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खून की होली जो खेली
रंग गये जैसे पलाश
कुसुम किंशुक के, सुहाए,
कोकनद के पाए प्राण,
खून की होली जो खेली।
निकले क्या कोंपल लाल,
फाग की आग लगी है,
फागुन की टेढ़ी तान,
खून की होली जो खेली ।
खुल गई गीतों की रात,
किरन उतरी है प्रात की,
हाथ कुसुम-वरदान,
खून की होली जो खेली।
आई सुवेश बहार,
आम-लीची की मंजरी
कटहल की अरघान,
खून की होली जो खेली।
विकच हुए कचनार,
हार पड़े अमलतास के
पाटल-होठों मुसकान,
खून की होली जो खेली।
देख बहारें होली की
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
खूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंहचंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की
गुलजार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुंह लाल, गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफिर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की॥
ये धूम मची हो होली की, ऐश मजे का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मजा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के ‘नजीर’ भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की॥
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