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खबरों की दुनिया बीते कुछ दिनों से बड़ी हलचल से गुजर रही है। रिपब्लिक टीवी आने से लगा, जैसे ठहरे हुए पानी में किसी ने कंकड़ फैक दिया हो। पहली बार कोई बड़ा चैनल इस वादे के साथ आया है कि वह राष्ट्र को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करेगा। वह उन लोगों की आवाज नहीं बनेगा, जो देश को नुकसान पहुंचाने के सपने देखते हैं। सवाल है कि ऐसे चैनलों की जरूरत क्यों पैदा हो रही है? इस जवाब समझना बहुत मुश्किल नहीं है, मीडिया में जितने भी बड़े नाम हैं, उन पर वामपंथी/कांग्रेसी विचारधारा बुरी तरह हावी है। सबसे बड़े मीडिया समूहों में से कुछ तो ऐसे हैं जिन्हें आपातकाल और बाद के दौर में बाकायदा सरकारी मदद से खड़ा किया गया था। ऐसे ज्यादातर मीडिया समूह वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर आतंकवाद, अलगाववाद और माओवाद को समर्थन देने वालों का मंच बनते रहते हैं। देश की संस्कृति और धर्म इनके लिए हास्यास्पद है। पर्व-त्योहार इन्हें दकियानूसी लगते हैं। इसी कारण लोगों में मौजूदा मीडिया के लिए एक तरह का अविश्वास पैदा होता जा रहा है।
ज्यादातर बड़े पत्रकारों को अपने निजी एजेंडे के कारण शक की नजर से देखा जाता है। कुल मिलाकर पूरी पत्रकारिता विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही है। शायद यही कारण था कि नए चैनल के प्रति लोगों में भारी उत्सुकता देखने को मिली। लेकिन कुछ स्वनामधन्य बड़े पत्रकारों ने नए चैनल के दुष्प्रचार की सारी हदें पार कर दीं। यह किसने कहा है कि देशनिष्ठ पत्रकारिता का मतलब सरकार-निष्ठ पत्रकारिता होती है? कुछ पत्रकारों और पार्टियों ने तो मिलकर चैनल के बहिष्कार का फतवा तक जारी करना शुरू कर दिया। इसी से समझ सकते हैं कि देश का मीडिया और पत्रकारिता राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर किस तरह बंटी हुई है। इतने वर्षों से निष्पक्षता के नाम पर दर्शकों और पाठकों को 'एजेंडा' परोसा जा रहा था। अब जब कुछ लोग चुनौती दे रहे हैं, तो उन्हें खारिज करने की कोशिश हो रही है। वरना ऐसा कैसे हुआ कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी से रिश्तों के आरोपी कैदी शहाबुद्दीन और लालू यादव की बातचीत की खबर पर अचानक मीडिया का एक तबका बचाव में सामने आ गया। कई बड़े संपादक उस डॉन का समर्थन करते दिखे जिसके हाथों पर लगा एक पत्रकार का खून अभी तक सूखा नहीं है। इंडिया टुडे और आजतक ने सुशील मोदी के हवाले से बीते हफ्ते खबर चलाई कि यदि नीतीश कुमार गठबंधन से अलग होते हैं तो भाजपा उन्हें समर्थन देने पर विचार कर सकती है। पर सुशील मोदी ने इंटरव्यू में ऐसा कहा ही नहीं। औपचारिक तौर पर खंडन आने के बाद भी झूठी खबर चलती रही। निष्पक्ष पत्रकारिता के नाम पर क्या चल रहा है, इसी से समझा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी में अरविंद केजरीवाल पर बेहद गंभीर आरोप लगाने वाले कपिल मिश्रा की खबर एनडीटीवी ने बार-बार यह बताते हुए दिखाई कि इनकी मां भाजपा में हैं। यह चैनल कभी नहीं बताता कि उसके किस पत्रकार का पति, भाई या बहन किस-किस पार्टी में है। एनडीटीवी का प्रबंधन सीधे तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता के परिवार से जुड़ा हुआ है। यह बात दर्शकों को नहीं बताई जाती तो कपिल मिश्रा की मां किस पार्टी में हैं, यह महत्वपूर्ण कैसे हो गया? पार्टी के बड़े लोग भले ही केजरीवाल का साथ छोड़ रहे हों, पर मीडिया के 'जाने-माने' लोग फिलहाल उनका साथ छोड़ते नहीं दिख रहे। रिश्वतखोरी का आरोप लगते ही करीब सभी चैनलों पर कुछ तय पत्रकार बचाव करते दिखने लगे। दलील थी कि केजरीवाल ऐसा नहीं कर सकते। आरोपों की सच्चाई जांचने की बजाय इनकी रुचि इसमें ज्यादा थी कि आरोप लगाने वाले के 'पीछे' कौन है। यह वैसी ही स्थिति है, जैसे कांग्रेस सरकार के वक्त कोई घोटाला सामने आने पर पहले से तय पत्रकार पार्टी प्रवक्ता की भूमिका में आ जाते थे। कुछ वक्त पहले तक गोवा का मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे एक संपादक तो भरे न्यूजरूम में यह चिल्लाते हुए सुने गए कि 'केजरीवाल का मेरे पास एसएमएस आ रहा है कि आप मेरे खिलाफ ज्यादा 'क्रिटिकल' हो रहे हो।'
बुलंदशहर में लव जिहाद के नाम पर हत्या की खबर सभी चैनलों और अखबारों ने प्रमुखता से चलाई। लेकिन जब असलियत सामने आई कि लड़की को नहीं पता था कि वह जिसके साथ जा रही है वह विजय नहीं, यूसुफ है। तो अचानक हर जगह से यह खबर उतर गई। दरअसल, यही वो मीडिया और संपादक हैं जो सरकारी दस्तावेजों को ठीक से पढ़ नहीं पाते और रेलवे में खान-पान में घोटाले की मनगढ़ंत कहानी रच देते हैं। सच्चाई सामने आने पर भूल-सुधार की औपचारिकता भी जरूरी नहीं समझते। मेरठ के जैन स्कूल के प्रधानाध्यापक बच्चों से छोटे बाल रखने को कहते हैं तो खबर चलाते हैं कि स्कूल ने 'योगी-कट' बाल रखने को कहा है। प्रचलित गर्भ संस्कार पर कोई संस्था कार्यक्रम आयोजित करती है तो उसे जाने बिना उसका मजाक उड़ाते हैं। ऐसा नहीं कि लोग इसके पीछे छिपी मंशा नहीं समझ रहे।
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