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चीन की बात आते ही क्यों भारत का विदेश प्रतिष्ठान नेहरू काल की अस्पष्ट सोच दर्शाता रहा है। क्यों नहीं हम एक संप्रभु बलशाली राष्ट्र के नाते चीन की बयानबाजियों का उतनी ही प्रखरता से जवाब दे पाते?
शंकर शरण
असम में भूपेन हजारिका पुल के उद्घाटन के बाद चीन ने भारत को 'संयमित' रहने की चेतावनी दी है। राम जाने, हमारे वैदेशिक संबंध संभालने वाले इस पर क्या कहेंगे? किन्तु लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अवलोकन करने वालों के लिए कुछ बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं।
पहली, चीन के बयान भारत पर एक विशेष मनोवैज्ञानिक दवाब डालने के लिए होते हैं। बस इतना ही उसका लक्ष्य होता है-मानसिक दबाव। दुर्भाग्यवश भारतीय राजनीतिक तंत्र में दलीय हित, बार-बार सत्ता बदलाव, अज्ञानी नेतागण, फलत: नौकरशाही की व्यावहारिक स्वायत्तता और उत्तरदायित्वहीनता, कूटनीति में गंभीर प्रशिक्षण व कड़ी जबावदेही का अभाव आदि कारणों से कई बार संबंधित जिम्मेदारी लिए हुए अधिकारी भी असल बात नहीं समझते। न उपाय खोज पाते हैं। वरना, उन्होंने चीन के ऐसे बयानों के विरुद्ध वैसे ही चुटीले, आत्मविश्वासपूर्ण और रोचक बयान तैयार रखे होते। केवल उसी से बहुत काम हो जाते!
हांस मार्गेन्थाऊ ने अपनी क्लासिक पुस्तक 'पॉलिटिक्स अमंग नेशंस'(1948) में लिखा है कि ''दो देशों के बीच संबंध केवल बंदूकों, मिसाइलों, सैनिकों की तुलनात्मक ताकत से तय नहीं होते। बल्कि कभी-कभी एक भंगिमा, नजर मिलाने या न मिलाने, मुस्कराने या सपाट चेहरा रखने, रुमाल गिराकर बढ़ने आदि से भी किसी देश की स्थिति देखी और तौली जाती है।'' वस्तुत: भारत-चीन के बीच संबंधों में तो विगत 50 साल से यही असली क्षेत्र हैं, जहां भारत भोलेपन से व्यवहार करता रहा है। पर तय मानिए, जिस दिन भारत ने चीन की कथनी-करनी पर विश्वासपूर्ण, खुशमिजाज, पर चुटीली टिप्पणियां करना सीख लिया, उसी दिन से भारत और चीन के बीच अधिक संयत संबंध बनने शुरू हो जाएंगे। निर्भीकता, वाक्पटुता और सद्भाव एक साथ स्पष्टता से दिखें, इसी में भारत की सफल चीन-नीति की एक कुंजी है।
दूसरी कुंजी तिब्बत पर भारत का रुख सुधारने में है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत और चीन के बीच सारी गड़बड़ी तिब्बत पर भारत द्वारा अपना कूटनीतिक अधिकार छोड़ देने से शुरू हुई है। 1949 से पहले के इतिहास में भारत और चीन के बीच कोई झगड़ा तो दूर, किसी मनो-मालिन्य का भी प्रमाण नहीं मिलता। लेकिन स्वयं स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री द्वारा तिब्बत चीन को सौंप दिए जाने के बाद से ही भारत की सीमाएं चीन से मिल गईं, जिसके बाद खटपट अवश्यंभावी थी। दो सहस्राब्दी से भी पहले चाणक्य ने बताया था कि यदि दो बड़े देशों की सीमाएं मिलें, तो वे मित्र नहीं रह सकते। मगर नेहरू मार्क्स-स्तालिन के दीवाने थे, चाणक्य को उन्होंने उपेक्षित किया। नतीजा देश को भुगतना पड़ा।
तिब्बत स्वतंत्र देश था। मार्च 1947 में दिल्ली में 'एशियन रिलेशंस कॉन्फ्रेंस' में तिब्बत और चीन, दोनों ने स्वतंत्र देशों की तरह हिस्सा लिया था। इसीलिए, आज तिब्बत की जो दुर्गति है, वह स्वतंत्र भारत के प्रथम नेतृत्व की की हुई है। इसी का एक शर्मनाक पहलू है कि तिब्बत की दुर्गति कराने से ही भारत की सीमाएं असुरक्षित हुईं और इतिहास में पहली बार भारत-चीन संबंध खराब हुए।
तिब्बत की स्वतंत्रता उसी तरह थी, जैसी नेपाल, भूटान या स्विट्जरलैंड जैसे देशों की है। यानी पास-पड़ोस के देशों की सहमति और छाया में स्वतंत्र। इसकी एक ही मुख्य शर्त होती है कि ऐसा देश अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तटस्थ रहेगा। तिब्बत ऐसा ही था, जिसकी जिम्मेदारी मुख्यत: भारत ने ली हुई थी। सदियों से सांस्कृतिक, भौगोलिक और व्यापारिक रूप से तिब्बत उसी तरह भारत से अधिक जुड़ा था, जैसे नेपाल। लेकिन जिस तरह स्वतंत्र भारत के प्रथम नेतृत्व ने नेपाल के प्रति लापरवाही रखी, उस से बहुत अधिक बुरा तिब्बत के साथ किया। स्वतंत्रता मिलते ही भारत ने अपनी ओर से तिब्बत में अपने तमाम कूटनीतिक अधिकार, कार्यालय और टैक्स व्यवस्थाएं खत्म कर दीं। कैलाश के पास मिनसार गांव विगत चार सदियों से भारतीय रियासत का अंग था। वह 1950 तक जम्मू-कश्मीर राज्य को टैक्स देता रहा था। वे सारी व्यवस्थाएं स्वतंत्र भारत को उत्तराधिकार में मिली थीं। उन्हें यथावत बनाए रखना ही उचित होता।
भारत और चीन के बीच स्वतंत्र या सीमित-स्वतंत्र तिब्बत बना रहना सामान्य संबंध रखने में उपयोगी था। फिर, हालिया विश्व इतिहास से भी साफ था कि तिब्बत की भौगोलिक स्थिति उसे अत्यंत महत्वपूर्ण बनाती है। इसीलिए अंग्रेजों ने वहां सदैव नजर रखी ताकि दूसरे कुदृष्टि न लगाएं। इसके अलावा, तिब्बत की सांस्कृतिक-सामाजिक स्थिति उसे सदैव भारत से जोड़े हुए थी।
लेकिन इन सबसे अनजान स्वतंत्र भारत ने रूमानी नीतियां शुरू कीं। तिब्बत पर स्वयं तिब्बतियों से कोई सलाह नहीं की गई! नेहरू चीन में कम्युनिस्ट क्रांति से सम्मोहित थे और अपनी सद्भावना पर स्वयं फिदा रहते थे। इसीलिए उनके लिए यह प्रश्न अनर्गल था कि स्वयं तिब्बतियों की इच्छा क्या है? यह सब बिना सोचे उन्होंने तिब्बत को चीन के हवाले कर दिया और अप्रैल, 1954 में कथित पंचशील समझौता किया।
उस समझौते का नाम भारतीय विदेश-नीति के विषय में प्राय: लिया जाता है। पर ध्यान दें कि वह समझौता तिब्बत और भारत के बीच व्यापार व संबंध के लिए हुआ था। उस दस्तावेज के नाम में ही स्पष्ट उल्लेख है-'चीन के तिब्बत क्षेत्र और भारत के बीच व्यापार और संबंध के बारे में'! इससे यह भी दिखता है कि भारत के साथ तिब्बत का संबंध एक प्रामाणिक एवं चीन द्वारा स्वीकृत तथ्य है।
अत: भारत को पूरा अधिकार है कि वह तिब्बत पर, तिब्बत के साथ अपनी साझी चिन्ताओं के बारे में, व्यापारिक और सांस्कृतिक जरूरतों के बारे में चर्चा करे। यही चीज आज भी चीन की चिन्ता, हमारी सीमाओं की असुरक्षा और सात दशकों की गैर-जिम्मेदारी को समझने का भी सूत्र है।
हमारे नेता, अधिकारी और बुद्धिजीवी 'तिब्बत रीजन ऑफ चाइना' की शब्दावली में सदैव 'चाइना' देखते हैं और तिब्बत भूल जाते हैं! जबकि उलटा भी संभव है कि हम सदैव तिब्बत का नाम लें और चीन को भूल जाएं। वैसे भी, तिब्बत हमारी सीमा पर है और चीन उसके परे। वस्तुत: समझौते के समय इसकी चर्चा इसी नाम से होती थी! समझौते के तुरंत बाद कोलकाता से प्रकाशित साप्ताहिक 'प्राची' के 9 मई, 1954 के अंक में संपादकीय का शीर्षक था: 'भारत-तिब्बत समझौता'! नेहरू ने उस समझौते को अपना तब तक का 'सबसे अच्छा काम' कहा था, जबकि उसके 8 ही वर्ष बाद कम्युनिस्ट चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। वस्तुत: जिस समय वह समझौता हो रहा था, उस समय भी चीन चोरी-छिपे जम्मू-कश्मीर के पूर्वी भाग में 179 कि.मी. अंदर घुसकर कब्जा कर रहा था। पर नेहरू चीन-मैत्री में ऐसे विभोर थे कि उन्होंने तिब्बत को समर्पित कर देने के बाद चीन से लग गई भारतीय सीमाओं की रक्षा की भी चिंता न की।
उलटे, नेहरू चीन को संयुक्त राष्ट्र में सदस्य बनाने, और सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट दिलाने का अभियान चला रहे थे। यह जानकर अनेक भारतीय चकित हो जाएंगे कि 1947 से 1956 तक अमेरिका और रूस, दोनों ही भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट देने को तैयार थे, जिसे स्वयं नेहरू ने ठुकराया। एक नहीं, कई बार! क्योंकि वे चीन को वह सीट दिलाना चाह रहे थे। यानी न केवल नेहरू ने चीन को तिब्बत समर्पित कर भारत की सीमाएं असुरक्षित कर लीं, बल्कि आक्रमणकारी चीन को विश्व-मंच पर विशिष्ट ताकत दिलाने का अभियान चलाया। इस के लिए भारत को दी जा रही वह ताकत जिद करके छोड़ दी। यह सब नेहरू जी ने लिख-लिखकर बताया है।
1950 में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन फॉस्टर डलेस ने भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलाने की औपचारिक तैयारी शुरू कर दी थी। तब अमेरिका में भारत की राजदूत और नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने यह लिखा था। इसके उत्तर में नेहरूजी ने उन्हें लिखा, ''यह अच्छा नहीं होगा और भारत इस का विरोध करेगा।''
ऐसी विचित्र, ख्याली राजनीति में डूबे रहने के कारण ही नेहरूजी को लद्दाख (अक्साई चिन) में चीन की घुसपैठ की जानकारी बहुत बाद में हुई। नेहरू मानकर चल रहे थे कि चीन उन का एहसानमंद है! लेकिन राजनीति में ऐसे अज्ञान और आत्म-मुग्धता की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। भारत में स्वतंत्रता-पूर्व से ही जनता को राजनीतिक अज्ञान की भयंकर कीमत चुकानी पड़ती रही है।
बहरहाल, प्रश्न है कि आज क्या करें? उत्तर है कि चीन के साथ सच्ची बराबरी की भावना रखें और प्रदर्शि करें। तिब्बत के प्रति अपनी जिम्मेदारी उठाएं और बेफिक्र होकर हर चीनी बयान और गतिविधि का समुचित उत्तर दें। न तो अपनी ओर से कोई सैनिक युद्ध छेड़ें, न ही युद्ध से बचने की झक पालें। इसी में शान्तिपूर्ण समाधान छिपा है।
चीन ऐसे अवसर देता रहता है कि हम तिब्बत मामले को सुसंगत रूप से उठा सकें। जब भारत के विरुद्ध कुख्यात आतंकवादी को भी चीन संयुक्त राष्ट्र में आतंकी घोषित करने का विरोध करता है, तब हमें दलाई लामा को 'भारत रत्न' देने और खुलकर शान्तिपूर्ण, राजनैतिक प्रचार करने देने से कौन-सी चीज रोकती है? यह वैसे भी बहुत पहले हो जाना चाहिए था। हमने तो टेरेसा जैसी विवादास्पद हस्ती को वह सम्मान दिया जिन्होंने भारत में अवैध कन्वर्जन कराए। जिनके गलत कामों पर उनके अपने लोगों ने प्रामाणिक रूप से बताया है। टेरेसा की तुलना में दलाई लामा तो अतुलनीय रूप से महान ज्ञानी, संत और विश्व-भर में अति-सम्मानित गुरु हैं। स्वयं को भारत का बेटा कहते हैं। उन्हें हम अपना रत्न न मानें, तो यह हमारी भीरुता है!
इसका कारण वह ऐतिहासिक गलतफहमी है जिसमें हम गत तीन पीढि़यों से डूबे हैं। नेहरू सरकार द्वारा तिब्बत और चीन मामले में जो भयंकर भूलें की गईं, उसे छिपाने की चिन्ता में अपने ही देशवासियों को प्रवंचना में सुला दिया गया। भूल-सुधार के बदले, उसे सही ठहराने के लिए इतिहास को छिपाने-मिटाने और चीन से डराने की नीति बना दी गई।
जबकि यथार्थवादी चीन सारा इतिहास याद रखता है और सचाई समझता है। वह तिब्बत और भारत, दोनों के अधिकार से अवगत है। यदि भारत ने तय कर लिया तो तिब्बत मामला दबाए रखना असंभव हो जाएगा। आखिर, जिस तिब्बत के साथ संबंध के बारे में भारत का समझौता 1954 में बीजिंग में ही हुआ था, उसी की चर्चा भारत क्यों नहीं कर सकता? बखूबी कर सकता है! चीन इसका कोई बचाव नहीं कर सकता कि उसने तिब्बत की स्वायत्तता का झांसा देकर उसे कुचलने-हड़पने की नीति बनाई। तिब्बत उसका नहीं था। अभी भी नहीं है। तिब्बत के लोग अंदर और बाहर संघर्ष कर रहे हैं। तिब्बत कोई मृत मुद्दा नहीं, एक जीवित घाव है, जिसका भरना बहुत कुछ इस पर निर्भर है कि भारत अपनी नीतियां कैसे संयोजित करता है। इस पर भारत की स्थिति पूरी दुनिया को प्रभावित कर सकती है।
थोड़ा अजीब लगेगा, किन्तु वस्तुत: इसीलिए चीन से हमारे संबंध खराब हैं कि हम सामान्य आचरण नहीं कर रहे। यदि 1959 या 1962 के बाद भारत ने डटकर तिब्बत की स्वतंत्रता-स्वायत्तता का मुद्दा उठाया होता, तो चीन को हमारे साथ सद्भावपूर्ण संबंध बनाने की चिंता रही होती। तिब्बत की स्थिति भी सुधरती, क्योंकि वह भारत-चीन के बीच अच्छे संबंध की शर्त-सा होता। इस के बदले 'हम चीन का क्या कर सकते हैं!' की बोदी मानसिकता ने ही भारत की कूटनीतिक दुर्गति की और चीन का मनोबल बढ़ाया। इस सरल सत्य को हमें देखना चाहिए।
स्वतंत्र भारत में वैदेशिक संबंधों का व्यावहारिक आधार बनाने के प्रति हम गाफिल रहे हैं। हमने इस पर सिर खपाने की जरूरत नहीं समझी कि आखिर चीन या कोई भी देश भारत के प्रति सम्मानपूर्ण व्यवहार किन कारणों से करेगा? किसी ठोस मुद्दे को पकड़ना ही वह कारण हो सकता है जो भारत के पास हो। हम शांतिप्रेमी हैं, यह कोई कारण नहीं जिससे कोई देश हमें महत्व दे। बल्कि वह इसीलिए हमारी उपेक्षा भी कर सकता है कि ऐसे देश से कोई समस्या नहीं होने वाली! हमने विदेश नीति में भारी आलस्य और नाकारापन दिखाया है।
जबकि कुछ काम सरलता से हो सकते थे। 1949 से 1956 के बीच हमारी तमाम गलतियों के बाद भी, जिस पंचशील समझौते को हमने इतना महत्व दिया, ठीक उसी का चीन द्वारा उल्लंघन करने के बाद तो तिब्बत पर नीति बदल सकती थी, बदलनी ही चाहिए थी! तिब्बती स्वायत्तता का प्रश्न भारत को जोरदार तरीके से उठाना चाहिए था। यह भारत का अधिकार था क्योंकि यह हमारी सुरक्षा से जुड़ा था। यह इसलिए भी सरल था, क्योंकि चीन कोई बड़ी हस्ती भी नहीं था। जबकि अमेरिका और रूस, दोनों भारत के समर्थक थे।
ध्यान रहे, चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के बाद विश्व-जनमत ने सबसे पहले भारत की ओर देखा था। यानी, विश्व का रुख भारतीय रुख से प्रभावित होना था। आज भी वही स्थिति है। तिब्बत की स्थिति से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला देश पड़ोसी भारत था। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र में भारत द्वारा चीन का ही समर्थन कर देने से दुनिया चुप हो गई। वरना तब लाल (कम्युनिस्ट) चीन महाशक्ति तो क्या, मान्यता प्राप्त देश तक न था! संयुक्त राष्ट्र में 1971 तक लाल चीन को नहीं, बल्कि ताइवान को मान्यता थी। अमेरिका ने तो चीन के साथ 1978 तक राजनयिक संबंध तक नहीं रखे थे।
अत: यदि मामले का रुख बदलता, यानी भारत आवाज उठाता, तो यूरोप, अमेरिका, रूस, सभी चीन पर दबाव डालते कि वह तिब्बत में मनमानी न करे। लेकिन भारत ने यह आज तक नहीं किया। इस प्रकार, कूटनीतिक वजन होने के बावजूद भारत ने उसका इस्तेमाल नहीं किया! तिब्बत की स्वायत्तता के विध्वंस से भारत की सुरक्षा के साथ-साथ सांस्कृतिक, पर्यावरणीय हितों को चोट पहंुची है। इस पर चुप्पी साधकर हम तिब्बत के साथ-साथ अपनी हानि भी बर्दाश्त कर रहे हैं। याद रहे, ऐसे देश की इज्जत विश्व-मंच पर नहीं होती जो अपनी हानि
बर्दाश्त करे! शुरू से ही नेहरूवादी बुद्धिजीवियों ने हमारे भोलेपन का लाभ उठाकर कायरता का तर्क पिलाने की कोशिश की है। मानो, तिब्बत पर कुछ कहते ही चीन युद्ध छेड़ देगा, फिर हम क्या कर सकते हैं, आदि। न केवल यह लज्जास्पद अज्ञान है, बल्कि इसी ने समस्या को बढ़ाया। क्योंकि एक बार ऐसी दब्बू प्रवृत्ति देख लेने के बाद किसी भी साम्राज्यवादी, लालची या अहंकारी की चाह बढ़ती जाती है।
जबकि चीन या कोई भी देश हर बात में युद्ध नहीं छेड़ देता। फिर, सेना आक्रमण का उत्तर देने के लिए ही होती है। इन सचाइयों की अनदेखी कर हर हाल में युद्ध से बचने की प्रवृत्ति हमारे अन्य हितों को चोट पहुंचाने के साथ-साथ अधिक सैन्य हानि भी कराती है। यह कूटनीति का सार्वभौमिक सत्य है कि जहां लड़ने की तैयारी हो वहीं शान्ति रहती है।
फिर, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति प्राय: भंगिमाओं से अधिक चलती है। चीन इसका विशेषत: उदाहरण है। उस ने 1978-79 में वियतनाम पर हमले के बाद से अभी तक कोई लड़ाई नहीं लड़ी है। वियतनाम को 'सबक सिखाने' का प्रयास भी महंगा पड़ा जब चीनियों को 50,000 सैनिकों से हाथ धोना पड़ा। इसीलिए, चीनी विमर्श में अमेरिकी, फ्रांसीसियों से लड़ाई का उल्लेख होता रहता है, मगर वियतनाम-युद्ध को वे याद नहीं करते। उस पर वे चुप्पी रखते हैं।
कहने का अर्थ है कि चीनी कूटनीति धमकियों से अधिक काम लेती है, लड़ाई से नहीं। हालिया दशकों में चीन ने रूस, जापान, कोरिया, फिलीपीन्स और अमेरिका से भी प्राय: भंगिमाओं से काम निकाला और व्यावहारिक समझौते किए है। अत: भारत को ही चीन से डरे रहने की जरूरत नहीं है।
इसलिए भी क्योंकि चीन ने 1962 में भारत पर पड़े मनोवैज्ञानिक प्रभाव का आज तक जमकर दोहन किया है। इतना चीन के लिए भी स्पष्ट है कि भारत कोई वियतनाम से भी अधिक दुर्बल देश नहीं। यह हमसे अधिक चीन समझता है। इसीलिए वह भारत के विरुद्ध धौंस जमाने, अपमानित करने का कोई मौका नहीं जाने देता। बात-बेबात तंज कसना, चेतावनी, कभी-कभी सैनिक टुकडि़यों से सीमा पर अतिक्रमण करना, आदि उसके पुराने लटके हैं। ताकि हम बराबरी से व्यवहार करने की सोचें भी नहीं।
यही, और केवल इसी ग्रंथि से मुक्त होना हमारी जरूरत है। इसका उपाय सैन्य-बल नहीं, केवल हरेक अवसर का सही उपयोग करने की चतुराई और निर्भीकता का मनोबल रखने भर में है। अभी तक हमारे कर्णधारों ने 1962 की अपमान-ग्रंथि के कारण चीन की आक्रामक भंगिमाओं को अनाश्यक रूप से अधिक महत्व दिया और चीन की दुर्बलताओं का मूल्यांकन नहीं किया। वहां लोकतंत्र की चाह, मानवाधिकारों की दुर्गति, अनेक पड़ोसी देशों से मनमुटाव और विश्व-व्यापार—यह सब चीन की भी चिंताएं हैं। चीन कोई सैन्य-सम्राट नहीं है जिसके प्रति सभी आदतन समर्पित हों। उलटे, जिस भी देश ने चीन के प्रति अनम्य बराबरी का रुख लिया है, उसके प्रति चीन ने भी व्यावहारिक रुख रखा है। वियतनाम के अलावा रूस, जापान और फिलीपीन्स भी इसके उदाहरण हैं।
निस्संदेह, वैदेशिक संबंध सैन्य-बल से अधिक मनोबल एवं बुद्धिमत्ता से तय होते हैं। गत 55 वर्षों में भारत ने सैन्य बल बढ़ाने की चिंता तो की, मगर अन्य महत्वपूर्ण कारकों को सुधारने पर नहीं सोचा। तिब्बत हमारे बीच सबसे महत्वपूर्ण कारक है। उसे बीच में लाए बिना भारत-चीन संबंध कभी सामान्य नहीं होंगे। ये बातें व्यवहारिक भी हैं। यदि दशकों से भारत ने सैन्यबल पर विशाल खर्च उठाया है तो उसे सदैव धमकियों से डरने की प्रवृत्ति छोड़नी ही चाहिए। क्योंकि यही प्रवृत्ति विविध दुश्मनों को आकर्षित करती है!
आखिर क्या कारण है कि भारत के परमाणु हथियार और प्रक्षेपास्त्रों से सज्जित होने के बाद भी पाकिस्तान या चीन छोटी-छोटी बातों पर भी हमें सुई चुभोने या अपमानित करने से नहीं हिचकते? स्पष्टत: मुख्य ताकत हथियारों में नहीं, कहीं और होती है। चीन के साथ तो विशेषत: हमें अपनी ग्रंथि दूर करनी चाहिए। उसके सामने खम ठोककर खड़े रहने की मानसिकता दिखाते हुए, जरूरत पड़े तो अपने बल का भी प्रदर्शन करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। यह हमारे राष्ट्रीय स्वास्थ्य के लिए अधिक बेहतर होगा। बनिस्बत इस मानसिकता में बने रहना कि 'चीन का हम क्या कर सकते हैं?'
फिर यह बड़ा भ्रम है कि तिब्बत का मसला उठाने या दलाई लामा को 'भारत रत्न' देने जैसे अहिंसक कार्यों का भी परिणाम युद्ध होगा। ऐसा नहीं हुआ करता। प्राय: बात का जबाव बात, और कूटनीति का उत्तर कूटनीति होता है। हमारे नेतागण ख्वामख्वाह झूठे तर्कों से हमें बहलाते रहे हैं। 1947 से आज तक दर्जनों अवसर आए जब हमारे सत्ताधारी कूटनीतिक-रणनीतिक वर्चस्व नहीं, तो बराबरी हासिल कर लेते। उसे भलमनसाहत, अज्ञान और ख्याली पुलावों में गंवाया जाता रहा है। केवल उसी को बदलने की जरूरत है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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