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कभी भारत के साथ सभ्यतामूलक नाता जोड़ने वाले जर्मनी के विद्वान आज हैरान हैं कि वहां ईसाइयत के मुरीदों की तादाद घट क्यों रही है। यूरोप में जगह-जगह अनीश्वरवादियों ने पंथ त्यागने की मुहिम छेड़ी हुई है। आएदिन मोर्चे निकालकर जत्थे के जत्थे पंथ से अलग होने की घोषणाएं कर रहे हैं। इससे प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक, दोनों में हड़कम्प है
मोरेश्वर जोशी
विश्व में यूरोप, उत्तर अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया और रूस जैसे देश आज ईसाई के रूप में अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। इसमें सबसे अधिक तेजी जर्मनी में दिखाई देती है। 21वीं सदी की शुरुआत के बाद तो यह प्रक्रिया और तेज हो चुकी है। पिछले 300 वर्ष में जिन यूरोपीय देशों ने सारी दुनिया पर राज किया, आज वही अपनी ईसाई पहचान गंवाते जा रहेहैं। इससे सबसे ज्यादा हैरान वे देश हैं जिन पर कभी उनकी सत्ता हुआ करती थी।
सोवियत संघ का साम्राज्य 27 वर्ष पूर्व बिखर गया था और एक महासत्ता टूट गई थी। उसी तरह इस समय ईसाई साम्राज्य बिखरने के कगार पर है। यूरोप-अमेरिका में ईसाइयों के अल्पसंख्यक होने से पैदा होने वाली खाई को पाटने के लिए चीन, भारत में कन्वर्जन और सब-सहारा प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि के कुछ प्रयास जारी हैं। लेकिन पिछले 500 वर्ष में अत्याचार के रास्ते कई देशों को लूटने वाला यह साम्राज्य बना रहेगा, ऐसा लगता नहीं। अमेरिका ने स्वयं को बहुनस्लीय दिखाने के लिए ओबामा को राष्टÑपति बनाया था, उसी तरह ऐसा भी हो सकता है कि जल्दी ही हमें पोप के पद पर कोई अश्वेत दिख जाए।
जर्मनी के कोलोन शहर में ओर्नेट नामक एक हजार वर्ष पुराना ऐतिहासिक चर्च है। चर्च के पास कुछ चौराहे पार विदेशी पर्यटकों की बसें रुकती हैं और आगे करीब डेढ़ फर्लांग तक पैदल चलना पड़ता है। हमने चर्च में देखा कि आगे की तरफ कुछ लोग प्रार्थनाएं कर रहे थे और पीछे तीन चौथाई बेंच खाली ही थे। पीछे की तरफ भारत, ब्राजील, चीन, मलेशिया जैसे देशों के पर्यटक आ-जा रहे थे। करीब 60 साल के एक चर्च मिशनरी सबसे दुआ-सलाम कर रहे थे। हवा काफी सर्द थी। चर्च में ज्यादा रोशनी नहीं थी। चर्च में बेंचों की कतार से जरा आगे एक ब्लैकबोर्ड पर चॉक से जर्मन भाषा में कुछ लिखा गया था, सबसे नीचे एक पंक्ति अंग्रेजी में थी-‘वाइ आर वी माइनॉरिटी’। यानी शाम को उस विषय पर कोई सभा होनी थी। वहां एक पादरी से मैंने पूछा, ‘‘क्या वास्तव में ऐसी स्थिति है?’’ उसने कहा, ‘‘वास्तव में तो स्थिति इससे कहीं अधिक गंभीर है’’। वह बात मेरे दिमाग में बैठ गई।
वापस लौटकर इंटरनेट पर तीन वर्ष पुराना न्यू आब्जर्बर अखबार पढ़ने को मिला। उसमें शीर्षक था, ‘क्रिश्चिएनिटी इज डाइंग आउट इन जर्मनी’। उसमें जानकारी सीमित थी, लेकिन महत्वपूर्ण थी। उसके निष्कर्षों के अनुसार ईसाई समाज वहां कुछ वर्ष पहले ही अल्पसंख्यक बन चुका था।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी विभाजित हुआ था और 45 वर्ष बाद वे हिस्से वापस मिले थे। उस समय पूर्वी जर्मनी में पंथ का संदर्भ नाममात्र को था। उस हिस्से में कम्युनिस्ट वातावरण होने के कारण पंथ से अलगाव की प्रक्रिया तेजी से घटित हुई। 4 वर्ष पूर्व की जानकारी के अनुसार वहां 52 प्रतिशत लोग ऊपर वाले में विश्वास नहीं करते थे। केवल 8 प्रतिशत लोग ही आस्थावान थे। लेकिन पश्चिमी जर्मनी में 54 प्रतिशत लोगों की ऊपर वाले में आस्था थी। जर्मनी के दोनों हिस्सों की स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि जर्मनी ईसाई अल्पसंख्यक देश है। उस समाचारपत्र में और भी जानकारी दी गई थी। आस्थावानों में 36 प्रतिशत लोग 68 साल से ऊपर थे। 28 वर्ष से कम आयु के सिर्फ 18 प्रतिशत ही आस्थावान थे। पूर्वी जर्मनी में 68 से अधिक उम्र के केवल 12 प्रतिशत लोग ऊपर वाले को मानते थे। 28 से कम आयु वालों में एक प्रतिशत भी ईसाइयत को मानने वाले नहीं थे। पैरिश सुपरिटेंडेंट रुडीगर हॉकर का कहना है कि एक साल के अंदर लगातार कई चर्च बंद हुए हैं। प्रोटेस्टेंट में स्थिति यह है कि बड़ी उम्र के चलते दुनिया से विदा लेने वालों की संख्या बढ़ रही है, नई पीढ़ी बप्तिस्मा के लिए तैयार नहीं है। फिलहाल प्रोटेस्टेंट और कैथोलिकों में कुल आस्थावान 50 प्रतिशत ही हैं। उनमें भी पंथ न मानने वालों की संख्या बढ़ रही है। हॉकर के अपने इलाके में 2000-12 के बीच 400 कैथोलिक और 100 प्रोटेस्टेंट चर्च बंद कर दिए गए। अन्य 700 में लोगों का आना बहुत कम हुआ है। प्रोटेस्टेंट में केवल 4 प्रतिशत लोग चर्च जाते हैं और कैथोलिकों में केवल 12.5 प्रतिशत। वहां की डेर स्पीगेल नामक पत्रिका की कुछ वर्ष की जानकारी के अनुसार, वहां की जरूरत के 10 प्रतिशत यानी 1300 पादरी भारत से ले जाए गए थे। भारत से गए बेंजमिन गैस्पर नामक पादरी का अनुभव बड़ा कटु रहा। उसका कहना है कि भारत के कई चर्चों में हजारों लोग प्रार्थना में भाग लेते हैं, जबकि जर्मनी में 60 वर्ष से अधिक की केवल 60-70 महिलाएं आती हैं। उसकी तुलना में जर्मनी में मुसलमानों की स्थिति सुधर रही है। पटरी बदलता देश जर्मनी की जनसंख्या में 5 फीसदी मुसलमान हैं यानी 45 लाख। उनकी वहां 200 मस्जिदें हैं। उनमें से 40 मस्जिदें बहुत बड़ी हैं। नमाज के लिए और 2600 प्रार्थना स्थल हंै। बिना अनुमति बनाई गई इमारतों की संख्या भी बड़ी है। 128 मस्जिदें निमार्णाधीन हैं। भारत में अल्पसंख्यक होने के बावजूद उनके कट्टर तत्वों का बर्ताव जर्मनी में भी दिखता है। अरबी देशों से शरणार्थियों के आने से यह और भी कटु हो गया है। मुसलमानों की वहां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीकों से वर्चस्व की जिद राष्ट्रीय समस्या है। एक लंबे समय तक मान्यता थी कि यूरोप में सभ्यता नाम की चीज केवल जर्मनी में है, क्योंकि जर्मनी भारत की आर्य सभ्यता से जुड़ा है। एक बड़ा वर्ग यह मानने वालों का था कि जर्मन भाषा संस्कृत से उपजी है। जर्मनी में संस्कृत साहित्य का अध्ययन करने वालों की एक बड़ी संख्या हुआ करती थी।
इस सब पर रोशनी डालने वाली रेमंड स्क्वॉब की पुस्तक ‘द ओरिएंटल रेनेसॉ’ 30 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी। उसमें उन्होंने 1700 से 1950 तक के यूरोप में भारतीय जागरण का इतिहास दिया है। यूरोपीय सभ्यता भारत से ही आई है, यह मानने वाले जर्मनी ने ही बाद में यूरोप की जरूरतें पूरी करने हेतु यह कहना प्रारंभ किया कि ‘यूरोप से जाने वाली सेमेटिक टोलियों ने भारत को सभ्यता दी है जबकि इतिहास दिखाता है कि आर्य सभ्यता भारत से गई थी। उस समय यूरोपीय लोगों को दुनियाभर में जारी नरसंहार, गुलामी और भयंकर लूट के लिए पांथिक और भावनात्मक समर्थन चाहिए था। यूरोप ने अफ्रीका में उस दौरान दो लाख गुलाम बनाए। उनमें से आधे ही अगले तट पर पहुंचे जबकि आधों को जहाज डुबाकर मार डाला। पिछले पचास वर्ष में दुनिया के अधिकांश देशों ने उस समय के यूरोपीय देशों द्वारा थोपे गए इतिहास को नकारा है।
तत्कालीन साम्राज्य की जरूरतों के अनुरूप इतिहास किस तरह 180 डिग्री घूम जाता है, इसका उत्कृष्ट उदाहरण है जर्मनी के मैक्समूलर का लेखन।
अठारहवीं सदी में जर्मनी कालिदास
के शाकुंतलम्, श्रीमद्भगवद्गीता और ऋग्वेद के अनुवाद से प्रभावित था। इस संदर्भ में मैक्समूलर का एक किस्सा उल्लेखनीय है।125 वर्ष पूर्व ग्रामोफोन स्वाभाविक ही उत्सुकता का विषय था। उस पर पहली आवाज किसकी रिकार्ड करनी है, यह विषय जब सामने आया तब पूरी जर्मनी में बुद्धिमान के रूप में विख्यात प्रो. मैक्समूलर का नाम सामने आया। जब उनसे इस बारे में कहा गया तो वे तैयार तो हुए लेकिन कहा कि विश्व में जो पहली आवाज सुनी गई जाए, वह ज्ञान के ग्रंथ ऋग्वेद की पहली ऋचा हो। उनका यह सुझाव मान लिया गया और वह ऋचा रिकार्ड भी की गई। जर्मनी और पड़ोस के देशों में जहां पहले भारत को ही सारे विश्व की सभ्यता का स्रोत मानने वाले जो विचारक थे, वहीं धीरे-धीरे ‘आर्य की सभ्यता भारत से आई’ कहने की बजाय लोग ‘आर्य यहां से वहां गए’ ऐसा कहने लगे। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी 200 वर्ष चली लूट एवं नरसंहार के लिए एक समर्थन की आवश्यकता थी। इस सारे इतिहास के सफर में एक समय पूरे यूरोप को ईसाई मत के आधार पर लूटने की प्रेरणा देने वाले जर्मनी में अब लोग जत्थों में तेजी से ईसाई मत से दूर होते जा रहे हंै। ल्ल
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