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जेएनयू बदल रहा है। शिक्षक और छात्र जहां जागरूक हुए हैं वहीं परिसर में देशविरोधी नारे लगाने वाले संगठनों की आवाज मिमियाहट में बदल गई है। नतीजतन अब यहां भारतीय संस्कृति, देश-समाज, राष्ट्रवाद और छात्रों की असल समस्याओं की गूंज सुनाई
देती है
अश्वनी मिश्र
सितंबर, 2015। दिल्ली में उमस चरम पर थी। इसी तपिश के बीच हम उस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के परिसर में थे जो अरावली पर्वत शृंखला के बीच करीब 1,000 एकड़ में फैला हुआ है। हर बार की भांति इस बार भी परिसर का मुख्य द्वार हमें यहां की आबो-हवा से परिचित करा रहा था। प्रवेश करने के बाद 100-150 मीटर की दूरी पर दाहिनी ओर कुछ दुकानों पर विवि. के छात्र खाने-पीने एवं अध्ययन से जुड़ी चीजें ले रहे थे। लेकिन तभी जहां हम खड़े थे, उसके ठीक सामने दीवार पर डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू) का एक पोस्टर दिखा। पोस्टर पर आतंकी अफजल के चित्र के साथ लिखा था,'अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं।' तो दूसरा कश्मीर की ओर इंगित कर रहा था- जिसपर लिखा था,'वी वांट फ्रीडम।' देखकर बड़ा अजीब लगा और मन में तरह-तरह के सवाल उमड़ने लगे।
पहला सवाल उठा कि सर्वोच्च न्यायालय ने जिस आतंकी अफजल को फांसी दी, यहां के छात्र उसे ही हीरो मान रहे हैं! क्या ऐसे छात्रों की देश के सर्वोच्च न्यायालय के प्रति आस्था नहीं है? तो दूसरा, कश्मीर को वे किससेे स्वतंत्रता दिलाना चाहते हैं? पास में ही फोटोकॉपी की दुकान थी, जहां कई शोधार्थी फोटोकॉपी कराने आए थे। मैंने इन्हीं मंे से एक छात्र से पोस्टर पर प्रतिक्रिया जानी। उसका कहना था,''आप क्या यह पहली बार देख रहे हैं? यहां ये सब आम है। परिसर में इससे भी अधिक भड़काऊ और देश की संप्रभुता को चुनौती देने वाले पोस्टर और बैनर लगे हुए हैं। ये डीएसयू वाले आतंकियों-नक्सलियों को अपना हिमायती मानते हैं। इसलिए उसके लिए ये सब करते रहते हैं।''
हैरानी की बात थी कि राजधानी के अंदर ही विभाजनकारी विचारों की प्रयोगशाला बनी हुई है। हम बारी-बारी से लाल ईंटों से बनी इमारतों के परिसर में कई जगह गए, चाहें वह स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज हो, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज या स्कूल ऑफ लैंग्वेज, प्रवेश द्वार, प्रशासनिक भवन या फिर नोटिस बोर्ड ही क्यों न हो। सभी जगह देश की अखंडता को खंड-खंड करते विचारों वाले पोस्टरों से साक्षात्कार हुआ। उस समय लोकसभा चुनाव हो चुका था, लेकिन राजग की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को हराने के लिए यहां के छात्रों द्वारा गुजरात दंगे का 'खौफ' फैलाया गया था, जिसकी गंध कुछ महीने बीतने के बाद भी बरकरार थी।
दरअसल, पोस्टरबाजी दशकों से जेएनयू में विरोध का एक हथियार रही है। लेकिन हमने ऐसा विरोध पहली बार देखा था जो अपने ही देश, सेना, संस्कृति, सभ्यता और समाज के खिलाफ था। यह देखकर यकीन नहीं हो रहा था कि यह देश का प्रतिष्ठित अध्ययन केंद्र है। ऐसे हालात को देख पाञ्चजन्य ने इसकी गहन पड़ताल की। कई दिनों तक सैकड़ों छात्रों से बात की। वहां उन्माद फैलाने, देश विरोधी कार्य करने और उन्हें पोषित करने वालों के ब्यौरे खंगाले। उन संगठनों को चिन्हित किया जो विवि. को अध्ययन का केंद्र न बनाकर देश तोड़ने का केंद्र बना रहे हैं। उन सभी पोस्टरों को एकत्र किया जो देश की अस्मिता को तार-तार करते थे। इसके बाद पाञ्चजन्य ने अपनी आवरण कथा-(दरार का गढ़, 8 नवम्बर, 2015) में परिसर में राष्ट्रविरोधी तत्वों की घुसपैठ को बेबाकी से उघाड़ा। स्टोरी आते ही विवि. से लेकर मीडिया में यह बहस का मुद्दा बना। लेकिन अकाट्य तथ्यों ने सबकी बोलती बंद कर दी। तब तक परिसर का सच बाहर आ चुका था।
उधर, वामपंथी और देशविरोधी तत्वों को अपनी खिसकती जमीन का आभास हो चुका था। इसलिए डीएसयू ने तीन माह बाद 9 फरवरी, 2016 को विवि. परिसर में कल्चरल इंवनिंग के नाम से 'पोएट्री रीडिंग- द कंट्री विदाउट ए पोस्ट ऑफिस' कार्यक्रम का आयोजन किया। इसी आयोजन में वामपंथी छात्रों द्वारा खुलेआम 'भारत तेरे टुकड़े होंगे… पाकिस्तान जिंदाबाद, भारत मुर्दाबाद, कश्मीर की आजादी तक, भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी', बोलकर भारत की अखंडता और संप्रभुता को चुनौती दी गई। इस हुजूम का नेतृत्व जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कर रहा था। अभाविप ने तत्काल इस देश विरोधी घटना पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और वसंत कंुज थाने में शिकायत दर्ज कराई। इसके बाद तो एकाध दिन नहीं, बल्कि महीनों तक पूरे देशभर में इस घटना पर उबाल रहा। मीडिया और समाज की उंगलियां सीधे जेएनयू की ओर तनी थीं, क्योंकि सच सामने था।
एक साल में बदली आबो-हवा
इस घटना के एक साल बाद हमने फिर से परिसर की हकीकत को जांचा-परखा। मौजूदा माहौल की तुलना एक साल पुराने अतीत से की। छात्रों से मिले, उनकी बातें सुनीं। तब हमें दिखा कि खुलापन वही है, छात्रों की आजादी भी वही है, मगर परिसर में जो अराजक जकड़न वाले मुद्दे थे, उनकी खंगाल और सफाई का काम भी यहीं के छात्रों ने किया है। यहां के मुख्य द्वार पर लगे सांस्कृतिक एवं अकादमिक आयोजनों के बैनर-पोस्टर भी बिन बोले बहुत कुछ बता रहे हैं।
परिसर के दर्जनों छात्र अब यह महसूस करते हैं कि कुछ तो बदला है इस 'लालगढ़' में जो अब से पहले नहीं दिखता था। स्कूल ऑफ लैंग्वेज से पी.एच.डी कर रहे जावेद आलम यहां पिछले 4 साल से रह रहे हैं। वे यहां के बदले माहौल पर कहते हैं,''जब मैं यहां आया था, उस समय के हालात और आज के हालात में बहुत बदलाव आया है। पहले हमारे वामपंथी भाइयों ने संस्थान को शोहरत हासिल करने का जरिया बना लिया था जिससे विवि. सहित यहां पढ़ने वाले छात्रों को नुकसान हो रहा था। हाल के कुछ वर्षों में तो स्तरहीन राजनीति शुरू हो गई थी। एक साल पहले यही कन्हैया और शहला रशीद भड़काऊ बयान देकर चर्चा में आए। क्योंकि ये चर्चा में बने रहने के लिए कुछ भी ऊल-जुलूल बोलते रहते हैं। पर अब चीजें बदल रही हैं तो इन्हें परेशानी हो रही है, क्योंकि इन्हें राष्ट्रवाद में यकीन नहीं है। ये राष्ट्र और संविधान को शक की निगाह से देखते हैं। अब जब इनका आधार खिसक चुका है तो ये खिसियाए हुए हैं। रही समर्थन की बात तो इनकी छात्र इकाई के कुछ लोगों को छोड़ दें तो अब ये अकेले डफली बजाते फिरते हैं।'' वहीं सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ से पीएचडी कर रहे निकुंज मकवाणा बताते हैं,''अब से पहले अभाविप का नाम लेना सपने जैसा था। यानी हमारे विभाग में तो अस्पृश्यता जैसी स्थिति थी। लेकिन अब यह माहौल परिवर्तित हो रहा है। ऐसा नहीं है कि यह पूरी तरह से खत्म हो गया है लेकिन असर पड़ा है।'' एक और शोधार्थी श्रीकांत कुमार बताते हैं,''परिसर में कुछ समय से हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों से एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा है।'' परिसर में चल रही अराजक गतिविधियों पर वे कहते हैं कि ''ऐसे तत्वों के मन में एक डर अब रहता है कि अगर कुछ भी गलत किया तो उनकी पोल-पट्टी खुलते देर नहीं लगेगी।''
वैसे जेएनयू की बोगेनवीलिया से लदी झाडि़यों पर लंबे समय से मार्क्स और लेनिन का बोलबाला रहा है। अर्नेस्तो, चे ग्वेरा, पाब्लो नेरूदा जैसी वामपंथी विचारधारा के हिमायती लोगों का भारतीय संस्कृति और भारतीय विचारों से कोई लेना-देना नहीं रहा।
शिक्षकों पर लगते आरोप
छात्रों का कहना है कि संस्थान में वामपंथ से इतर जुड़ाव रखने वाली छात्र राजनीति के लगातार हाशिए पर रहने के उदाहरण यहां इतने ज्यादा और स्पष्ट हंै कि इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। खासकर जिन छात्रों का रुझान अभाविप की ओर होता है, उन्हें परिसर में खास किस्म की उपेक्षा, अपमान और तिस्कार झेलना पड़ता रहा है। यहां के शिक्षक न केवल छात्र-छात्राओं के साथ भेदभाव करते हैं। निकुंज बताते हैं कि यहां के प्रोफेसरों का परिषद से जुड़े विद्यार्थियों के प्रति अलग नजरिया रहता है। ग्रेड देते समय वे उन्हें अपना लक्ष्य बनाते हैं और जो वामपंथियों के प्रदर्शन में जाता है, उन्हें अच्छा ग्रेड दिया जाता है। इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा तो नहीं मिल सकता, पर ऐसा होता है। शोधार्थी अखिलेश बताते हैं,''यहां के कई प्रोफेसर गैर वामपंथियों को तो देखना ही नहीं चाहते। इसका प्रभाव यह होता है कि हम जैसे छात्रों जब राष्ट्र व भारतीय संस्कृति से जुड़ा कोई कार्यक्रम करते हैं तो इन प्रोफेसरों के डर से छात्र नहीं आते। क्योंकि अगर पता चल गया तो वे बाद में गे्रड देने या अन्य तरीके से इसका बदला लेंगे। कितने ही छात्रों के साथ ऐसा गलत व्यवहार किया जा चुका है यह सामान्य बात है। दूसरा यहां के प्रोफसर वामपंथ के चक्कर में अपनी गरिमा को कितना गिरा देते हैं, इसका उदाहरण निवेदिता मेनन हैं। इस बार के छात्रसंघ चुनाव होने के बाद वे परिषद से जुड़े एक छात्र से कहती हैं कि अब तो तुम लोग साफ हो गए, अब देखते हैं तुम्हारे एक्टिविज्म का क्या होगा? और तुम्हारे अब बुरे दिन शुरू हो गए। मतलब यह कि अगर आप राष्ट्रवाद की ही बात करते हैं तो ऐसी यातनाएं आपको झेलनी पड़ती हैं।''
मुद्दों को अब कैसे देखता है जेएनयू
'वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा।' यह उन छात्रों की हुंकार है जो वामपंथियों के गिरफ्त से निकल चुके हैं। पवन चौरसिया पश्चिम एशिया पर एम.फिल. कर रहे हैं। उनकी मानें तो परिसर में मुद्दों को लेकर अब परिवर्तन दिख रहा है। पहले वामपंथी और अलगाववादी गुट कश्मीर की आजादी के मुद्दे पर बात करते थे लेकिन अब छात्रों द्वारा परिसर में कश्मीरी हिंदुओं और सेना पर बात होती है। वे बताते हैं,''यहां तीन विचारधाराएं हैं- लाल, भगवा और नीला। और तीनों नजरियों के छात्र भी हैं। पर अब छात्र सकारात्मक नजरिये की ओर बढ़ रहे हैं। मुद्दों में परिवर्तन का दौर 2015 में अभाविप की विजय से शुरू हुआ जब संयुक्त सचिव के रूप में परिषद की ओर से सौरभ शर्मा चुने गए, लेकिन इस जीत से वामपंथियों को इतना धक्का लगा कि वे कहने लगे कि जेएनएसयू में 'संघी' आ गया। उस विजय और एक साल पहले हुई घटना के बाद यहां बड़ा परिवर्तन आया है। पोस्टरबाजी से लेकर विचारों तक में। और इससे बड़ा मुद्दों में परिवर्तन क्या होगा कि जिस तिरंगे की वे व्याख्या करते नहीं थकते थे, उसे जलाते, हीन भावना से देखते थे, मुसीबत में अब उसी झंडे को ओढ़े फिरते दिखाई दे रहे हैं। जब उनके कथित नेताजी आते हैं तो उन्हें तिरंगे को लहराकर साबित करना पड़ता है कि हम भी राष्ट्रवादी ही हैं। यह राष्ट्रवादियों की विजय नहीं तो क्या है? ''तो वहीं हिन्दी विभाग में पीएचडी कर रहे सूर्यभान राय मानते हैं,''यहां सिर्फ मुद्दों ही नहीं, हर तरह से बदलाव हुआ है। रही वामपंथ की बात तो मुझे नहीं लगता यहां अब वामपंथ जैसी कोई चीज रही है।''
मुखर चेहरे जो आए सामने
विवि. में भारतीयता की बात करने वालों की आवाज को दबाया जाता रहा है। चाहें वह प्रोफेसर हों या फिर छात्र। लेकिन इसके बाद भी कुछ चेहरे ऐसे हैं जो विवि के स्वरूप को बचाने में मुखर होकर सामने आए। इन्हीं में एक प्राध्यापक अमिता सिंह हंै। परिसर में हो रहे बदलाव को वे कुछ समय से गौर से देख रही हैं। वे बताती हैं,''हम तो विवि. को शिक्षा का केन्द्र बनाना चाहते हैं लेकिन कुछ लोग हैं जो विवि. को चलने देना नहीं चाहते। यह सच है कि यहां का माहौल राजनीतिक है। कुछ लोग तो चाहते हैं कि बाहर की राजनीतिक लड़ाई यहां चलती रहे और उसके लिए उन्होंने यहां केन्द्र स्थापित कर लिया है। इसलिए ही तो दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी जैसे नेता यहां बड़ी रुचि से आते हैं। इन नेताओं को यहां आने की क्या जरूरत?'' अमिता सिंह मानती हैं कि विवि. प्रशासन अगर निडर होकर कार्य करे तो यहां की बहुत सारी समस्याएं आसानी से समाप्त हो जाएंगी।
सौरभ शर्मा अपनी ओर से कमर कसे हुए हैं। सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले सौरभ परिसर में होने वाली हर घटना को साझा करते हैं। छात्रों की समस्याओं की बात हो या फिर कोई अराजक गतिविधि, हर घटना पर उनकी पैनी नजर रहती है।
वे बताते हैं,''जो विवि. का वास्तविक रूप होता है हम उस स्वरूप को वापस दिलाने के लिए कार्य कर रहे हैं। चाहें वह छात्रों की समस्याओं की बात हो, उनके अधिकारों की बात या परिसर में चल रही कोई अराजक गतिविधि, हम सभी पर अब तत्काल प्रतिक्रिया करते हैं और हर मोर्चे पर लड़ने का काम
करते हैं।''
वहीं अभाविप की ओर से विवि. में छात्र संघ अध्यक्ष, 2016 का चुनाव लड़ चुकीं जाह्नवी ओझा कहती हैं,''पिछले एक साल की अवधि में यहां बहुत बदलाव आया है। अगर यहां के पठन-पाठन में आये बदलावों को देखें तो लगातार हो रही हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों से आम छात्र ऊब सा गया है और उनमें शामिल होने से कतराता है। पर समस्या ये है कि उन धरना-प्रदर्शनों में कई शिक्षकों की संलिप्तता भी होती है और उसे सफल बनाने के लिए वे जान- बूझकर पढ़ाने ही नहीं जाते। पर अब वामपंथियों के खेमे में एक भय व्याप्त है क्योंकि उन्हें समझ में आ गया है कि उनकी उल्टी-सीधी हरकतों को देश की जनता नजरअंदाज नहीं करेगी।''
ऐतिहासिक अध्ययन केन्द्र में सहायक प्राध्यापक हीरामन तिवारी बड़े स्पष्ट लहजे में कहते हैं, ''बिल्कुल, यहां का परिवेश बदला है, इसे नकारा नहीं जा सकता। हां, लोगांे का देखने का नजरियां इस पर अलग हो सकता है। कुछ विशंगतियां समाप्त हो रही हैं।''
विवि. के बदलते माहौल को बेशक वामपंथी खेमा स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन सच को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता। जाहिर है, छात्रों के बदलते हाव-भाव और उनके विचारों में आता परिवर्तन इस बात का गवाह बन रहा है कि अब जेएनयू बदल रहा है।
परिसर में हुए हाल के कुछ सांस्कृतिक आयोजन
फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की 'बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम' फिल्म को परिसर में दिखाया गया जिसमें प्रमुख अतिथि के रूप में अभिनेता अनुपम खेर मौजूद थे
'इंडिया फॉर नेशनलिज्म' के बैनर तले सेना के कई प्रमुख अधिकारियों ने राष्ट्र पर व्याख्यान दिया
15 अगस्त,2016 को 'एक शाम शहीदों के नाम' सांस्कृतिक कार्यक्रम
जयप्रकाश फाउंडेशन और स्टूडेंट्स फ्रंट फॉर स्वराज द्वारा साप्ताहिक व्याख्यान का आयोजन
अभाविप और वाईफॉरपीके द्वारा 'एक भारत अभियान-कश्मीर की ओर' का आयोजन
डॉ. भीमराव आंबेडकर के 125वें जन्म शती पर परिसर में सामाजिक समरसता सप्ताह का आयोजन
कश्मीर मामले एवं उसके भविष्य को लेकर मांडवी छात्रावास में परिचर्चा
पहली बार, 2017 में परिसर में एक दिवसीय वसंतोत्सव का आयोजन
वरिष्ठ पत्रकार हरीश बर्णवाल की पुस्तक 'मोदी सूत्र' का परिसर में विमोचन
'अतिक्रांतिकारी' फिलहाल गायब
फरवरी, 2016 तक जेएनयू की दीवारों पर आतंकी अफजल और मकबूल बट, लाल सलाम, लड़ाई और लहू के कतरे जैसी लफ्फाजियों के जरिये युवा जोश को लपकने की चालबाजियों से भरे पोस्टर और विचार हवा में बहते दिखाई देते थे। पर अब ऐसे 'अतिक्रांतिकारी' तत्व गायब हैं या फिर उनकी सक्रियता न के बराबर रह गई है। दरअसल परिसर में दशकों से कुछ ऐसे समूह सक्रिय थे जो पूरी तरह से आपत्तिजनक और संदिग्ध थे। ये छात्र शक्ति को भटकाते, उसे आंदोलन का ईंधन बनाते थे। 9 फरवरी की पूरी घटना डीएसयू (डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन) के बैनर तले हुई थी। कुछ वर्ष पूर्व जब केन्द्र में संप्रग सरकार थी, तब सरकार की ओर से जारी एक रपट में कहा गया था कि दिल्ली में ऐसे कई एनजीओ और संगठन हैं जो सीपीआई (माओवादी) का मुखौटा बनकर काम कर रहे हैं। इसमें डीएसयू का नाम भी शामिल था। वैसे जेएनयू में तीन प्रमुख वामपंथी दल हैं- एसएफआई, आइसा और एआईएसएफ जो क्रमश: सीपीएम, सीपीआई (एमएल) और सीपीआई के छात्र संगठन हैं। परिसर में कुछ हाशिये के संगठन भी हैं, जो अपनी अतिक्रांतिकारी विचार के लिए जाने जाते हैं। ये संगठन समय-समय पर विश्वविद्यालय में बौद्धिक विमर्श, कार्यक्रम अभियान चलाते रहते हैं। इन बहसों और कार्यक्रमों और अभियान का मुख्य स्वर भारतीय राष्ट्र-राज्य और हिन्दू धर्म का विरोध होता है। इनमें से कुछ प्रमुख संगठन हैं—पीएसयू,न्यू मैटेरियएलिस्ट, रिवोल्यूशनरी, कल्चर फ्रंट, स्टूडेंट्स फ्रंट ऑफ इंडिया, क्रांतिकारी नौजवान संस्था, जनरंग, बिरसा आंबेडकर, फुले स्टूडेंट्स ऐसोसिएशन (बाफसा) आदि।
लंबे समय से जेएनयू में रह रहे पीएचडी के छात्र अंबा शंकर वाजपेई इन संगठनों की खुरपेच और कारगुजारियों को बड़े ही बेहतर तौर तरीके से जानते हैं। वे बताते हैं,''इन संगठनों का यही उद्देश्य रहता है कैसे समाज और देश को तोड़कर अपना स्वार्थ सिद्ध किया जाए। पर हाल के दिनों में इनकी धार बहुत ही कुंद हुई है। इससे ये बौखलाए हुए हैं। 9 फरवरी के बाद से डीएसयू गायब है। लेकिन ऐसा नहीं है कि उसने अपनी गतिविधियांे को बदला है। अब यह 'बासो' (भगत सिंह अंबेडकर एसोसिएशन) के नाम से संचालित हो रहा है। इसकी हाल की कुछ गतिविधियां भी देखने को मिली हैं। साथ ही एक इस्लामी संस्था एसआईओ का परिसर में दखल बढ़ा है। कहा जाता है कि यह जमाते-इस्लामी की छात्र इकाई है।'' अंबा आशंका जताते हैं कि अभी मीडिया और समाज की नजरें विवि. पर टिकी हैं। इसलिए कुछ दिन के लिए इन्होंने अपने आप को 'अंडर ग्राउंड' कर लिया है। जैसे ही ये अनुकूल समय देखेंगे, अपने असली चेहरे के साथ बाहर आ जाएंगे।
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