हालांकि जम्मू में तैनात खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि यह आंकड़ा तो महज दिखावा है। जबकि हकीकत तो कुछ और ही है। अपराध और इनकी जनसंख्या के जितने भी आंकड़े सरकार बताती है, उसकी तादाद इससे कई गुना अधिक है।
दरअसल कुछ वर्षोंे में जम्मू के एक बड़े इलाके पर इन्होंने कब्जा कर लिया है, जहां से ये देशविरोधी गतिविधि और अपराध को अंजाम देते हैं। राज्य में बांग्लादेशी एवं म्यांमार के मुस्लिमों की घुसपैठ पर जनहित याचिका डालने वाले जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के अधिवक्ता हुनर गुप्ता की मानें तो 2008 से यहां बंगलादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ में तेज बढ़ोतरी हुई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही 13,400 मुस्लिम राज्य के अलग-अलग भागों में अवैध तरीके से रहते हैं। जबकि हकीकत में यह संख्या बहुत अधिक है। वे कहते हैं कि ये लोग देशविरोधी गतिविधि और अलगाववाद की भावना को भड़काने के अगुआ हैं। और हर अपराध को अंजाम देते हैं। स्थानीय लोगों की मानें तो इनको जम्मू में एक साजिश के तहत बसाया जा रहा है। राजनीतिक दलों के नेताओं के संरक्षण के चलते प्रशासन भी इनकी मदद करता है। भूमाफिया सरकारी जमीनों पर कब्जा करता है और फिर यहीं पर इन घुपैठियों को बसाया जाता है। इन लोगों नेअनाधिकृत तरीके से मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड, निवास प्रमाण पत्र भी बनवा लिए हैं।
बदलता भौगोलिक परिदृश्य
जम्मू शहर के एक छोर से निकलती तवी नदी के पास की अधिकतर जमीन सरकार हैं। यही वह इलाका है जहां रोहिंग्या मुसलमान धीरे-धीरे बसते जा रहे हैं। भटिंडी, नरवल, नगरौटा और बेलीचराना इनके गढ़ बन चुके हैं। आज के समय यह सारे स्थान जम्मू में ‘मिनी पाकिस्तान’ के नाम से जाने जाते हैं। मुस्लिमों की तादाद के चलते मदरसों और ऊंची उठती मस्जिदों की गिनती करना मुश्किल है। इलाके में तकरीबन लगभग 50 से अधिक विशालकाय मस्जिद दूर से ही दिखाई देने लगती हैं। लेकिन इन्हें बनाने के लिए इतना पैसा आता कहां से है, यह किसी को नहीं पता? इलाके में अधिकतर राज्य के मुस्लिम नेताओं के आवास हैं, खासकर कश्मीर के। घाटी में जब अधिक सर्दी पड़ती है तब वे यहीं आकर ठहरते हैं। इन लोगों के रहने से न केवल घुसपैठियों को संरक्षण मिलता है बल्कि प्रशासन भी किसी तरह का हस्तक्षेप करने से परहेज करता है।
जम्मू के स्थानीय निवासी राजेन्द्र कौल की मानें तो यह घाटी के बाद जम्मू के शांत वातावरण में जहर घोलने की शुरुआत है। और यह जहर फैलने लगा है। इसी का परिणाम है कि जम्मू के इन इलाकों में जाते ऐसा लगता है किसी तरह का अज्ञात भय पीछा कर रहा हो। जबकि इन इलाकों के रहने वाले हिन्दू दबी जुबान स्वीकार करते हैं कि आने वाले दिनों में यह क्षेत्र भी अशांत हो जाएगा।
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