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पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की मातृभाषा पंजाबी है, लेकिन जनगणना में वहां उर्दू थोपी जा रही है। अपनी भाषा के साथ अन्याय और इसकी अनदेखी से नाराज लोग सड़कों पर उतर रहे
विवेक शुक्ला
पंजाबी बनाम उर्दू के सवाल पर पाकिस्तान दो-फाड़ हो रहा है। पहले हुआ था उर्दू बनाम बांग्ला के सवाल पर। पंजाब की भाषा यानी पंजाबी के अपमान और अनदेखी से क्षुब्ध लाखों पंजाबी भाषी पाकिस्तानी धीरे-धीरे सड़कों पर उतर रहे हैं। चूंकि इन दिनों पाकिस्तान में जनगणना चल रही है सो इनकी चिंता और सक्रियता बढ़ गई है। पंजाबी के दीवाने चिंतित हैं, क्योंकि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के लोग बड़ी संख्या में अपनी मातृभाषा उर्दू लिखवा रहे हैं। हालांकि वे बोलते पंजाबी हैं, लेकिन जनगणना में उर्दू लिखवा रहे हैं। आप समझ सकते हैं कि वे अपनी मातृभाषा या पंजाबी में कहें तो मांबोली के साथ अन्याय कर रहे हैं। इसके चलते पंजाब में तनाव गहराता जा
रहा है। पंजाब में उर्दू थोपे जाने के विरोध में पंजाबी प्रचार नामक संस्था के नेता और लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज के पूर्व प्रधानाचार्य प्रो़ तारिक जटाला कहते हैं कि भाषा के सवाल पर पाकिस्तान बंट गया है। खुद को सच्चा पाकिस्तानी बताने के लिए बहुत से पंजाबी मातृभाषा को छोड़ रहे हैं। क्या वे अपनी मां को बदल सकते हैं? मातृभाषा भी मां सरीखी ही होती है। इसे बदला नहीं जा सकता। मातृभाषा तो विरासत में मिलती है। यह पवित्र है।
पाकिस्तान में अमूमन सरकारी स्तर पर पंजाबी, सिंधी, बलूची, पश्तो और दूसरी भाषाओं और बोलियों की अनदेखी होती रही है। पाकिस्तान में 7-8 फीसदी मुहाजिरों की भाषा उर्दू को एक तरह से धर्म से जोड़ दिया गया है। पाकिस्तान की स्थापना के बाद मोहम्मद अली जिन्ना ने एकतरफा फैसले में घोषणा की थी कि इस्लामी देश की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी। हालांकि उर्दू पाकिस्तान के किसी भी प्रांत की भाषा नहीं थी। उर्दू का आज के पाकिस्तान से कोई संबंध नहीं था, पर मुस्लिम लीग के कुछ नेताओं के बहकावे में आकर जिन्ना ने यह घोषणा कर दी और देश के अन्य प्रांतों की भाषाओं को दोयम दर्जे का बना दिया गया। हालांकि वे खुद उर्दू नहीं जानते थे।
जिन्ना से नाराजगी
पाकिस्तान बनने के बाद जिन्ना 19 मार्च, 1948 को पहली बार ढाका गए। वहां उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। पूर्वी पाकिस्तान के अवाम को उम्मीद थी कि वे वहां के विकास को लेकर कुछ अहम घोषणाएं करेंगे। जिन्ना ने 21 मार्च को ढाका के खचाखच भरे रेसकोर्स मैदान में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। वहीं पर पाकिस्तान के गवर्नर जनरल जिन्ना ने अपने चिर-परिचित आदेशात्मक स्वर में कहा कि ''सिर्फ उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा रहेगी। जो इससे अलग तरीके से सोचते हैं, वे मुसलमानों के लिए बने मुल्क के दुश्मन हैं।'' इस घोषणा से अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वाले गैर-उर्दूभाषी पाकिस्तानी नाराज हो गए। पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के लोगों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया और अपनी मातृभाषा बांग्ला के लिए लंबा संघर्ष किया और अंत में बांग्लादेश ले लिया जहां बांग्ला भाषा को उसका हक मिल गया।
पंजाब क्यों भूला पंजाबी
पर पंजाब ने जिन्ना के 'एक राष्ट्र-एक भाषा' फार्मूले को आंख बंद कर मंजूर कर लिया। नतीजा यह हुआ कि पंजाब पर उर्दू का वर्चस्व बढ़ता गया। लाहौर में रहने वाले पंजाब के कवि रेहान चौधरी कहते हैं, ''हम पंजाबी के पक्ष में लड़ रहे हैं, क्योंकि पंजाबी के रूप में हमारी पहचान पाकिस्तानी और मुस्लिम पहचान से कहीं अधिक पुरानी है। हम हजारों साल से पंजाबी हैं। पाकिस्तानी तो हम 70 साल से ही हैं और मुसलमान 200 साल से भी कम समय से हैं।'' हालांकि उन्हें इस बात का अफसोस भी है कि पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के समय से ही पंजाबी को उसका हक नहीं मिला। तब पंजाब की सरकारी भाषा फारसी थी। अंग्रेजों के शासनकाल में इसका स्थान उर्दू ने ले लिया।
अंसेबली से बाहर पंजाबी
पंजाब प्रांत में पंजाबी की स्थिति यह है कि वहां की असेंबली में भी इसमें संवाद नहीं कर सकते। यानी वहां जिस भाषा को लोग बोलते-समझते हैं, उसे अंसेबली में बोलने की मनाही है। पंजाब के मुख्यमंत्री शहबाज शरीफ अपने घर में पंजाबी बोलते हैं। वे राजिंदर कौर के पंजाबी लोकगीत भी सुनना पसंद करते हैं। पंजाब में ही पंजाबी की यह दुर्गति हो रही है। रेहान चौधरी कहते हैं, ''मुझे कभी-कभी हैरानी होती है कि इकबाल, फैज और साहिर लुधियानवी जैसे शायरों ने अपनी मातृभाषा यानी पंजाबी में क्यों नहीं लिखा? इससे साफ है कि पंजाब में पंजाबी की बेकद्री का इतिहास पुराना है। हालांकि भारत के हिस्से वाले पंजाब में तो पंजाबी को उसका वाजिब हक मिल गया, पर हमारे स्कूलों-कॉलेजों में इसकी पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं है। हमारे यहां इसे पढ़ाना तो दूर, पंजाबी समाज का एक तबका इससे पल्ला ही झाड़ रहा है। यह सब सरकार की उर्दूपरस्त नीति के कारण हो रहा है।''
दोषी कौन ?
दरअसल, पाकिस्तान को भाषा के सवाल पर स्थायी रूप से बांटने का काम पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने किया था। वे जिन्ना के खासमखास थे। वे करनाल के पास स्थित कुंजपुरा के नवाब खानदान से थे। उनकी मुजफ्फरनगर में भी अकूत संपत्ति थी। उन्होंने जिन्ना को समझाया कि पाकिस्तान के लिए उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित करना सबसे उपयुक्त रहेगा। उन्होंने शायद यह सलाह इसलिए दी होगी, क्योंकि पाकिस्तान के लिए चले आंदोलन में उत्तर प्रदेश के मुसलमान सबसे आगे थे। जिन्ना ने बिना सोचे-समझे इस सलाह को मान लिया। उर्दू को पाकिस्तान की मातृभाषा बनाने के कारण लियाकत अली खान स्थायी रूप से देश के खलनायक बन गए। पंजाब में तो लोग उनसे नफरत करते हैं। 1951 में रावलपिंडी में उनकी हत्या कर दी गई। हिन्दी-पंजाबी के वरिष्ठ कथाकार डा़ॅ प्रताप सहगल कहते हैं कि पंजाब का दुर्भाग्य रहा कि पंजाबी के साथ वहां के भूमि पुत्रों ने ही अन्याय किया। विभाजन से पहले हिन्दू भी पंजाबी की तुलना में उर्दू और हिन्दी ही सीखते-पढ़ते थे। इस लिहाज से सिख पंजाबी के साथ खड़े रहे। यह बात दीगर है कि देश की आजादी के बाद भारत में भाषायी विवाद सुलझ गए, क्योंकि सभी भाषाओं को उचित स्थान दे दिया गया। लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं हुआ।
इस्लाम और उर्दू
बदकिस्मती से पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरपंथी सोच को खाद-पानी देने वाले इस्लाम को उर्दू के साथ जोड़ा जाने लगा। क्या किसी धर्म का किसी भाषा से संबंध हो सकता है? कतई नहीं। दुनिया में इस्लाम के धर्मावलंबी अलग-अलग भाषाएं बोलते-समझते हैं। पूर्वी पाकिस्तान इसीलिए बांग्लादेश बना, क्येांकि वहां उर्दू थोपी गई। बंगाली मुसलमान कहते थे कि हमारे लिए भाषा उतनी ही प्रिय है, जितना धर्म। लेकिन पंजाब में उर्दू को इस्लाम के साथ जोड़ दिया गया। इसमें अपेक्षित सफलता भी मिली। इसी का नतीजा है कि जनगणना में बड़ी संख्या में शहरी लोग, खासतौर से लाहौर में उर्दू को मातृभाषा लिखवा रहे हैं।
प्रो़ तारिक जटाला का कहना है कि कुरान यह शर्त नहीं रखता कि अरबी सीखना अनिवार्य है। अगर ऐसा होता तो इस्लाम पूरी दुनिया में नहीं फैलता। लेकिन पंजाब के बहुत से कठमुल्ले अवाम को यह समझाने में सफल रहे कि पंजाबी बोलने से उनका इस्लाम खतरे में आ जाएगा, क्योंकि इसे हिन्दू, सिख, ईसाई भी बोलते हैं। यह झूठा प्रचार करने वाले भूल गए कि अरब तथा उत्तरी अफ्रीका के मुसलमान, ईसाई और यहूदी, सभी वहां की भाषाएं बोलते हैं, उर्दू नहीं। पंजाबी बनाम उर्दू का कोई सौहार्दपूर्ण हल नहीं खोजा गया तो पाकिस्तान का सबसे बड़ा सूबा भाषायी विवाद की आग में स्वाहा होने लगेगा।
जनगणना से क्यों नाराज सिख?
इससे पाकिस्तान में सिख खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। उन्हें लग रहा कि उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। इसका कारण यह है कि जनगणना रजिस्टर में सिखों के लिए अलग से कॉलम नहीं है। इस मुद्दे पर पेशावर में सिखों ने विरोध प्रदर्शन भी किया। उनकी नाराजगी की दूसरी वजह यह है कि उनकी कोई सुन नहीं रहा। देश के अलग-अलग हिस्सों में अन्य अल्पसंख्यक समुदाय भी शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। सिखों की मानें तो सरकार उन्हें एक तरह से देश का नागरिक नहीं मानती। सिख नेता रादेश सिंह टोनी ने पाकिस्तानी अखबार 'डॉन' से कहा, ''संबंधित विभाग ने सिख अल्पसंख्यकों को जनगणना में शामिल नहीं किया। यह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि हमारे समुदाय के लिए चिंता का विषय है। पाकिस्तान में बड़ी संख्या में सिख रह रहे हैं, लेकिन इस समुदाय को जनगणना धार्मिक श्रेणी में शामिल न करके उनकी गिनती 'अन्य श्रेणी' में की जाएगी जिससे सिख आबादी की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत नहीं होगी। यह अन्याय है। हमें हमारे अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।'' सिखों ने पाकिस्तान के चीफ जस्टिस और सिंध हाईकोर्ट को पत्र लिखकर उन्हें 'अन्य' धर्मों में न गिने जाने की अपील की है।
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