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मीडिया की आजादी का यह ऐसा दौर है, जब चैनल और अखबार बड़ी आसानी से प्रधानमंत्री के बयानों को भी तोड़-मरोड़ सकते हैं। कोई भी सरकार रही हो, आमतौर पर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों के बयानों के मामले में मीडिया थोड़ा सोच-समझकर रिपोटिंर्ग करता रहा है। लेकिन अब शायद स्थिति अलग है। मीडिया की आजादी की आड़ में आएदिन ऐसी खबरें दिखाई और छापी जा रही हैं, जिनमें प्रधानमंत्री के बयान को गलत तरीके से उद्घृत किया गया होता है। उत्तर प्रदेश में चुनावी रैली में प्रधानमंत्री ने राज्य में मजहबी आधार पर भेदभाव का आरोप लगाया। लेकिन मीडिया ने इसे जो मतलब दे दिया, वह चिंता में डालने वाला है।
बिजली पहुंचाने में हिंदू गांवों की अनदेखी हो, कब्रिस्तान बनाना हो या हिंदू पर्व-त्योहारों पर बिजली कटौती हो, उत्तर प्रदेश में बीते पांच साल के अखिलेश राज में वह सबकुछ हुआ है जो विचित्र किंतु सत्य की श्रेणी में आता है। लेकिन मीडिया ने चुनावी कवरेज से इस पहलू को लगभग गायब कर रखा है। जब प्रधानमंत्री ने यह मामला उठाया तो चैनलों और अखबारों ने उनके बयान का सिर्फ वह हिस्सा दिखाया जिससे अर्थ का अनर्थ किया जा सके। इस तरह से अनावश्यक विवाद पैदा किया गया और ऐसा जताने की कोशिश की गई मानो प्रधानमंत्री ने कोई बहुत गलत बात बोल दी हो। एक क्रांतिकारी चैनल ने तो लिख डाला- 'प्रधानमंत्री को श्मशान पसंद है'। क्या पूरी जिम्मेदारी के साथ दिए गए प्रधानमंत्री के बयान को लेकर इस तरह की बेतुकी टिप्पणियों की इजाजत दी जा सकती है?
इक्का-दुक्का चैनलों को छोड़ दें तो किसी ने भी प्रधानमंत्री के बयान के पीछे की सच्चाई तलाशने की कोशिश नहीं की। सबकी रुचि विवाद पैदा करने में थी। जिस वक्त मुख्यधारा मीडिया प्रधानमंत्री के बयान को लेकर भ्रम फैलाने में जुटा था, उसी समय सोशल मीडिया पर आम लोगों ने वे तथ्य और तस्वीरें पेश कर दीं, जो इस बात की गवाही देती हैं कि समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान उत्तर प्रदेश में मजहबी आधार पर हिंदुओं के साथ भेदभाव किया जाता रहा है।
मीडिया का एग वर्ग बेहद सहज तरीके से भाजपा या किसी भी हिंदुत्ववादी संगठन के नेता के बयान को विवादित करार दे देता है। विवाद न भी हो तो विवाद पैदा करने की कोशिश की जाती है। जरूरत पड़े तो बयान को काटछांट भी लिया जाता है। लेकिन बात कांग्रेस और उसके प्रथम परिवार की हो तो सावधानी साफ तौर पर देखी जा सकती है। रायबरेली में कांग्रेस का प्रचार करने निकलीं प्रियंका वाड्रा ने देश के प्रधानमंत्री को ही बाहरी करार दिया। लेकिन किसी चैनल को प्रियंका के बयान में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिखाई दिया। राहुल गांधी अपनी रैलियों में लगातार प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार पर झूठे और तथ्यहीन आरोप लगा रहे हैं, लेकिन मीडिया उन बयानों की कभी कोई समीक्षा नहीं करता। माकपा के महासचिव प्रकाश करात ने तो एक सभा में प्रधानमंत्री को 'पाकेटमार' कह डाला। लेकिन 'विवादित' श्रेणी में आने वाले ऐसे तमाम बयान कहां गायब हो गए, पता ही नहीं चला।
अखिलेश यादव और राहुल गांधी के गठजोड़ पर मीडिया की मुग्धता ऐसी है कि उन्हें अभी से जीता हुआ जताया जा रहा है। दोनों के रोड शो से लेकर बयानों तक को कुछ चैनल 'नॉनस्टाप' दिखा रहे हैं। हालत यह है कि अखिलेश ने सैफई में मतदान के दौरान एक चैनल के रिपोर्टर के साथ बदसलूकी की तो उसे भी लगभग दबा दिया गया। उस रिपोर्टर ने फेसबुक के जरिए अपना दर्द बयां किया कि 'जब उनके संपादक और मालिक अखिलेश यादव के साथ नाश्ता कर रहे हों, तो उसकी हैसियत ही क्या है।' कुछ चैनलों के रिपोर्टर तो मुलायम परिवार के सदस्यों को बाकायदा बहू, भाभी और दीदी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं। ये हास्यास्पद स्थिति है।
उधर अरुणाचल कांग्रेस ने भाजपा पर राज्य के हिंदूकरण का आरोप लगाया। जवाब में गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू ने जो कुछ कहा उसे भी चैनलों ने 'विवादित' घोषित कर दिया। बड़े और जिम्मेदार चैनलों और अखबारों ने ऐसे दिखाया मानो किरण रिजीजू के बयान से ही विवाद पैदा हुआ है। जब भी हिंदुओं की आबादी का मुद्दा आता है, मीडिया का एक बड़ा तबका रक्षात्मक होकर मुसलमानों के फैलाव का बचाव करता है। फौरन ओवैसी जैसे नेताओं के बयान चैनलों पर लहराने लगते हैं। इसी तरह कश्मीर के पत्थरबाजों के हितों को लेकर भी मीडिया का एक वर्ग बेहद संवेदनशील है। सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने पत्थरबाजों पर सख्त कार्रवाई की बात की, तो उनके बयान पर विवाद को हवा देने में कुछ खास चैनलों ने भरपूर मदद की। कर्नाटक में भाजपा के नेताओं को लेकर एक वीडियो टेप सामने आया। बिना टेप की जांच कराए सभी चैनलों और अखबारों ने बताना शुरू कर दिया कि 'भाजपा के नेता कालेधन के लेन-देन की बात कर रहे हैं।' बाद में जब ये टेप फर्जी पाया गया तो एक-दो अखबारों को छोड़कर किसी ने भी खबर नहीं चलाई। ऐसा नहीं है कि पूरे मीडिया की यह स्थिति है। दरअसल मीडिया के ऊपरी पदों पर बैठे निष्ठावान कॉमरेडों के कारण ऐसा हो रहा है। ये सभी संदिग्ध देशविरोधी तत्वों के हित के लिए काम करते हैं। इसके बावजूद वे निष्पक्ष होने का भ्रम बनाए रखते हैं। ऐसे पत्रकार समय-समय पर पत्रकारिता के तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार भी पाते रहते हैं और ज्यादा विश्वसनीयता के साथ अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते रहते हैं। संतोष की बात यही है कि जनता के बीच अब इनका भ्रमजाल टूटने लगा है।
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