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-मोरेश्वर जोशी
यूरोप में 'स्केनडिनेवियन ब्लॉक ऑफ नेशन्स' के रूप में पहचाने जाने वाले देशों में ईसाईयत से दूर होने की लहर कितनी तेज है, इसका अंदाजा आसानी से नहीं लगेगा। उदाहरण के लिए, डेनमार्क में केवल तीन माह में 10,000 लोगों ने ईसाईयत को त्याग दिया और नार्वे में तो केवल तीन दिन में 15,000 लोगों ने ईसाई मत से नाता तोड़ लिया है। स्केडिनेवियाई देशों में डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन प्रमुख हैं, जबकि फिनलैंड,आइसलैंड, फारोई आइलैंड भी स्केनडिनेवियाई देशों का हिस्सा माने जाते हैं। उपरोक्त छह देशों में ईसाईयत के मामले में स्थिति कमोबेश एक सी है। डेनमार्क से सटे उत्तर जर्मनी और नीदरलैंड में गत अप्रैल में कुछ दिन बिताने पर यहां के हालात से परिचय हुआ।
ये स्केनडिनेवियाई देश ब्रिटेन, पुर्तगाल अथवा स्पेन की तरह दूसरे देशों पर राज करने वाले उन देशों में से नहीं हैं जिन्होंने दूसरों को लूटकर अपने देशों को संपन्न बनाया। आखिर ऐसे देशों में, जहां कई सदियों तक पंथ की सत्ता रही थी, वहां अचानक उसे छोड़ने की लहर क्यों उठी, इसे लेकर वहां के समाजशास्त्री चिंतामग्न हैं। इन देशों के संचार माध्यमों और सभा-सम्मेलनों में भी यह विषय बड़े पैमाने पर उठ रहा है। 10-15,000 की संख्या में ईसाईयत त्यागने के मामले निश्चित ही सामान्य घटनाक्रम नहीं हैं। डेनमार्क में तो आमतौर पर हर तीन माह में 5,000 लोग ऐसा कर रहे हैं। वास्तव में ईसाई मत को वहां सरकारी मान्यता प्राप्त है। लेेकिन अन्य यूरोपीय देशों की तरह ही पिछले दशक से शुरू हुए इस क्रम का अब अनुपात बढ़ गया है। फिर भी वहां के चर्च संगठनों के प्रवक्ता इसे रफा-दफा करने के अंदाज में कहते हैं कि ऐसा समय कभी-कभी आ जाता है, लेकिन बाद में लोग वापस आते हैं। कोपेनहेगन चर्च ऑफ आर लेडी के डीन अंडर गेडकार्ड का कहना है कि लोगों के मत छोड़ने की मुहिम के चलते यह परिणाम सामने आया है।
डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में चर्च पदाधिकारी ईसाईयत से दूर होने वालों के मन टटोल रहे हैं। उनका कहना है कि कल ये लोग वापस लौटेंगे। हालांकि चर्च काउंसिल के एक सदस्य, वहां के ईसाई नेता क्रिस्टीन राऊन ने कहा कि ईसाईयत छोड़ने वालों को वे रोकेंगे नहीं, और व्यवस्था करेंगे कि उन्हें इसमें कम से कम मुश्किलें आएं। उनका कहना था कि उन लोगों ने यद्यपि मत तो छोड़ा है, लेकिन चर्च के अन्य सामाजिक कायार्ें के बहाने उन्हें चर्च संगठनों से जोड़े रखा जाए।
वहां के जानकारों का कहना है कि असल में 2007 से लोगों के ईसाईयत से विदा होने की प्रक्रिया में रह-रहकर तेजी आती रही है। छह महीने पूर्व उसमें बहुत तेजी आ गई थी। पर इस सारे मामले में एक अलग ही समस्या खड़ी हुई है। वह यह कि वहां का नगर निगम अथवा सरकार अपने कर राजस्व से कहीं आधा प्रतिशत तो कहीं डेढ़ प्रतिशत हिस्सा चर्च को देती है। अब जब चर्च के लोग चर्च से बाहर निकलने लगे हंै, तो यह मांग भी उठने लगी है कि उसे दिया जाने वाला पैसा भी रोक दिया जाए। हालांकि नार्वे की स्थिति अन्य देशों से अलग है। एक तो वहां चर्च के काम का कम्प्यूटरीकरण हुआ है। वहां कम्प्यूटर पर चर्च की सदस्यता ली जाती है और छोड़ी भी जा सकती है। वहां आए दिन हजारों लोग सदस्यता रद्द कर रहे हैं। वहां के 'वीजी न्यूज' नामक समाचारपत्र ने जानकारी दी है कि पिछले कुछ समय में 15,000 लोगों ने चर्च से विदा ली। उसका कहना है कि हाल के दिनों में चर्च के पास कुल त्यागपत्र के 24,278 आवेदन आए, जबकि प्रवेश के 1,369 आवेदन आए। इसमें उस देश में लूथेरन चर्च की बिशप हेल्गा हौगलैंड बायफुग्लेन नामक की महिला की प्रतिक्रिया एकदम अलग थी। उनका कहना था, ''हमारे चर्च के कुल 38 लाख सदस्य हैं जिनमें से कुछ ने सदस्यता छोड़ी भी है तो ये बेचैन होने की बात नहीं है। कुछ लोगों के मत से निकलने का हमें अंदेशा था और हम उसके लिए तैयार भी थे। ''यह चीज साफ बताती है कि नार्वे में हर व्यक्ति के मत की स्वतंत्रता को अत्यंत महत्व दिया जाता है। चर्च का संदेश प्रसारित करना हमारा कर्तव्य है जो हम करते रहेंगे।'' हर चर्च का एक खास अनुयायी वर्ग होता है। ऐसे ही एक वर्ग के सदस्यों का कहना है कि यूं तो उनमें से कोई किसी भी चर्च का सदस्य नहीं है, लेकिन वे चर्च के द्वारा शुरू किए गए सामाजिक उपक्रमों के सदस्य बनाने की मुहिम चला रहे हैं और उसके अच्छे परिणाम मिल रहे हैं। नार्वे में इस संदर्भ में कुछ माह पूर्व मोरी नामक संस्था ने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट बनाई थी। उसके आंकडे़ भी इस पर रोशनी डालते हैं। इस सर्वेक्षण में 4,000 लोगों ने हिस्सा लिया था जिसमें से 39 प्रतिशत ने कहा था कि उनका पंथ पर विश्वास नहीं है, जबकि 37 प्रतिशत लोगों ने पंथ पर अपना विश्वास जताया था। 24 प्रतिशत लोगों ने लिखा था-'कह नहीं सकते'। इस रिपोर्ट का उल्लेख करने का कारण यह है कि 1985 में हुए इसके ऐसे ही एक सर्वेक्षण में 50 प्रतिशत लोगों ने पंथ में आस्था जताई थी जबकि 20 प्रतिशत ने पंथ में आस्था न होने की बात कही थी।
नार्वे किसी समय बड़े पैमाने पर पांथिक आस्थावान देश था। उसी तरह इसी देश की एक महिला सिग्रीड एंन्सेट को 1928 में ईसा मसीह के जीवन एवं उपदेश पर उनके उपन्यास के लिए नोबेल सम्मान मिला था। 'मध्यकालीन उत्तर यूरोप में समृद्ध सांस्कृतिक जीवन' विषय से जुड़े उनके उपन्यास का नोबेल समिति ने विशेष उल्लेख किया था। लेकिन हाल में वैश्विक ख्यातिप्राप्त 'सलोन' पत्रिका ने विश्व के अनीश्वरवादी अथवा भौतिकवादी देशों का जो क्रम बनाया है, उनमें नार्वे पहले आठ देशों में था। उसमें स्वीडन, डेनमार्क जैसे स्केनडिनेवियाई देशों के साथ ही जापान, चेक रिपब्लिक भी थे।
2012 में लूथेरन चर्च को सरकार द्वारा प्राप्त 'अधिकृत चर्च' की मान्यता भी रद्द की गई। पिछला वर्ष का इस दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा था, इस मायने में कि पंथ को मानने वालों और न मानने वालों की संख्या बराबर थी। इस वर्ष नास्तिकों का अनुपात बढ़ा है। नार्वे की राजधानी ओस्लो में ईसाई मत छोड़ने वालों का बहुमत है और आस्तिक 29 प्रतिशत यानी अल्पमत में हंै। पिछले 10 वषार्ें में और एक बात स्पष्ट हो चुकी है, वह यह कि परिवार में नए बच्चे के जन्म के बाद चर्च में जाकर उसका नामकरण करने की विधि, जिसे बपतिस्मा कहते हैं, में भी बड़े पैमाने पर कमी आई है। अर्थात् जिन्होंने इससे पूर्व ही चर्च से नाता तोड़ा है, उनका इनमें समावेश नहीं है। जो विद्यमान सदस्य हैं, ऐसे 2005 में जन्मे 76 प्रतिशत बालकों का बपतिस्मा चर्च में हुआ है। लेकिन 2015 में यह अनुपात 58 प्रतिशत रहा था। 2014 -15 में 1,22,000 लोगों ने चर्च से विदा ली, जो उनकी जनसंख्या का दो प्रतिशत है। यूरोप में यह प्रथा है कि जो चर्च का सदस्य है, उसे सप्ताह में कम से कम एक बार तो चर्च में हाजिरी देनी जरूरी है। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या तेजी से घट रही है।
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