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उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने कुछ कड़े कदमों के साथ में बदलाव लाने की नीयत के संकेत दिए हैं। नतीजतन एक के बाद एक घोटाले सामने आने लगे हैं और पिछली सरकार के समय जनता के खून-पसीने की कमाई की कमाई से घर भरने वालों के निलंबन के साथ कार्रवाई शुरू गई है।
सतीश शर्मा
उत्तराखंड में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी भाजपा ने मुख्यमंत्री के रूप में त्रिवेंद्र सिंह रावत की ताजपोशी करके कई संदेश दे दिए हैं। भाजपा नेतृत्व ने यह साफ कर दिया है कि 'अटल ने बनाया, मोदी संवारेंगे' का उसका नारा महज चुनावी नारा नहीं था, बल्कि पार्टी वाकई उत्तराखंड में बदलाव की बयार लाना चाहती है। विकास की एक ऐसी बयार जिसका लाभ नेताओं को नहीं, राज्य की आम जनता को मिले। त्रिवेंद्र की ताजपोशी के जरिये भाजपा ने यह भी संकेत दिया है कि बहुमत का रिकॉर्ड टूटने के बाद अब 'आयाराम, गयाराम' के दबाव में नहीं वरन पार्टी के सिद्धांतों के अनुरूप निर्णय होंगे और प्राथमिकताएं तय की जाएंगी। उत्तराखंड में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने का कोई एक कारण नहीं है।
उत्तराखंड में पिछले पांच साल में तेजी से भ्रष्टाचार बढ़ा और आम जनता को लगने लगा कि सरकार सिर्फ चंद लोगों को फायदा पहुंचाने का जरिया बन कर रह गई है। राज्य में नौकरशाही केवल अपने और सत्ता के नजदीकी लोगों के लाभ की चिंता करने वाली मशीनरी बनकर जिस तरह आम जनता के दुख-दर्द से लगातार दूर होती चली गई, वह भी राज्यवासियों की नजरों से छिपा नहीं था। एक स्टिंग में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत का करोड़ों रुपए के लेनदेन से नजरें फेर लेने जैसी बात कहना भी लोगों को उससे ज्यादा बेचैन कर गया, जितनी बेचैनी उत्तराखंड के अवाम को राज्य में कांग्रेसी मंत्रियों और विधायकों की बगावत से उपजी अस्थिरता से हुई थी।
मोदी सरकार की नोटबंदी के प्रभावों का अध्ययन करने में सियासी जगत से सूरमाओं की तरह ही मीडिया के विश्लेषक भी चूक गए। नोटबंदी के बाद लगी लम्बी-लम्बी कतारों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ नाराजगी का प्रमाण मानने वालों ने इस जमीनी सच्चाई की ओर ध्यान ही नहीं दिया कि मोदी सरकार के इस क्रांतिकारी कदम पर मध्यम वर्ग और निचले तबके की प्रतिक्रिया क्या है ? दरअसल, मध्यम वर्ग और निचले तबके ने नोटबंदी को भ्रष्टाचारियों और काले धन की धुरी बने सम्पन्न वर्ग के खिलाफ एक कठोर कार्रवाई के रूप में लिया और यह महसूस किया कि नोटबंदी के माध्यम से इन्हीं ज्यादा नोट बटोरने वालों को चोट पहुंचाई गई है। वैसे वोट देने के लिए आर्थिक रूप से कमजोर तबका ही कतारों में लगता है। इस तबके ने नोटबंदी के बाद अपने खाली पड़े बैंक खातों में नोटों की फसल लहलहाती देखी, तो उसे प्रधानमंत्री का एक-एक शब्द सच लगने लगा। वहीं सर्जिकल स्ट्राइक ने रही-सही कसर पूरी कर दी। इस सबका नजीता प्रचंड बहुमत के रूप में भाजपा को सिर-आंखों पर लेने के रूप में सामने आया।
इस प्रचंड बहुमत ने एक बात और सिद्ध की है कि चुनावी विशेषज्ञ बनकर अखबारों और चैनलों में हर रोज घंटों शब्दों की जुगाली करने वाले दरअसल जनता के मन की बात जान ही नहीं पाये। यही वजह है कि चुनाव परिणामों को लेकर लगभग सारे विशेषज्ञों के सारे अनुमान जमीन सूंघते नजर आये।
उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने कुछ कड़े कदमों के साथ राज्य में बदलाव लाने की नीयत के संकेत दिए हैं। इसी का परिणाम है कि राज्य में एक के बाद एक घोटाले खुलकर सामने आने लगे हैं और पिछली सरकार के समय जनता के खून-पसीने की कमाई की बंदरबांट करके घर भरने वालों के निलंबन के साथ उनके खिलाफ कार्रवाई का श्रीगणेश हो गया है। यह सही दिशा में शुरुआत का सुखद एहसास कराने वाली पहल जरूर है, लेकिन त्रिवेंद्र सरकार के लिए समक्ष इससे कहीं बड़ी चुनौतियां मौजूद हैं। उत्तराखंड की इस नई सरकार की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि भले ही पार्टी आला कमान के इशारे पर त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री का ताज सौंप दिया गया हो, लेकिन भाजपा में ऐसे नेताओं की संख्या काफी है, जो खुद को इस पद के लिए ज्यादा उपयुक्त और योग्य मानते हैं। ऐसे नेता त्रिवेंद्र की राह में कांटे नहीं बिछाएंगे, यह सोचना भी मुश्किल लगता है।
इसके अलावा करीब 45,000 करोड़ रुपए के कर्ज के बोझ में दबे इस राज्य की आर्थिक स्थिति लगातार डांवाडोल होती जा रही है। राज्य में पर्यटन को बढ़ाने, निवेश को प्रोत्साहित करने और राजस्व के नए स्रोत खोजने की बहुत बड़ी चुनौतियां भी सामने हैं। वित्तीय संकट से उत्तराखंड को बचाने के लिए नौकरशाही में जिस तरह की सोच होनी चाहिए, उसका नितांत अभाव है। नए उद्योगों और अन्य निवेशों को रैड कार्पेट बिछाकर आकर्षित करने की बजाय उत्तराखंड की नौकरशाही अब तक उनकी राह में कांटे बोकर अपना उल्लू सीधा करने वाली प्रवृत्ति ही दर्शाती रही है। यह एक ऐसा राज्य बन गया है, जहां लोगों को सुविधा देने के लिए राज्य सरकार सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके पहाड़ पर मेडिकल कॉलेज बनाती है, तो नौकरशाही उसके लिए डॉक्टर ढूंढाने और सुविधाएं जुटाने में हांफने लगती है। कोई निजी समूह सरकार से मदद लिए बगैर मेडिकल कॉलेज बनाना चाहता है, तो नौकरशाह कानूनों के विरुद्ध कदम उठाकर नौकरशाही उसकी राह में दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं। हालांकि इस सबकी वजह कमजोर राजनीतिक नेतृत्व भी रहा है।
त्रिवेंद्र सरकार ने जिस तरह कामकाज की शुरुआत की है, उससे यह उम्मीद तो जागी ही है कि उत्तराखंड को विकास में अवरोध खड़े करने वाली सरकारी सोच से छुटकारा मिलेगा और राज्य के शहीदों के सपने पूरे करने की दिशा में ईमानदार कोशिशें होंगी।
(लेखक देहरादून से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'गढ़वाल पोस्ट' के संपादक हैं)
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