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माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और साथ ही अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है।
अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा।
विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढि़ए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
मैं आज दोपहर रिपोर्टिंग के लिए फील्ड में गई थी। वहां मेरी मुलाकात एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से हुई। वह शहर से लगभग 30 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव में आंगनवाड़ी चलाती है। इस साल 22 दिसंबर को दिल्ली के विज्ञान भवन में उसे सर्वश्रेष्ठ आंगनवाड़ी कार्यकर्ता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिलेगा। उससे पूछा तो पता चला कि विकास से कोसों दूर उस छोटे से गांव में जिंदगी गुजारना कितना मुश्किल है। फिर भी उसने नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाने का बीड़ा उठाया। उससे बात करने लगी तो अच्छी बात कहते हुए भी उसकी आंखों में आंसू आ जाते और कटु लम्हों को याद कर भी आंसू छलकने को बेकरार दिखते थे। वहां सुपरवाइजर ने उस महिला के बारे में बताया कि उसने 35 साल बाद दोबारा पढ़ाई शुरू की। हाल ही में उसने राजनीतिशास्त्र में एम.ए. की पढ़ाई पूरी की है।
मैंने उससे पूछा कि दोबारा पढ़ाई शुरू करना कितना मुश्किल रहा। सवाल सुनते ही वह रो पड़ी। कहने लगी, ''जीने से ज्यादा मुश्किल पढ़ना होता है।'' मैंने पूछा- 'कैसे?' …तो उसने बताया, ''बचपन में पढ़ना चाहती थी, पर 12वीं की पढ़ाई पूरी होते ही घरवालों ने शादी कर दी। ससुराल गई तो कॉलेज गांव से इतनी दूर था कि घरवालों ने पढ़ाने से मना कर दिया। फिर घर की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। लिहाजा, आंगनवाड़ी में काम करना शुरू कर दिया ताकि कुछ पैसे जोड़ कर फिर से पढ़ाई शुरू कर सकूं। इसी दौरान बेटी हो गई तो पढ़ने के अरमान दिल में ही कैद होकर रह गए। फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ी और बेटी के बड़ी होने का इंतजार किया। बेटी बड़ी हो गई तो फिर से गर्भ में शिशु आ गया। मन तो पहले ही बना चुकी थी, इसलिए सारी बंदिशें तोड़कर सिर्फ अपने दिल की बात सुनी। छह महीने की गर्भावस्था में 15 किलोमीटर साइकिल चलाकर बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा देने गई। पेपर देकर जैसे ही परीक्षा हॉल से निकली तो लगा, जैसे मैंने अपने जीने का मकसद पूरा कर लिया। उस दिन पहली बार रूह को चैन मिला।'' इतना बोलने के बाद वह सिसकने लगी।
फिर उसने कहा, ''बी.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई जारी रखने की इच्छा हुई, लेकिन सास-ससुर कहने लगे कि खुद की बेटी 12वीं पढ़ रही है। अब आगे पढ़कर क्या करोगी? पर मेरा मन नहीं माना। पूरा परिवार एक तरफ खड़ा था और मैं अकेली। गांव वाले मुझ पर हंसते थे। मेरा मजाक उड़ाते थे। कहते थे- इस उम्र में पढ़ने जाने की सोच रही है… पागल है। तब बेटी ने धीरे से कहा- मां आप पढ़ो। मंै आपके साथ हूं। बेटी के भरोसे एम.ए. की परीक्षा पास कर गई।'' इतना सब सुनकर, इतनी विषम परिस्थिति में उस गरीब महिला के संघर्ष को देखकर अपने आप पर गुस्सा आने लगा। मैं सोच रही थी, मेरे जीवन में तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, फिर भी मैं परिस्थितियों से क्यों भाग रही हूं?
एक दिन पहले यह पत्र आपको लिखा था, जिसे आज भेज रही हूं। *
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