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‘मनीषा मंदिर’ की संस्थापिका डा. सरोजनी अग्रवाल एक-दो नहीं बल्कि आठ सौ निराश्रित-असहाय बेटियों की मां हैं। वे इन बेटियों को स्नेह तो दे ही रहीं हैं, उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए भी कृतसंकल्पित हैं
—सोनम भारती
निशांत कुमार आजाद
लखनऊ का गोमती नगर शहर के सबसे समृद्ध क्षेत्रों में एक है। बड़े-बड़े मॉल, आम्बेडकर पार्क, गगनचुंबी इमारतें यहां की पहचान हंै। यहीं स्थित है ‘मनीषा मंदिर।’ यह घर किसी राहगीर के लिए सामान्य मकान हो सकता है लेकिन अनाथ, बेसहारा और निराश्रित लड़कियों के लिए ऐसी जगह है जहां उन्हें अथाह मातृत्व मिलता है वह भी बिना किसी लोभ के।
मनीषा मंदिर की स्थापना की कहानी बड़ी ही मार्मिक है। एक मां के लिए एक बेटी को खोने का दर्द ह्दयविदारक होता है। लेकिन यह मां अन्य माताओं से भिन्न हैं, जिन्होंने अपनी इस वेदना को ताकत बना लिया। यह कहानी है डॉ. सरोजनी अग्रवाल की। रुंधे गले से डॉ. अग्रवाल बताती हैं, ‘‘हम सब खुशी से जीवन बिता रहे थे। भगवान ने मुझे दो बेटे दिए थे लेकिन मुझे एक बेटी की अभिलाषा थी और यह मुराद भी पूरी हुई। मुझे जुड़वां बच्चे हुए, एक बेटा और एक बेटी। लेकिन मेरी यह खुशी बहुत जल्दी तबाह हो गई। 1 अप्रैल, 1978 की घटना ने मेरी पूरी जिंदगी बदल दी। सड़क दुर्घटना ने मेरी साढ़े आठ साल की मनीषा को मुझ से छीन लिया और मेरी दुनिया वीरान हो गई। घटना ने मुझे अंदर तक तोड़ दिया था, लेकिन मैंने निश्चय किया कि मैं अपनी व्यथा को अपनी ताकत और प्रेरणा बनाऊंगी। मन बनाया कि भगवान ने मेरी मनीषा तो छीन ली लेकिन उन सभी अनाथ और निराश्रित बेटियों को पालूंगी जिन्हें मातृत्व और देखभाल की जरूरत है। मैंने ‘मनीषा मंदिर’ बनाकर यह कार्य शुरू किया। 30 साल पहले जिस बेटी को खोया वह तो आज नहीं है लेकिन 800 बेटियों की मैं मां हूं।’’
डॉ. सरोजनी ने यहां रहने वाली 15 लड़कियों की शादी भी करवाई है जो आज प्रसन्नता के साथ अपना जीवन जी रही हैं। यहां रहने वाली लड़कियों की सेवा और प्रेम ने उनके घाव को काफी हद तक भर भी दिया है। डॉ. अग्रवाल कहती हैं, ‘‘लगता है भगवान ने मेरे लिए कुछ और ही सोच रखा था इसलिए उसने मेरी मनीषा मुझसे छीन ली। वह चाहता था कि मैं उन सभी बच्चियों की मां बनूं जिन्हें मां की जरूरत थी। इसलिए उसने मुझे चुना। इन लड़कियों ने मेरी जिंदगी बदल दी। प्रत्येक लड़की में मैं अपनी मनीषा को देखती हूं।’’ वे कहती हैं कि मैं भगवान को धन्यवाद देती हूं कि उन्होंने मेरे माध्यम से मनीषा को अमर कर दिया। मनीषा मेरी प्रेरणा है।
वर्तमान में मनीषा मंदिर में 26 लड़कियां रहती हैं। कुछ अनाथ तो कुछ घर-परिवार से त्यागी हुर्इं। डॉ. अग्रवाल ने जिस पहली लड़की को गोद लिया था वह गूंगी और बहरी थी। उसके जन्म लेने के चंद समय में ही उसकी मां ने प्राण त्याग दिए थे। मंदिर की सभी लड़कियों में एक समानता है, सभी का उपनाम ‘भारती’ है। डॉ. अग्रवाल बताती हैं, ‘‘मैंने यह इसलिए किया ताकि सभी लड़कियां महसूस करें कि हम सभी एक ही परिवार की हैं।’’
मनीषा मंदिर को अनाथाश्रम कहना इसका अपमान करना होगा। यह एक मंदिर समान है जहां अनाथ और निराश्रित बेटियों को सिर्फ घर ही नहीं मिलता बल्कि उन्हें मां के रूप में वह पे्रम का आंचल मिलता है जिसकी कमी सिर्फ मां ही पूरी कर सकती है। मंदिर की स्थापना 1985 में डॉ. अग्रवाल ने अपने छोटे से घर से की। शुरुआत में इन बेटियों की संख्या कम थी लेकिन धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ती गई। फिर एक ही घर में इनको रखना आसान नहीं था। तब उन्होंने एक घर किराए पर लिया। किराए के मकान से मनीषा मंदिर तक का सफर आसान नहीं था। डॉ. अग्रवाल एक जानी मानी कवियत्री और लेखिका भी हैं। उन्होंने अब तक 26 उपन्यास लिखे हैं। इसमें ‘कोई तो सुनेगा’ और ‘तान्या’ बहुचर्चित हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी है जिसका नाम है ‘बात स्वयं बोलेगी’। बेटियों की देखभाल से समय न बच पाने के कारण उन्होंने अपने इस लेखन प्रेम को त्याग दिया है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि उन्हें इसका अफसोस नहीं है। वे कहती हैं, ‘‘मैंने अपनी बेटियों के लिए लिखना छोड़ दिया है लेकिन मुझे इस बात का कोई दुख नहीं। आपको समाज में बहुत सी लेखिकाएं मिल जाएंगी लेकिन बहुत कम ऐसी मां मिलेंगी जो निराश्रित बेटियों की मां बनकर पालती हैं।’’
डॉ. अग्रवाल का मनीषा मंदिर स्थापित करने का संकल्प इतना दृढ़ था कि उन्होंने अपनी रॉयलटी से कमाई मनीषा मंदिर की स्थापना में लगा दी। विगत वर्षों में मनीषा मंदिर ने तो कई बार अपना स्थान बदला लेकिन नहीं बदला तो उसका उद्देश्य। आज उसी मेहनत का फल है कि मंदिर में सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। बच्चों के पढ़ने का कमरा, खेलने के लिए मैदान और भी बहुत कुछ। मनीषा मंदिर की सभी लड़कियां नियमित रूप से स्कूल जाती हैं। 18 वर्ष की आयु के बाद उन्हें नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ताकि वे आत्मनिर्भर बनें। डॉ. अग्रवाल कहती हैं, ‘‘मैंने तिनका-तिनका जोड़कर मनीषा मंदिर नामक घरौंदा
बनाया है।’’
मनीषा मंदिर की लड़कियों के लिए डॉ. अग्रवाल ही उनकी दुनिया हैं। यहां लंबे समय से रह रही शालिनी भारती बताती हैं कि मुझे याद नहीं मैं यहां कब आई थी, लेकिन मैं इतना जानती हूं कि डॉ. मां ही मेरी दुनिया हैं। अगर मुझसे पूछा जाए कि किसे सबसे ज्यादा प्रेम करती हो तो मेरा जवाब होगा-मां। शालनी बताती है,‘‘स्कूल के बाद मां मुझे पढ़ाती हैं और मुझसे जुड़ी हर चीज का ख्याल रखती हैं।’’ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के मुद्दे पर डॉ. अग्रवाल कहती हैं, ‘‘बेटियां समाज की आधारशिला है, लड़कियां सृष्टि का आधार हैं। एक अच्छे समाज का निर्माण, एक अच्छी महिला ही कर सकती है। लेकिन मन को तब दुख होता है जब यही समाज लड़कियों को बोझ समझता है। बेटियों के बिना कोई कैसे किसी समाज की कल्पना कर सकता है।’’
वे मनीषा मंदिर स्कॉलरशिप प्रोग्राम भी चलाती हैं। वे कहती हैं, ‘‘समाज में ऐसी बहुत सी लड़कियां हैं जो पढ़ना चाहती हैं लेकिन कुछ विपरीत हालात की वजह से नहीं पढ़ पाती हैं। ऐसी बच्चियों को प्रोत्साहन देने के लिए मैंने दो स्कॉलरशिप प्रोग्राम शुरू किए हैं। मैं चाहती हूं कि सभी लड़कियां आत्मनिर्भर बनें जिसके लिए अच्छी शिक्षा बहुत मायने रखती है। इसका परिणाम भी दिखाई देता है। यहां की लड़कियां अलग-अलग क्षेत्रों में नौकरियां पा रही हैं।’’
आयु के इस पड़ाव पर उनका हौसला देखते ही बनता है। वे कहती हैं कि अंतिम सांस तक इसी ऊर्जा के साथ बेटियों के लिए कार्य करती रहूंगी। डॉ. अग्रवाल का बेटियों के लिए प्रेम सिर्फ रख-रखाव तक ही सीमित नहीं है। वह उनकी शादियां भी कराती हैं। उनके योग्य सुयोग्य वर मिले, इसकी पूरी चिंता उन्हें रहती है। परिवार के सहयोग के बारे में पूछने पर डॉ. अग्रवाल बताती है,‘‘मेरे पति और उनका परिवार मेरे इस कदम से बहुत सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि वास्तविकता में यह सोच बहुत अच्छी है लेकिन बहुत ही कठिन भी। लेकिन मैंने तो संकल्प ले लिया था कि मैं अपने सपनों को पूरा करूंगी और मैंने किया। बाद में उन लोगों ने भी इस यात्रा में मेरा पूरा सहयोग किया। मैंने अंतत: मनीषा मंदिर की स्थापना कर ली। इस दौरान कभी भी धैर्य नहीं खोया, हालात चाहे कैसे भी क्यों न रहे हों। मुझे ईश्वर पर अटूट विश्वास है। उनकी कृपा से ही मैंने सभी बाधाओं को आसानी से पार किया।
मनीषा को याद करते हुए वे गुनगुनाती हैं-
बेटियों का क्या कहें, वेद की ऋचाएं हैं, प्यारी लगती जैसी पुरवा हवाएं हैं।
छोटे-छोटे हाथों से, प्यारी प्यारी बातों से
दर्द दूर करने की, चरक दवाएं हैं,
मीठी गुड़धानी सी, निष्ठावान, करुणामयी,
देश की तरक्की की, लहराती ध्वजाएं हैं।
डॉ. अग्रवाल के बेटे पति तो मंदिर के अनेक कार्यों में सहयोग तो करते ही हैं बेटे भी मां के कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग करते हैं। वे समाज से निवेदन करती हैं कि भ्रूणहत्या न करें। बेटियां हैं तो यह समाज है। आज एक तरफ जहां वृद्धाश्रम और अनाथालय बढ़ रहे, बच्चे अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ आ रहे हैं, ऐसे में मनीषा मंदिर इन सभी लोगों के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं।
‘‘मां से भी हैं बढ़कर’’
‘‘मैं मनीषा मंदिर तब आई जब मैं तीसरी कक्षा में थी और अब बीएससी कर रही हूं। आज यह सब सिर्फ डॉ.मां की वजह से संभव हो पाया। उन्होंने मेरी परवरिश बिल्कुल अपनी बेटी जैसी की। वे हमारी हर चीज का ख्याल रखती हैं। उनकी ऊर्जा हमें प्रेरणा देती है। मां ने जो हमारे लिए किया, वह कोई नहीं कर सकता। मनीषा मंदिर अनाथ आश्रम नहीं बल्कि एक ऐसा घर है जहां हम लोगों को अथाह स्रेह और प्रेम मिलता है। मेरे लिए ये मां उस मां से भी बढ़कर है जिसने मुझे जन्म दिया। मैं भाग्यशाली हूं जो मुझे ऐसी मां मिली।’’ —सोनम भारती
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