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लोगों के जीवन में अद्भुत और सकारात्मक परिवर्तन ला रहा है योग। यह भारत की थाती है और हर भारतीय को इस पर गर्व है। पतंजलि द्वारा प्रवाहित की गई आरोग्य की इस धारा को आज वैश्विक स्वीकृति मिल चुकी है
पूनम नेगी
बीते कुछ समय में योग ऐसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में तेजी से उभरा है जो जीवन को संतुलित-सुखमय-निरोगी बनाती है। योग को लेकर देश-विदेश में पिछले कुछ अरसे में कुछ ऐसे शोध हुए हैं जो इसकी महत्ता को साबित करते हैं। आज समूची दुनिया में माना जाने लगा है कि योग स्वास्थ्य संरक्षण की एक ऐसी पद्धति है जो न केवल हमारे जीवन में गुणात्मक सुधार लाती है, वरन् हमारी जीवनशैली को बेहतर भी बनाती है। विभिन्न शोधों में पाया गया है कि प्रतिदिन 20-30 मिनट के नियमित योगाभ्यास से न सिर्फ शरीर में सक्रियता आती है वरन् इससे तनाव दूर होने के साथ याददाश्त के बेहतर होने में मदद मिलती है। वृद्ध हों या युवा, स्वस्थ हों या बीमार; योग का अभ्यास सभी के लिए लाभप्रद है। यह योग की सर्वव्यापी लोकप्रियता का ही नतीजा है कि आज महानगरों व छोटे-बड़े शहरों में ही नहीं, कस्बों व तमाम गांवों में भी बड़ी तादाद में योग प्रशिक्षण केन्द्र खुल गये हैं। सुबह-शाम पार्कों में भी योगाभ्यास करने वालों की अच्छी-खासी तादाद देखी जा सकती है। यह एक सुखद संकेत भी है कि लोग अच्छी सेहत के प्रति जागरूक हो रहे हैं और योग को उपयोगी मान रहे हैं।
शरीर को मिलती है लयात्मक गति
आज की तेज रफ्तार जिंदगी में हमारे जीवन को स्वस्थ व ऊर्जावान बनाये रखने में योग की उपयोगिता अब देश ही नहीं, वैश्विक मंच पर भी साबित हो चुकी है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा से अस्त-व्यस्त होती दिनचर्या, तनाव व अवसाद और तेजी से गहराते प्रदूषण ने इनसानी सेहत को ग्रहण लगा दिया है। असंयमित आचार-विचार व अनुचित खानपान के कारण बड़ी संख्या में लोग हृदय, लीवर, किडनी रोगों की गिरफ्त में हैं। शरीर में हारमोनल असंतुलन के कारण डायबिटीज व थायराइड जैसी बीमारियों का खतरा बीते एक दशक में जिस तेजी से उभरा है, वह इनसानी सेहत के लिए खतरे की घंटी है। तथाकथित आधुनिकता में जकड़ा हुआ आज का व्यथित मनुष्य मन व देह में संतुलन नहीं साध पा रहा।
इन सारी समस्याओं से मुक्ति का कारगर समाधान है योग। तमाम अनुसंधानों का निष्कर्ष है कि योग एक ऐसा माध्यम है जो मस्तिष्क को शांत व शरीर को स्वस्थ व ऊजार्वान बनाए रखता है और इसके अभ्यास से शरीर को एक लयात्मक गति मिलती है।
साम्प्रदायिक रंग देना अज्ञानता
पिछले दिनों एक वर्ग विशेष के कुछ लोगों द्वारा योग को सिर्फ हिंदू धर्म से जुड़ा बताकर समाज में साम्प्रदायिक वैमनस्य पैदा करने की कोशिश की गई। यह पूरी तरह अज्ञानता है। योग-विज्ञानियों की मानें तो कुछ संकीर्ण सोच के लोगों द्वारा योग विज्ञान पर इस तरह की टिप्पणी इसलिए की गई क्योंकि इस विज्ञान और तकनीक का विकास भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति में हुआ। ऐसे में इसको अपने निहित स्वार्थ से हिंदू जीवनशैली से जोड़कर देखा गया। चूंकि हिंदू शब्द सिंधु से निकला है, जो एक नदी का नाम है इसलिए हमारी इस संस्कृति को हिंदू नाम दे दिया गया। इस विषय पर व्यापक दृष्टि से विचार करें तो पाएंगे कि हिंदू न कोई वाद है और न ही किसी धर्म का नाम है, अपितु यह तो सनातन जीवन मूल्यों में यकीन रखने वाले एक भौगोलिक भूखण्ड की सांस्कृतिक पहचान है। सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर वैदिक एवं उपनिषद् की विरासत, बौद्ध एवं जैन परंपराओं, दर्शनों, महाभारत एवं रामायण महाकाव्यों, शैवों, वैष्णवों की उपासना परंपराओं में भी योग की मौजूदगी मिलती है। योग विशारदों की मान्यता है कि वैदिककाल के दौरान सूर्य को सबसे अधिक महत्व मिलने के कारण सम्भवत: योग में ‘सूर्य नमस्कार’ का आविष्कार हुआ हो। वैदिक संस्कृति में प्राणायाम दैनिक संस्कार का हिस्सा था।
आदियोगी शिव
भारत की योग संस्कृति में शिव को आदि योगी माना जाता है। योग विशारदों की मान्यता है कि सदियों पहले सर्वप्रथम देवाधिदेव शिव ने हिमालय के दिव्य वातावरण में योग की सिद्धि प्राप्त की थी। इसके बाद वहां महादेव का तांडव देख वर्षों से अचल बैठे सप्त ऋषियों में इस बारे में जानने की इच्छा हुई। आदियोगी शिव ने उनकी पात्रता परखी और केदारनाथ में कांति सरोवर के तट पर खुद को योग के आदि गुरु के रूप में रूपांतरित कर अपनी यौगिक विद्या उन सात ऋषि साधकों को दी जिन्हें हम सप्तऋषि के नाम से जानते हैं। इन्हीं सात ऋषियों ने शिव से परम प्रकृति में खिलने की तकनीक और ज्ञान प्राप्त किया और उसे समूची दुनिया में प्रचारित-प्रसारित किया। यहीं दुनिया का पहला योग कार्यक्रम हुआ। इन ऋषियों ने योग के इस विज्ञान को एशिया, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका सहित विश्व के भिन्न -भिन्न भागों में पहुंचाया मगर योग ने अपनी सबसे पूर्ण अभिव्यक्ति भारत में ही प्राप्त की।
योगविद्या के पुरातन साक्ष्य
उल्लेखनीय है कि पूर्व वैदिक काल (2700 ईसा पूर्व) में योग की मौजूदगी के कई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। इनमें वेद, उपनिषद्, स्मृतियों, बौद्ध व जैन धर्म का साहित्य प्रमुख है। व्यास द्वारा योगसूत्र की टीका में भी योग पर महत्वपूर्ण जानकारियां दी गयी हैं। महावीर के पंच महाव्रतों एवं बुद्ध के अष्टांग मार्ग की संकल्पना में भी योग साधना की शुरुआती प्रकृति को देखा जा सकता है। गीता में योग की तीन परिभाषाएं दी गई हैं—कर्म में कुशलता योग है, समभाव में स्थित होकर कर्म करना योग है और दुख के संयोग के वियोग का नाम योग है। जिज्ञासा है कि यदि कोई व्यक्ति बड़ी कुशलता के साथ दुराचार या कदाचार कर रहा है तो क्या वह योग कर रहा है? गीताकार कहते हैं- नहीं। दक्षता या चतुराई के साथ किया गया कोई भी काम कर्म योग नहीं है। चूंकि पाप-पुण्य दोनों आसक्त कर्म हैं। अत: सभी आसक्त कर्मों का त्याग योग है। योग कर्तव्य कर्म करने की उस कुशलता का नाम है जिससे कर्म का फल लिप्त नहीं होता। योगिराज कृष्ण कहते हैं कि सर्वोच्च लक्ष्य के साथ संबंध जोड़ लेना ही योग है। गीता कहती है कि सुख-दुख, दोनों स्थितियों में सम रहने वाले योगी को न सुख स्पर्श करता है और न दुख। भगवद्गीता में प्रस्तुत ज्ञान, भक्ति और कर्म योग की संकल्पना वाकई अद्भुुत है। यही योग का मर्मार्थ है।
800 से 1700 ईस्वी के बीच की अवधि में योग विज्ञान का उत्कृष्ट विकास हुआ। इस अवधि में आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, सुदर्शन, पुरंदर दास, हठयोग परंपरा के गोरखनाथ, मत्स्येंद्रनाथ, गौरांगी नाथ, श्रीनिवास भट्ट आदि ने हठयोग की परंपरा को लोकप्रिय बनाया। इसके बाद 1700-1900 ईस्वी के बीच रमन महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, लाहिड़ी महाशय व स्वामी विवेकानंद जैसे महान योगाचार्यों ने राजयोग के विकास में योगदान दिया। इस अवधि में वेदांत, भक्तियोग, नाथयोग व हठयोग समूचे देश में फला-फूला। बीसवीं सदी में श्री टी. कृष्णम् आचार्य, स्वामी कुवालयनंद, श्री योगेंद्र, स्वामी राम, महर्षि अरविंद, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश, पट्टाभिजोइस, बी. के. एस. आयंगर, स्वामी सत्येंद्र सरस्वती आदि जैसी कई महान विभूतियों ने योग को पूरी दुनिया में फैलाया।
आचार्य पतंजलि व योगसूत्र
आज योग का जो स्वरूप देश व दुनिया में बहुतायत से प्रचलित है, उसका श्रेय जाता है आचार्य पतंजलि को। उन्होंने ही सबसे पहले योग विद्या को व्यवस्थित रूप दिया। उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि महर्षि पतंजलि ने उस समय विद्यमान योग की विधियां, परम्पराओं व संबंधित ज्ञान को व्यवस्थित रूप में लिपिबद्ध किया। एक समय ऐसा आया कि योग की तकरीबन 1700 विधाएं तैयार हो गयीं। योग में आई जटिलता को देख कर पतंजलि ने मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। इनसान की अंदरूनी प्रणालियों के बारे में जो कुछ भी बताया जा सकता था वह सब इन सूत्रों में शामिल है। पतंजलि के अष्टांग योग में धर्म और दर्शन की सभी विद्याओं के समावेश के साथ-साथ मानव शरीर और मन के विज्ञान का भी सम्मिश्रण है। 200 ईसा पूर्व के दौरान ही पतंजलि ने योग क्रियाओं को योग-सूत्र नामक ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर दिया था। महर्षि पतंजलि द्वारा लिखित ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का पहला सबसे व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन माना जाता है। योगदर्शन चार विस्तृत भागों में विभाजित है- 1. समाधिपद 2. साधनपद 3. विभूतिपद 4. कैवल्यपद।
समाधिपद का मुख्य विषय मन की विभिन्न वृत्तियों का नियमन कर साधक को समाधि के द्वारा आत्मसाक्षात्कार करना है। साधनपद में पांच बहिरंग साधन-यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का पूर्ण वर्णन है। विभूतिपद में अंतरंग की धारणा, ध्यान और समाधि का पूर्ण वर्णन है। इसमें योग को करने से प्राप्त होने वाली सभी सिद्धियों का भी वर्णन है। कैवल्यपद मुक्ति की वह सबसे उच्च अवस्था है जहां योग साधक का जीवन के मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।
योग-सूत्र ग्रंथ के रचनाकार होने की वजह से महर्षि पतंजलि को योग का जनक कहा जाता है। भगवान बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी योग के उक्त आठ अंगों का ही भाग है। पतंजलि के अष्टांग योग से तात्पर्य योग के इन आठ अंगों से है-1. यम 2. नियम 3. आसन 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार 6. धारणा 7. ध्यान 8. समाधि। हालांकि वर्तमान समय में योग के जिन तीन अंगों को प्रमुखता दी जाती है वे हैं-1. आसन 2. प्राणायाम, और 3. ध्यान मुद्राएं।
भ्रामक धारणाएं
योग को लेकर एक अन्य भ्रांति यह भी है कि तमाम लोग योग को प्राणायाम व आसन तक सीमित कर देते हैं। जबकि योग विज्ञान जीवन से जुड़े प्रत्येक पहलू से जुड़ा है। सद्गुरु कहते हैं, आज दुनिया योग के सिर्फ शारीरिक पहलू को ही जानती है। जबकि यौगिक पद्धति में आसनों को बहुत कम महत्व दिया गया है। 200 से भी अधिक योग सूत्रों में से मात्र एक सूत्र आसनों के लिए है। वे एक गहरी व अर्थपूर्ण बात कहते हैं- आज की दुनिया में जीवन की गति गहरे आयामों से सतह यानी आत्मा से शरीर की ओर चल रही है। इस गति को सम पर लाने में योग की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। योग के द्वारा व्यक्ति शरीर से अंत:करण तक अपनी यात्रा पूरी कर सकता है। ऊपरी तौर पर देखकर लगता है कि योग शरीर से जुड़ी एक तकनीक मात्र है लेकिन सच यह है कि जब तक आप सांसों में जीवन को महसूस नहीं करेंगे, योग जीवंत क्रिया नहीं बन पाएगा। योग हमें एक अलग धरातल पर ले जाता है। योग महज व्यायाम या कसरत नहीं, इसमें और भी बहुत से पहलू जुड़े हुए हैं। योग से एक अलग तरह का आरोग्यपूर्णजीवन मिलता है। योग विज्ञानी कहते हैं कि अगर हठयोग सही तरीके से सीखा जाए तो यह हमारी समूची दैहिक प्रणाली में ऐसी पात्रता विकसित कर सकता है जो ईश्वरीय दिव्यता को ग्रहण कर सके। इसलिए हठयोग करते समय शरीर, मन, ऊर्जा और अंत:करण, सभी का उसमें पूरी तरह शामिल होना जरूरी है।
21 जून का महत्व
वक्त के साथ भले ही आज योग का रूप-स्वरूप काफी बदल चुका हो मगर इस बात में कोई दो राय नहीं कि आज की तनावपूर्ण जीवनशैली से लोगों को निजात दिलाने में योग की भूमिका काफी कारगर साबित हो रही है। वर्तमान में योग को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय मुख्य रूप से बीकेएस आयंगर और बाबा रामदेव सरीखे योग गुरुओं को जाता है जिन्होंने योग का सरलीकरण कर इसे देश-विदेश में हर खासोआम तक पहुंचा दिया। आज नगरों-महानगरों से लेकर गांव-कस्बों में भी लोग कपालभाति और अनुलोम-विलोम करते आसानी से देखे जा सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने के प्रस्ताव को भारी बहुमत के साथ स्वीकृति दिलाकर भारत के खाते में एक बड़ी उपलब्धि दर्ज करायी है। 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस मनाये जाने के पीछे मूल वजह है कि इस दिन ग्रीष्म संक्रांति होती है। इस दिन से सूर्य की गति की दिशा उत्तर से दक्षिण की ओर हो जाती है। यानी सूर्य जो अब तक उत्तरी गोलार्द्ध के सामने था, इस दिन से दक्षिणी गोलार्द्ध की ओर बढ़ने लगता है। योग के नजरिये से यह संक्रमण काल रूपान्तरण के लिए काफी उत्तम होता है।
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