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आज की बदलती दुनिया में किसी भी देश के लिए उसकी गुप्तचर संस्थाओं के बीच समन्वय जरूरी है। समन्वय में तकनीक और संसाधन की बड़ी भूमिका है। जिसके पास जितनी उन्नत तकनीक होगी, वह उतना ही अच्छा समन्वय स्थापित कर सकता है और उतना ही अच्छी खुफियागीरी भी
ले.ज. (से.नि.) कमल डावर
पूर्व चेतावनी की उपलब्धता का अर्थ है पहले से हथियारबंद होना, यह विश्व स्तर पर स्वीकृत एक स्वयंसिद्ध-सी बात है। लेकिन अफसोसजनक यह है कि अगर आंकड़ों की दृष्टि से बात करें, तो दुनियाभर में खुफिया एजेंसियां पहले किसी भी दौर की तुलना में कहीं अधिक तनाव में हैं, और जैसा कि बार-बार घटने वाली आतंकवादी गतिविधियों और प्रमुख सुरक्षा विफलताओं से स्पष्ट तौर पर पता चलता है, वे पहले से सक्रिय होने के बजाए प्रतिक्रिया में काम करती हैं। यहां तक कि खतरे के दायरे में आने वाले ऐसे राष्ट्रों में भी, जो तकनीकी रूप से अत्यंत उन्नत हैं, और जो काउंटर इंटेलीजेंस और काउंटर आतंकवादी अभियानों में अपने कौशल के लिए जाने जाते हैं, वहां भी खुफिया विफलताएं आम तौर पर स्वीकार किए जाने वाले मामलों की तुलना में अधिक हैं।
पिछले साल पेरिस, अमेरिका, अफगानिस्तान, इस्रायल, तुर्की, थाईलैंड और पाकिस्तान में घटी आतंकी गतिविधियों ने सिद्ध कर दिया है कि किस प्रकार सर्वव्यापी आतंकवादी खतरे के बावजूद निदार्ेष लोगों के खिलाफ निर्देशित हिंसक हरकतों में घटित होने की एक भयानक प्रवृत्ति है! जहां तक खुद पाकिस्तान का संबंध है, वह अब आतंकवाद का 'जन्मदाता' होने की कीमत चुका रहा है, जिसमें खुद उसके प्रशिक्षित आतंकवादियों में से कुछ अब अपने पाकिस्तानी आकाओं को ही निशाना बना रहे हैं।
भारत, जो स्पष्ट तौर पर दुनिया के सबसे हिंसक दायरों में से एक में स्थित है और जिसके दो प्रमुख पड़ोसी—चीन और पाकिस्तान जन्मजात भारत विरोधी हैं, में राज्य की सुरक्षा संस्थाओं, विशेष रूप से भारत की खुफिया एजेंसियों का कार्य और अधिक विकट और मेहनत भरा हो जाता है। इस प्रश्न पर समय-समय पर और गंभीर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है कि क्या भारत की खुफिया संस्थाएं राष्ट्र के समक्ष मौजूद इन असंख्य सुरक्षा चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम हैं। हताश करने वाली बात यह है कि भारत की खुफिया संस्थाओं के विकास का इतिहास स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है कि इनका विकास भविष्य की चुनौतियों से प्रेरित कम और संकट से संचालित अधिक रहा है।
चीन के खिलाफ 1962 की पराजय का परिणाम खुफिया ब्यूरो (आईबी) के भीतर ही सुरक्षा महानिदेशालय (डीजीएस) के गठन में निकला था। 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई में आईबी के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद सरकार ने एक नई एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के गठन का फैसला लिया, जो विशेष रूप से बाहरी खुफिया जानकारी जुटाने के लिए थी, और डीजीएस और उसके उड्डयन अनुसंधान केंद्र (एआरसी) को इसके साथ जोड़ दिया गया था। बाद में, 1999 में हर क्षेत्र में भारीभरकम खुफिया विफलताओं के बाद, जब हमारी सुरक्षा एजेंसियां कारगिल क्षेत्र में नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तानी घुसपैठ का पता लगाने में विफल रही थीं, तब भारत के शीर्ष रक्षा प्रबंधन और उसकी सभी सुरक्षा संस्थाओं की एक व्यापक समीक्षा करने का फैसला किया गया था।
भारतीय सेना द्वारा, भारतीय वायु सेना की सहायता से कारगिल की पहाडि़यों से पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार भगाए जाने के बाद गठित की गई कारगिल समीक्षा समिति (केआरसी) ने वास्तव में भारत में शीर्ष रक्षा प्रबंधन के बारे में व्यापक सिफारिशें करने का एक उत्कृष्ट काम किया है। जाने-माने सुरक्षा विश्लेषक स्व. के़ सुब्रमण्यम के नेतृत्व में केआरसी ने रक्षा सुधारों के संबंध में अपने सुझाव दिए और व्यापक सिफारिशें कीं, जिन्हें वाजपेयी सरकार द्वारा गठित मंत्रियों के उच्चाधिकार प्राप्त समूह (जीओएम) द्वारा किए गए पुनरीक्षण के बाद स्वीकार कर लिया गया। राष्ट्र के शीर्ष रक्षा प्रबंधन को व्यवस्थित करने और नई संरचनाओं के निर्माण के लिए सरकार द्वारा अधिकृत कई सुधारों में से सबसे उल्लेखनीय था तीन सेवाओं की रक्षा खुफिया एजेंसी (डीआईए) की स्थापना, ताकि मौजूदा सेवा खुफिया निदेशालयों के कामकाज का समन्वय किया जा सके और उपग्रह से प्राप्त चित्रों और संचार खुफिया में तीनों सेवाओं की सामरिक खुफिया परिसंपत्तियों को नियंत्रित किया जा सके। इसके अलावा, राष्ट्रीय तकनीकी सुविधा संगठन (एनटीएफओ) को स्थापित किया जाना था और उसे प्रधान तकनीकी खुफिया एजेंसी बनाया जाना था, जिसका नामकरण बाद में राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (एनटीआरओ) के रूप में किया गया था। एनटीआरओ को मिले प्राधिकार ने एनटीआरओ और इसके पहले के अवतार एआरसी और रॉ के बीच कुछ विवाद पैदा किया, क्योंकि सौंपी गई कुछ जिम्मेदारियां दोनों के पास थीं।
पुन: नवंबर, 2008 में मुंबई में हुए भीषण पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमले के बाद देश के खुफिया तंत्र का अतिरिक्त पुनर्गठन किया गया। आईबी को प्रमुख आतंकवाद विरोधी संस्था के रूप में नामित किया गया और उसे दिल्ली में मल्टी एजेंसी सेंटर (मैक) और राज्य स्तर पर सहायक मल्टी एजेंसी सेंटर (एसमैक) स्थापित करने का काम सौंपा गया, ताकि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सभी सूचनाएं एकत्र की जा सकें और खुफिया जानकारी का प्रसंस्करण किया जा सके। राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र (एनसीटीसी) का प्रस्ताव अपने चार्टर और केंद्र और राज्यों के बीच जिम्मेदारियों में मतभेद के कारण शुरू होने में नाकाम रहा। भारत का आंतरिक सुरक्षा का माहौल अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है। सीमा पार से जारी गंभीर आतंकवाद से लेकर, कुछ पूवार्ेत्तर राज्यों में कभी शुरू-कभी बंद होने वाले घरेलू विद्रोह, लगभग एक तिहाई भारत को प्रभावित करने वाला लगातार बढ़ता माओवादी उग्रवाद, उभरते आईएसआईएस आतंकी संगठन सहित छिपा इस्लामी उग्रवाद, सांप्रदायिक और सामुदायिक हिंसा, अवैध घुसपैठ, हमारे कुछ पड़ोसी देशों से मानव और मादक पदाथोंर् की तस्करी और काले धन को वैध बनाने जैसे कुछ भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए विभिन्न खतरे हैं।
खेद की बात है कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में अशांति भड़काने और अलगाव की आग में घी झोंकने का काम करने की अपनी आत्मविनाशी नीतियों को जारी रखे हुए है और अब एक बार फिर से पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहा है। पंजाब और अन्य राज्यों में आसन्न राज्य विधानसभा चुनाव पाक प्रायोजित आतंकवादियों को सीमा पार से और भीतर से शरारत करने का एक अवसर मुहैया करा देते हैं। भारत चीन की ओर से भी जटिल खतरों का सामना कर रहा है, जिसके तेज आर्थिक और सैन्य विकास ने उसे भारत की विवादित भूमि सीमाओं और एशिया प्रशांत समुद्री क्षेत्र में भी ज्यादा से ज्यादा आक्रामक बना दिया है। खुफिया जानकारी जुटाने के अपने विविध रूपों के साथ भारत की समुद्री निगरानी क्षमता को और अधिक तीक्ष्ण किए जाने की आवश्यकता है, जिसमें भारतीय नौसेना, तटरक्षक बल और तटीय राज्यों के साथ समुद्री निगरानी इकाइयों द्वारा तालमेल के साथ प्रयास हों। एक आतंक संचालित, परमाणु हथियारों से लैस पाकिस्तान, अकेले या चीन के साथ मिलीभगत में भारत की बाहरी खुफिया जानकारी जुटाने और विश्लेषण करने की क्षमताओं पर गंभीर दबाव बना देता है। दोनों देशों के परमाणु कार्यक्रमों और उनके कपटपूर्ण परमाणु प्रयासों पर प्रभावी ढंग से नजर रखने की
आवश्यकता है।
केंद्र सरकार के पास अगला संकट पैदा होने का इंतजार किए बिना भारत के सवार्ेच्च खुफिया प्रबंधन को कारगर बनाने का एक अनूठा अवसर है। हमारे विशाल खुफिया तंत्र को राष्ट्र के समक्ष मौजूद विविध सुरक्षा चुनौतियों को विफल करने के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम बनाने के लिए कुछ सुधार समय की मांग हैं। 14 नागरिक और सैन्य खुफिया एजेंसियां देश की खुफिया आवश्यकताओं की पूर्ति कर रही हैं। सबसे पहली बात यह है कि शीर्ष स्तर का खुफिया प्रबंधन वस्तुत: राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) द्वारा राष्ट्रीय गुप्तचर बोर्ड और संयुक्त खुफिया समिति (जेआईसी) के माध्यम से किया जाता है। विशेषज्ञों की राय है कि शीर्ष स्तर पर खुफिया काम सौंपने और उसका समन्वय करने के अलावा, एनएसए के पास बहुत अधिक काम है, और इस कारण भारत को, अमेरिका की भांति एक विशेष खुफिया प्रमुख की आवश्यकता है, जिसे राष्ट्रीय खुफिया समन्वयक का पदनाम दिया जा सकता है। यह राष्ट्रीय खुफिया समन्वयक सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को व्यापक एकीकृत खुफिया आकलन प्रदान करने में सक्षम होगा और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को राष्ट्र को प्रभावित करने वाले रणनीतिक मामलों और व्यापक विषयों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मुक्त कर देगा।
सिग्नल्स और संचार खुफिया सूचना, उपग्रह चित्रण, साइबर सुरक्षा आदि चीजें संसाधनों और देश की तकनीकी प्रगति पर निर्भर करती हैं और हम इस क्षेत्र में अच्छी तरह काम कर रहे हैं। हालांकि भारत की खुफिया एजेंसियां मानवीय खुफिया संसाधनों में अपर्याप्तता का सामना कर रही हैं और सरकार को इस महत्वपूर्ण और महती कार्य के लिए सही मानव संसाधनों को आकर्षित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए, जिसमें शिक्षा क्षेत्र, नागरिक प्रतिष्ठानों और आईटी और हमारे पड़ोस में प्रयुक्त भाषाओं में भाषायी कौशल सहित कर्मियों की भर्ती भी शामिल हो। डीआइए को भी विश्वभर में मानवीय खुफिया संसाधनों में विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए प्रयास तेज करना चाहिए, भले ही वह सैन्य पहलुओं के बारे में हो।
बाह्य खुफिया जानकारियां प्राप्त करने के लिए मानवीय क्षमताओं को रॉ के साथ समन्वित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त बेहतर सामंजस्य प्राप्त करने के लिए, बड़ी संख्या में विभिन्न सैन्य और नागरिक खुफिया एजेंसियों के जूनियर रैंक के अधिकारियों और ऑपरेटरों के बीच संपर्क तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है। एक ठोस शुरुआत के बाद कथित तौर पर डीआइए की असंख्य प्रतिभाएं और संसाधन अपनी क्षमता से कम कार्य में प्रयुक्त किए जाते प्रतीत होते हैं- यह वह पहलू है जिस पर तीनों मुख्यालयों सहित विचार किया जाना चाहिए।
डीआइए को भारत के हितों की विरोधी शक्तियों की गतिविधियों के संबंध में खुफिया जानकारी जुटाने और विश्लेषण के लिए पर्याप्त रूप से तैयार होना होगा, सिर्फ हिंद महासागर / प्रशांत महासागर आदि में ही नहीं, बल्कि जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, हमारे सीमावर्ती क्षेत्रों की परिधि में चीन की आक्रामक योजनाओं और बुनियादी ढांचे के विकास पर नजर रखने के लिए भी। महत्वपूर्ण तौर पर, सेना मुख्यालय को सीसीएस / रक्षा मंत्री को तीनों सेनाओं के साइबर कमान की स्थापना को प्राधिकृत करने और साइबर युद्ध के आक्रामक और रक्षात्मक दोनों पहलुओं के लिए पर्याप्त क्षमता सुनिश्चित करने के लिए असर डालना चाहिए। सूचना युद्ध की सभी बारीकियों में चीन का विकास अभूतपूर्व है और भारतीय खुफिया एजेंसियों को, विशेष रूप से एनटीआरओ और डीआइए को उनकी योजना और समन्वय में एक पहलू के रूप में सामने आने की आवश्यकता है।
केंद्र सरकार को विभिन्न पुलिस सुधार आयोगों की अच्छी सिफारिशों को तेजी से लागू करना चाहिए, जो धूल खा रही हैं, और जो विशेष रूप से वामपंथी उग्रवाद और घरेलू विद्रोहों से पीडि़त क्षेत्रों में जमीनी स्तर पर पुलिस व्यवस्था और खुफिया जानकारी जुटाने को सुदृढ़ बनाएंगी। वैश्विक समस्याओं के लिए वैश्विक समाधानों की आवश्यकता होती है और इस कारण खुफिया एजेंसियों को, निश्चित रूप से अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए और कितना साझा किया जा सकता है- यह ध्यान में रखते हुए, अपने संसाधनों का तालमेल बैठाने की दिशा में काम करना होगा। इंटरपोल दुनियाभर में जांच एजेंसियों के बीच खुफिया जानकारी साझा करने का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है।
यह पूरी तरह भारत के हित में होगा कि वह खुफिया तंत्र को एक प्रभावी बलबहुगुणक के रूप में और हमारे तेजी से अशांत हो रहे क्षेत्र और विश्व में भारत की शासन कला के लिए एक उपयुक्त हथियार के रूप में विकसित करे और उसका दोहन करे।
(लेखक एकीकृत रक्षा स्टाफ के उप प्रमुख रहे हैं)
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