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एनडीटीवी भले अपने घपलों के विरुद्ध हुई कार्रवाई को मीडिया पर हमला कहकर झूठ का पुलिंदा सामने रख रहा हो, लेकिन सत्य यह है कि उसके गोरखधंधों के कारोबार पर यूपीए सरकार कुण्डली मारकर बैठी रही। मामला कुछ करोड़ रुपए का नहीं है। बात निकली है तो बिला शक दूर तक जाएगी
ब्यूरो रिपोर्ट
हम सबको पता है कि केंद्र में भाजपानीत सरकार आने के बाद से देश में काले धन और आर्थिक घपलों के खिलाफ अभियान चल रहा है। यह सरकार जिन मुद्दों पर चुनकर आई है, यह उनमें से एक बड़ा मुद्दा है। इस कड़ी में हजारों छोटी-बड़ी कंपनियां और कई बड़े लोग जांच के दायरे में हैं। बहुतों पर छापे पड़े और कार्रवाई भी हुई। एक शिकायत एक मीडिया कंपनी के बारे में भी आई। यह भी पता चला कि राजनीतिक दबाव के कारण पिछली सरकार के दौरान इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की गई। क्या जांच एजेंसियों को उसे सिर्फ इसलिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह मीडिया कंपनी है?
यह कहानी एनडीटीवी की है। अपने बचाव में वह यही दलील दे रहा है। वह यह जताने की कोशिश कर रहा है कि ''समाचार चैनल होने के नाते उसके विशेषाधिकार हैं। उसके कथित आर्थिक घपलों की जांच करने का मतलब अभिव्यक्ति की आजादी का दमन है। वे चाहे जो करें, लेकिन उन पर देश का कानून लागू नहीं होता।'' यानी अगर कोई उसकी गलतियों की जांच करता है तो मतलब हुआ कि वह बदला ले रहा है।
क्या एनडीटीवी की ऐसी दलीलें उचित हैं? इस बात को समझने के लिए हमें 10 से 15 साल पीछे चलना होगा। जिस भाजपा पर एनडीटीवी से बदला लेने का आरोप है, 2003 में उसी की सरकार के दौरान स्टार न्यूज से अलग हुए प्रणव रॉय को 24 घंटे के दो-दो चैनल चलाने का लाइसेंस मिला था। 2004 तक कंपनी की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी। वाजपेयी सरकार के जाने के बाद एनडीटीवी के कारोबार को मानो पंख लग गए। अचानक भारी मात्रा में पैसा आने लगा, जिसे खपाने के लिए कथित तौर पर देश-विदेश में कई फर्जी कंपनियां बनीं। अब जो जानकारियां सामने आ रही हैं, उनके मुताबिक इन फर्जी कंपनियों के जरिए करोड़ों का लेन-देन हुआ। शेयर बाजार में सूचीबद्ध किसी कंपनी का ऐसा करना सामान्य तो कतई नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसी कंपनियों से अपने लेन-देन में पारदर्शिता की उम्मीद की जाती है।
दरअसल 2008 के मध्य से एनडीटीवी की मुश्किलें शुरू हुईं। यह वह समय था जब पूरी दुनिया में मंदी छाई थी और एनडीटीवी का शेयर जो कि 400 रुपये के ऊपर हुआ करता था, 100 रुपये से भी नीचे आ गया। कंपनी का मूल्य कम हुआ तो मौजूदा कर्जे चुकाना भी भारी पड़ गया। इस दौरान इंडियाबुल्स का ऋण चुकाने के लिए प्रणव रॉय ने आईसीआईसीआई बैंक से 350 करोड़ रुपये का ऋण लिया। इस पर सालाना ब्याज दर 19 प्रतिशत तय हुई। गारंटी के तौर पर उन्होंने एनडीटीवी में अपनी सारी निजी हिस्सेदारी और अपने और अपनी पत्नी के नाम पर बनाई कंपनी आरआरपीआर (राधिका रॉय प्रणव रॉय होल्डिंग्स) के करीब 61 फीसदी शेयरों को गिरवी रख दिया। यह आरोप भी सामने आया है कि एनडीटीवी ने इस देनदारी को अपनी परिसंपत्ति के तौर पर दर्शाया। बाद में कुछ ऐसी सौदेबाजी हुई कि इस ऋण पर ब्याज में भी जोरदार छूट मिल गई। एनडीटीवी ने साल भर के अंदर ही बैंक को ऋण की रकम कथित तौर पर चुका भी दी। लेकिन तभी यह जानकारी सामने आई कि एनडीटीवी ने अपनी कुल देनदारी से 48 करोड़ रुपये कम चुकाए। यहीं से कर्ज को लेकर सवाल उठने शुरू हो गए। आरोप लगा कि आईसीआईसीआई बैंक से पैसे लेकर अवैध तरीके से शेयर भाव में बदलाव करवाया गया और कंपनी के शेयर हासिल किए गए। बाद में असल देनदारी से कम रकम बैंक को लौटा दी गई। इस तरह से कर्ज लेने वाले ने एक साल तक पैसे अपने पास रखकर उससे 48 करोड़ रुपये का फायदा भी कमा लिया।
दिसंबर 2010 में संडे गार्जियन अखबार ने इस ऋण पर एक लेख छापा। इसमें कथित तौर पर दावा किया गया था कि एनडीटीवी के गिरवी शेयरों की कीमत 439 रुपये प्रति शेयर दिखाई गई है, जबकि वास्तव में उस वक्त इनका भाव 99 रुपये तक गिर चुका था। मीडिया की आजादी की बात करने वाले एनडीटीवी ने तब अखबार के संपादक एम.जे. अकबर और अन्य के खिलाफ 25 करोड़ रुपये मानहानि का दावा ठोक दिया था। यहां यह बताना जरूरी है कि एम.जे. अकबर तब भाजपा के सदस्य नहीं थे। एनडीटीवी की अर्जी पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने अखबार पर यह लेख दोबारा छापने या उसका प्रसार करने पर रोक लगा दी। यह मामला न्यायालय में लंबित है। इस लेख के कारण संडे गार्जियन की पत्रकारीय स्वतंत्रता भले ही अवरुद्ध कर दी गई, लेकिन मामला अधिकारियों की जानकारी में आ गया।
एनडीटीवी के सलाहकार रहे संजय दत्त ने पूरे मामले पर अप्रैल 2013 में रिजर्व बैंक को शिकायत की, जिसका जवाब आया कि ''यह कर्ज हमारे संज्ञान में है और इस पर नजर रखी जा रही है।'' शायद भ्रम फैलाने की नीयत से या अज्ञान के कारण कई लोग कह रहे हैं कि 2008 का मामला है तो अब कार्रवाई क्यों हुई। साथ ही एनडीटीवी का यह तर्क भी खारिज हो जाता है कि इस मामले से जुड़ी शिकायतों का किसी ने संज्ञान नहीं लिया।
एनडीटीवी ने छापेमारी को लेकर एक बयान जारी किया है, जिसकी आखिरी लाइन है कि ''ये मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश है''। तो सवाल यह है कि संडे गार्जियन अखबार पर 25 करोड़ रुपये का मुकदमा क्या था? अगर खबर गलत थी तो क्या एक खंडन या अपना पक्ष रखना काफी नहीं होता? संडे गार्जियन ही नहीं, कई छोटी-बड़ी समाचार वेबसाइटों और पत्रकारों को भी एनडीटीवी-आईसीआईसीआई बैंक सौदे के बारे में छापने के बदले कानूनी नोटिस और चेतावनियां भेजी गईं। जिसने भी इस कथित घपले की पड़ताल करनी चाही, करोड़ों रुपये के मानहानि के दावों से उनका मुंह बंद कर दिया गया। क्या कारण था कि एनडीटीवी के मालिक इस जानकारी को दबाने के लिए इस कदर परेशान थे?
एनडीटीवी की इस धौंस का असर यह हुआ कि काफी समय तक मुख्यधारा मीडिया से इस सौदे की चर्चा लगभग पूरी तरह गायब रही। हालांकि 'मानुषी' पत्रिका की संपादक मधु किश्वर ने इस मामले पर खुलकर बोलना जारी रखा। एनडीटीवी ने उन पर भी 5 करोड़ रुपये मानहानि का मुकदमा ठोक दिया। वे आज भी इसकी अदालती लड़ाई लड़ रही हैं। इस पूरे मामले में उनकी प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है। मधु किश्वर का कहना है कि ''बैंक ऋण में धांधली का यह मामला तो पानी में तैरते बर्फ के उस टुकड़े की तरह है जो बाहर दिखाई देता है। असली मामला तो हजारों करोड़ रुपये के हवाला का है। उस मामले में साफ सबूत हैं लेकिन उस पर अभी कोई कार्रवाई नहीं दिख रही।'' मधु किश्वर तो यहां तक शक जताती रही हैं कि तंत्र में एनडीटीवी के 'शुभचिंतकों' के कारण कार्रवाई में ढिलाई बरती जा रही है। उन्होंने ट्विटर पर लिखा है कि ''एनडीटीवी के बड़े घोटालों को छोड़कर तुलनात्मक रूप से छोटे मामले में कार्रवाई से उसे खुद को पीडि़त दिखाने का मौका मिल गया है। इसका फायदा उठाकर वे यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सरकार बदले की कार्रवाई कर रही है।''
एनडीटीवी कंपनी का दावा है कि वह ईमानदारी के उच्च आदर्शों का पालन करती है। लेकिन जिन-जिन कंपनियों के नाम इस मामले में सामने आए हैं, उनमें से ज्यादातर कोई कारोबार नहीं करतीं और सिर्फ कागज पर चलती हैं। उनके खातों में करोड़ों रुपये का लेन-देन होता रहा। ऐसी कंपनियों को कारोबारी भाषा में 'खोखा' या 'शेल कंपनी' कहा जाता है। जिस आरआरपीआर होल्डिंग्स का नाम आ रहा है वह भी एक तरह की खोखा कंपनी ही है। ये कंपनियां रिजर्व बैंक, शेयर बाजार और सेबी के नियमों को तोड़-मरोड़कर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के काम आती हैं। ऐसा कारोबारी व्यवहार भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत अवैध है। एनडीटीवी यह कहकर भी बचने की कोशिश कर रहा है कि आईसीआईसीआई एक निजी क्षेत्र का बैंक है इसलिए 48 करोड़ रुपये की गड़बड़ का कोई मतलब नहीं है। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि पिछले साल ही सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया था जिसमें साफ कहा गया है कि निजी बैंक भी सीबीआई की जांच के दायरे में आते हैं।
फिलहाल सीबीआई ने 88 पृष्ठ की एफआईआर दर्ज कर ली है। उम्मीद की जा रही है कि इसी के आधार पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जल्द ही हवाला निरोधक कानून के तहत मुकदमा दर्ज करेगा। जिसके बाद कानून के तहत संपत्ति कुर्क करने जैसी कार्रवाई भी हो सकती है। 2,030 करोड़ रुपये के कथित लेन-देन के मामले में प्रवर्तन निदेशालय विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून यानी 'फेमा' के तहत एनडीटीवी के खिलाफ पहले ही शिकायत दर्ज कर चुका है। आयकर विभाग ने 600 करोड़ रुपये अवैध तरीके से विदेश भेजने के मामले में एनडीटीवी पर 525 करोड़ रुपये का जुर्माना भी ठोक रखा है।
एनडीटीवी ही नहीं, उसके जैसी हजारों कंपनियों को गलत तौर-तरीके अपनाने के कारण ऐसी ही मुश्किलों से गुजरना पड़ रहा है। आमतौर पर ऐसी किसी कानूनी कार्रवाई में 2-3 साल लगना आम बात है। ऐसे में यह समझ से परे है कि कुछ लोग कार्रवाई के समय पर क्या सोचकर सवाल उठा रहे हैं।
एनडीटीवी की कथित आर्थिक अनियमितताओं पर खुलकर बोलने वालों में एक बड़ा नाम आर्थिक विचारक और लेखक एस. गुरुमूर्ति हैं। उन्होंने छापे की कार्रवाई के बाद न्यू इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखकर इस मामले से जुड़ी कई परतों को उजागर किया है। उन्होंने आईसीआईसीआई बैंक के ऋण के ईद-गिर्द कंपनी के अंदर चल रहे पत्र व्यवहारों को भी सार्वजनिक किया है। ये सारे तथ्य एक आपराधिक षड्यंत्र की तरफ इशारा कर रहे हैं, जिसकी सही जांच जरूरी है। यही कारण है कि एनडीटीवी के साथ सिर्फ वे मीडिया और पत्रकार हैं जिनकी राय के पीछे किसी तरह की वैचारिक मजबूरी है। द हिंदू अखबार की संपादक रहीं मालिनी पार्थसारथी ने गुरुमूर्ति के लेख पर मुहर लगाते हुए कहा है कि ''मुझे शक है कि एनडीटीवी का मामला प्रेस की आजादी पर हमला है। प्रेस की आजादी की आड़ में छिपने के बजाय कंपनी को जांच में सहयोग करना चाहिए। निजी मामलों में प्रेस की आजादी को लाना उचित नहीं है।''
लेकिन छापेमारी पर एडिटर्स गिल्ड ने आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर ऐसा बयान जारी किया, जिसे देखकर हैरानी होती है। इसमें कहा गया, ''सीबीआई ने एनडीटीवी और उसके प्रमोटर के दफ्तरों पर छापे मारे। मीडिया के दफ्तर में पुलिस या ऐसी किसी एजेंसी का घुसना गंभीर मामला है।'' जबकि सच यह है कि छापा प्रणय रॉय के घर पर पड़ा था। एनडीटीवी के दफ्तर, स्टूडियो या ऐसे किसी ठिकाने पर कोई कार्रवाई नहीं हुई जहां से खबरों से जुड़े कामकाज होते हों। अगर एडिटर्स गिल्ड जैसी संस्था तकनीकी तथ्यों के लिए ऐसी समझ रखती है तो इसे क्या कहा जाए? एडिटर्स गिल्ड मीडिया में कालेधन और ऐसी तमाम दूसरी विकृतियों को लेकर कितनी सजग है, यह बात इसी से समझ सकते हैं कि उसने इससे जुड़े पुराने तथ्यों को भी नजरअंदाज कर दिया। पत्रकार आर. राजगोपालन के मुताबिक ''2013 में तत्कालीन रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन ने एनडीटीवी के फेरा कानून उल्लंघन की लिखित जानकारी प्रवर्तन निदेशालय को दी थी। इस पहलू को एडिटर्स गिल्ड ने छिपा क्यों लिया?''
पूरे घटनाक्रम को देखें तो लगता है, एनडीटीवी खुद पर लगे आरोपों का जवाब देने के बजाय भ्रम फैलाने की रणनीति पर काम कर रहा है। उसके हिंदी चैनल पर अमेरिका और पोलैंड के उदाहरण देते हुए जनता को भड़काने की कोशिश की गई। कहा गया कि लोग इसे देश में प्रेस की आजादी का दमन मानते हुए सड़कों पर उतर आएं। विदेशी, खासतौर पर अमेरिकी अखबारों में अपने पेशेवर संपर्कों का फायदा उठाते हुए लेख छपवाए गए। इनमें गलत तथ्यों के आधार पर कहा जा रहा है कि छापेमारी की कार्रवाई मीडिया को डराने की नीयत से की गई है। कहा जाता है कि एनडीटीवी में एक जमाने में ज्यादातर भर्तियां उनकी होती थीं, जिनके मां-बाप किसी ऊंचे ओहदे पर थे। अंग्रेजी पत्रिका 'कारवां' ने दिसंबर 2015 के अंक में एनडीटीवी के आर्थिक घोटालों और वहां की पत्रकारिता पर एक लंबा-चौड़ा लेख प्रकाशित किया था। इस लेख में वहां काम करने वाले कई बड़े पत्रकारों के पारिवारिक संपर्कों की जानकारी छापी गई थी।
बहरहाल, एनडीटीवी के संदर्भ में बेहतर है कि हम सभी जांच पूरी होने का इंतजार करें। एनडीटीवी को यह अधिकार है कि वह अपने बचाव में जो चाहे कहे। जांच पूरी होने के बाद इससे सारे तथ्य और सबूत अदालत में रखे जाएंगे। साफ होगा कि क्या वाकई एनडीटीवी ने पत्रकारिता और उसकी स्वतंत्रता को ढाल बनाकर कुछ और ही कारोबार किया।
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