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कुछ राजनीतिक दलों के विरोध की आड़ में भारत की लिबरल बुद्धिजीवी जमात देश-विरोधी बयानबाजी कर सिर्फ वातावरण ही खराब नहीं कर रही बल्कि भीतर ही भीतर देश के बंटवारे के हालात भी पैदा कर रही है। इनकी पहचान करके वक्त रहते यथायोग्य इलाज करना जरूरी है
शंकर शरण
धर कुछ समय से भारत में कई जाने-माने बुद्धिजीवी देशभक्ति, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय अखंडता और हिन्दू चिन्ताओं की हंसी उड़ाने में लिप्त हैं। विचित्र बात है कि जब अमेरिका से लेकर ब्रिटेन, आॅस्ट्रेलिया तक बड़ी-बड़ी वैश्विक महाशक्तियां अपने-अपने देश के बारे में सोच रही हैं और वैश्विक कम, राष्ट्रवादी अधिक बन रही हैं, तब यहां कुछ बड़े बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद की खिल्ली उड़ा रहे हैं!
अभी-अभी देहरादून में एक साहित्य उत्सव में वरिष्ठ लेखिका नयनतारा सहगल ने कहा कि ‘राष्ट्रवाद मूर्खता की निशानी है।’ उनके विचार से 70 वर्ष से आजाद देश में राष्ट्रवाद का नारा लगाने की जरूरत नहीं है। तब संयुक्त राज्य अमेरिका तो 240 वर्ष से आजाद है! फिर वहां क्यों ‘अमेरिका फर्स्ट’ या ‘बाय अमेरिकन, हायर अमेरिकन’ की भावना तीव्र हुई है? ब्रिटेन केंद्रीय यूरोपीय देश है, लेकिन वह यूरोपीय संघ से अलग होकर अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को महत्व दे रहा है। उसी तरह, आॅस्टेÑलिया पूर्णत: अलग महाद्वीप ही है, जिसे न किसी से सीमा की रक्षा करनी, न किसी से पुराना झगड़ा या सिरदर्द है। तब वह क्यों राष्ट्रीय चिन्ता में पड़ा है?
अत: मामला ऐसा सीधा नहीं जैसा यहां नयनतारा जैसे लिबरल बुद्धिजीवी दिखा रहे हैं। उनके अनुसार स्वतंत्र देशों को राष्ट्रवाद की फिक्र नहीं करनी चाहिए। लेकिन कोई देश स्वतंत्र बना रहे, बचा रहे, इसकी फिक्र करनी होगी या नहीं? अत: जिन चीजों, तत्वों, समूहों, मतवादों से देश को खतरा है, उसके प्रति क्या करना चाहिए? कम से कम नयनतारा जैसी विदुषियों में यह जांच-परख करने की क्षमता अवश्य है कि वैसे तत्वों, मतवादों को प्रामाणिक रूप से पहचान सकें।
सो प्रश्न उठता है कि क्या राष्ट्रवाद की बात करने वाले लोग उनसे भी बुरे हैं जो लोग खुलेआम ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे…’ की विचारधारा फैलाते हैं? सचमुच, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि यहां कई बुद्धिजीवी केवल रा. स्व. संघ-भाजपा को निशाना बनाने के लिए राष्ट्रवाद या देशभक्ति तक को बुरा-भला कह बैठते हैं। यानी किसी दल की निंदा करने के चक्कर में देश-निंदक बन जाते हैं। किसी दल की निंदा करना सामान्य बात है, मगर उसे सनक बना लेना और इसके लिए स्थितियों, घटनाओं का अनुपात-बोध भुला देना हानिकारक है। ऐसे बुद्धिजीवी कभी विचार नहीं करते कि वे 20 वर्ष से ऐसा कहते रहे हैं, तब भी उनकी बातें देश के लोगों को क्यों नहीं कायल करतीं। क्या वैसे लेखकों, बुद्धिजीवियों को कभी आत्म-चिंतन नहीं करना चाहिए?
समस्या यह है कि ऐसे बुद्धिजीवियों ने अपनी मान्यताओं या सिद्धांतों की कोई कसौटी नहीं रखी। राष्ट्रवाद, सेक्यूलरिज्म, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक समानता, अयोध्या विवाद, कश्मीर आदि किसी विषय पर वे कोई कसौटी स्वीकार नहीं करते। ऐसी कसौटी जिससे किसी विषय या पक्ष का सही-गलत तय हो सके। जैसे, सैद्धांतिक स्पष्टता, प्रामाणिक आंकड़े, ठोस घटनाक्रम या जनमत का समर्थन, इनमें से किसी को भी वे कसौटी नहीं मानते। यानी ऐसा सुसंगत आधार, जिससे यह तय हो कि किसी मुद्दे पर कौन सी बात उचित या अनुचित है। इसके बदले इन बुद्धिजीवियों में केवल उच्छृंखल जिद है कि जिस दल, नेता या विचार को वे नापसंद करें, उसके विरुद्ध हर हाल में जिहाद छेड़े रहेंगे। इसे विद्वता क्या, सामान्य बुद्धि भी नहीं कहा जा सकता।
देशभक्ति या राष्ट्रवाद जैसे विषय को दलीय पसंद-नापसंद का शिकार बनाना दुर्भाग्यपूर्ण है। जैसे, नयनतारा का यह कहना कि ‘‘जो लोग राष्ट्रवाद का नारा लगा रहे हैं, वे देश के स्वतंत्रता आंदोलन में कहीं नहीं थे’’ केवल किन्हीं दल-विशेष के विरुद्ध छींटाकशी है। लेकिन इसके लिए राष्ट्रवाद को बुरा-भला कहने की क्या जरूरत थी? वह किसे निशाना बना रही हैं?
निस्संदेह, आज देश में वैसे लोग गिने-चुने ही बचे हैं जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लिया था। मजे की बात है कि स्वयं नयनतारा ने भी उसमें भाग नहीं लिया था। संयोगवश इसे उनकी सगी मौसी कृष्णा हठीसिंह ने दर्ज भी कर दिया है। अपने संस्मरण ‘नेहरू परिवार की एक झांकी’ में उन्होंने लिखा है कि विजयलक्ष्मी पंडित की दोनों बेटियों को पढ़ने के लिए अमेरिका भेज दिया गया था, ताकि उन्हें राजनीतिक गतिविधियों से बचाकर रखा जाए। ये दोनों बेटियां थीं-नयनतारा और चंद्रलेखा। रोचक बात यह है कि तब इसकी देशभर में आलोचना भी हुई थी। यानी, स्वतंत्रता से पहले भारत में भी कुछ नेताओं के इस दोहरेपन को देशवासियों ने महसूस किया था कि: दूसरों को देश के लिए कष्ट उठाने का आहवान करना और अपने बाल-बच्चों को निजी कैरियर का ध्यान रखने के लिए प्रेरित करना। क्या आज के अनेक वामपंथी और इस्लामी नेताओं ने यही नहीं किया है?
कृष्णा हठीसिंह के अपने शब्दों में, ‘‘जब ये वहां (अमेरिका) गयीं तो भारत में इसकी कड़ी आलोचना की गयी। हमारे नेताओं, जिनमें जवाहर भी शामिल थे, ने विद्यार्थियों को अध्ययन छोड़कर स्वातंत्र्य संग्राम में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। तथापि हमारी भतीजियों को बाहर भेज दिया गया ताकि वे भी राजनीतिक भंवर में न फंस जाएं, यद्यपि हजारों की संख्या में लड़के और लड़कियां दीर्घकालीन कारावास भोग रहे थे।’’ [‘नेहरू परिवार की एक झांकी’, भाग 3, प्राची (साप्ताहिक), कलकत्ता, 13 मार्च 1955] इस साप्ताहिक के संपादक सीताराम गोयल थे।
उस प्रसंग का उल्लेख इसलिए अभी प्रासंगिक हुआ, क्योंकि नयनतारा ने किन्हीं लोगों को ताना दिया है कि वे देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में कहीं नहीं थे। उन्हें याद रखना चाहिए कि वे स्वयं उस आंदोलन में नहीं थीं और मजे से अमेरिका में पढ़ाई कर रही थीं, जबकि उनसे छोटी आयु के हजारों लड़के-लड़कियां देश के लिए जेल भोग रहे थे!
किंतु यदि नयनतारा जी यह ताना किन्हीं संगठनों को दे रही हैं तब भी याद रहे कि कांग्रेस कोई दल नहीं, मंच था जिसमें हरेक विचार, संगठनों के लोग शामिल थे। श्रीअरविन्द, लाला लाजपत राय से लेकर डॉ. हेडगेवार, डॉ. लोहिया और जेड.ए. अहमद तक, यानी सनातनी हिन्दू, आर्य समाजी से लेकर समाजवादी, कम्युनिस्ट तक कांग्रेस में रहे थे। वस्तुत: कांग्रेस के स्वयंसेवकों का संगठन ‘कांग्रेस सेवा दल’ भी अपनी वेश-भूषा और कार्य में तुरत बाद बने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा ही था। यह संयोग नहीं था, क्योंकि कांग्रेस सेवा दल के संस्थापक डॉ. हार्डीकर और डॉ. हेडगेवार सहपाठी थे और दोनों साथ-साथ राजनीतिक सक्रियता में थे। अत: कांग्रेस सेवा दल की स्थापना में डॉ. हेडगेवार का भी योगदान नोट किया जाना चाहिए जिन्होंने बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।
यदि नयनतारा जी ने आमतौर पर हिन्दू चेतना वाले राष्ट्रवादियों पर तंज कसा है, तो उन जैसी प्रतिष्ठित विदुषी को ऐतिहासिक तथ्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी कि भारत में महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा आरंभ किए गए आर्य समाज ने ही सबसे बड़ी संख्या में और सबसे योग्य देशभक्त दिए जिन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन भी खड़ा किया। आर्य समाज1875 में ही बना था। तब से उसने राष्ट्रीय नवजागरण, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए जितने कार्य किए, उसकी तुलना में कांग्रेस का योगदान भी छोटा है। कांग्रेस के आधिकारिक इतिहासकार पट्टाभि सीतारमैया ने महर्षि दयानन्द को ‘राष्ट्र-पितामह’ की संज्ञा दी है, जिसका महत्व समझा जाना चाहिए। दयानन्द के अलावा श्रीअरविन्द के स्वदेशी आंदोलन का भी महान योगदान है। इसने भारत माता, राष्ट्रीय शिक्षा जैसे सभी विचार और सत्याग्रह, अवज्ञा, जैसे संघर्ष के वे उपकरण प्रदान किए जिनका बाद में गांधीजी ने उपयोग किया। अत: ‘वैदिक पुनर्जागरण’, ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’, जैसे नारों से खिन्न होने वाले बुद्धिजीवी नोट करें कि पिछले डेढ़ सौ वर्ष से इस देश के सब से सच्चे सपूत वही साबित हुए हैं, जिन्होंने इन नारों से प्रेरणा ली। इसके बदले ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ और ‘द्वि-राष्ट्रवाद’ जैसे नारे लहराने वाले ही एक बार भारत को तोड़ चुके हैं। यह कोई संयोग नहीं कि आज भारत के टुकड़े करने की नारेबाजी का बचाव करने वाले ठीक वही संगठन और हलके हैं, जिनके पुरखों ने दो-राष्ट्र की दलील देकर 1947 में देश का खूनी विभाजन करवाया था। बहरहाल, अभी राष्ट्रवाद को बुरा-भला कहने वालों में हर तरह के लोग हैं, जिन्हें ठीक से पहचानकर समुचित नीति अपनानी चाहिए। उनमें वैसे मतिहीन भी हैं जो देश-दुनिया के इतिहास या वर्तमान से भी बहुत परिचित नहीं, और हर फैशनेबल विरोध में शामिल हो जाते हैं ताकि उन्हें भी प्रचार मिले। उन पर दया करनी चाहिए और सचाई दिखाने का प्रयत्न करना चाहिए।
मगर, उस बौद्धिक झुंड में वैसे रंगे सियार भी हैं जो अपनी राजनीति या दूसरों के बहलावे, उकसावे पर भारत-विरोधी रणनीतियों के औजार बन जाते हैं। उनसे साथ विचारों के साथ-साथ कानूनी रूप से भी निपटना चाहिए। ऐसा न करना लाखों-लाख देशवासियों के जानो-माल को खतरे में डालने के समान होगा। यह 1940-47 के बीच हो चुका है, और बाद में भी कश्मीर जैसे क्षेत्रों में होता रहा है। इस बिन्दु पर इसलिए भी दृढ़ता रखनी चाहिए क्योंकि आज दुनिया में कही जगह भयंकर लड़ाइयां हो रही हैं, जहां एक पक्ष द्वारा देश की रक्षा ही केंद्र में है। इन विराट सचाइयों के बावजूद यहां जो बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद को ‘मूर्खता’ कह रहे हैं, वह आश्चर्यजनक है। पर उनसे यह सीख भी लेनी चाहिए कि हमारे देश की समस्याएं आर्थिक ही नहीं हैं, अनेक ऐसी भी हैं जिनका समाधान आर्थिक क्षेत्र में है ही नहीं। उनका समाधान शिक्षा व राजनीति में बुनियादी सुधार करने तथा राजनीतिक मनोबल पर निर्भर है। ऐसी समस्याओं की उपेक्षा करते हुए केवल रोजमर्रा की जरूरतों पर नीतियां बनाना बुद्धिमत्ता नहीं है।
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