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एक संप्रभु राष्ट्र के नाते भारत सदा खतरे से घिरा रहा है। उसे खतरा सिर्फ पड़ोसी देश से ही नहीं है, खतरा धुर पूर्व में चीन से भी है। भारत की सीमाओं को जितना सुरक्षित रखना चाहिए हम उन्हें उतना सुरक्षित नहीं रख पाए हैं। दुनिया के तेजी से बदलते रक्षा-हालातों को ध्यान में रखते हुए हमें अपने मोर्चे को चुस्त-चौकस रखने को प्राथमिकता देनी होगी
अनिल कम्बोज
प्रतिदिन सामने आ रहे नए खतरों को देखते हुए भारत की सशस्त्र सेनाओं को हर समय सतर्क रहना पड़ता है। लेकिन इससे पहले कि हम इस विषय के विस्तार में जाएं, हमें इन खतरों का मतलब समझना होगा। दरअसल, खतरा आपके विरोधी का लक्ष्य होता है, या किसी तंत्र को उसके विरोधी द्वारा पहुंचाया जाने वाला नुकसान। खतरे को दो तरीके से पारिभाषित किया जा सकता है: एक, हमलावरों द्वारा हमारे तंत्र की कमियों का लाभ उठाना, और दो, हमारी परिसंपत्तियों को उस खतरे से होने वाला नुकसान। पिछले कुछ समय से जहां भारतीय अर्थव्यवस्था ने 7़ 4 प्रतिशत की दर से अभूतपूर्व विकास किया है, वहीं देश के समक्ष भीतरी और बाहरी खतरे भी मुंह बाए खड़े हैं। इसलिए यदि सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर समय रहते कार्रवाई न की गई तो विकास की रफ्तार रुक जाएगी।
सच यह है कि भारत को उसके पड़ोसी देशों के कारण लगातार अनिश्चितता के माहौल में रहना पड़ता है। हमारी मौजूदा सरकार की सख्त कार्यनीति का सीधा असर पाकिस्तान और चीन पर पड़ा है। यही कारण है कि पाकिस्तान आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ चुका है। केवल चीन ही है जो पाकिस्तान को उसकी सरजमीं से चलाई जाने वाली आतंकी गतिविधियों या आतंकी सरगना मसूद अजहर के मुद्दे पर सहयोग देता है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) और पाकिस्तान में चीन के 46 अरब डॉलर के निवेश से उसको अब तक चीन का सबसे बड़ा सहयोग प्राप्त हुआ है। वहीं चीन और पाकिस्तान के साथ अभी तक अधूरे पड़े सीमा विवाद अधिकांश बाहरी खतरों का मूल कारण हैं। इसके अलावा, आईएसआई की सरपरस्ती में जम्मू एवं कश्मीर में चलने वाला जिहादी आतंक और पाकिस्तान में मौजूद लश्कर-ए-तैयबा एवं जैश-ए-मोहम्मद जैसे इस्लामिक कट्टरवादी संगठन, जिनके तार तालिबान और अल कायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय जिहादी गुटों से जुड़े हैं, भारत के लिए बड़ी चुनौतियां हैं।
हालांकि, बंगलादेश से खतरा कुछ कम हुआ है, लेकिन वहां से भी जिहादियों द्वारा देश में दाखिल होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। बंगलादेश के चटगांव पहाड़ी दरार्ें में एटीटीएफ, एनएलएफटी जैसे पूवार्ेत्तर के विद्रोही गुटों के कुछ ठिकाने हैं। वहीं म्यांमार के जंगल ढके सीमांत पहाड़ी क्षेत्र भी नागा विद्रोहियों के अलावा, उल्फा एवं पीएलए, यूएनएलएफ और मणिपुर के केवाईकेएल जैसे गुटों के बचे-खुचे उपद्रवियों के लिए पनाहगार बने हुए हैं।
भारत का ध्यान 'बिमस्टेक' पर केंद्रित होते ही चीन ने बंगलादेश में अपनी गतिविधियों की शुरुआत कर दी थी। बिमस्टेक भारत के पूर्व में स्थित देशों के साथ बीजिंग के असर को कम करने के लिए आरंभ किया गया क्षेत्रीय संगठन है। ढाका द्वारा चीन निर्मित कुछ पनडुब्बियों की खरीद योजना के बाद उसके चटगांव तट पर चीन के तकनीशियनों और प्रशिक्षकों की आवाजाही बढ़ सकती है। चटगांव क्षेत्र पर पहले भारत अपना वर्चस्व चाहता था। श्रीलंका की ओर से भी भारत को कुछ सुरक्षा संबंधी चुनौतियां मिल रही हैं। श्रीलंका के एक तटीय शहर में चीनी पनडुब्बी का पहुंचना भारत के लिए चिंता का विषय रहा है।
हाल में चीन की परमाणु पनडुब्बी भी पाकिस्तानी तट पर दिखी। वहां से वह भारतीय नौसैनिक बेड़ों की गतिविधियों पर नजर रख रही है। दरअसल, चीन हिंद महासागर में अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है। मालदीव के भी सऊदी अरब और पाकिस्तान से गहरे रिश्ते हैं। पाकिस्तान ने सीमा के निकट कुछ विशेष क्षेत्रों में छोटी दूरी तक मार करने वाले परमाणु हथियार जमा रखे हैं। इन परमाणु हथियारों को वहां के क्षेत्रीय कमांडरों की कमान में रखा गया है। कोई भी कट्टरवादी इस्लामिक सोच वाला कमांडर उन्हें इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करेगा। पाकिस्तान के मौजूदा हालात को देखते हुए परमाणु हथियारों के जिहादियों के हाथ पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।
नेपाल में प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के बाद, वहां चीन के बढ़ते असर में कोई कमी नहीं देखी गई। प्रचंड के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री के़ पी़ ओली द्वारा चीन के साथ की गई संधि की दिशा मोड़ना लगभग असंभव है। अब केवल यह देखना शेष है कि ल्हासा-काठमांडु व्यापार गलियारा खुलने के बाद भारत और नेपाल की व्यापार धारा कितनी गहरे जुड़ पाती है। वैसे मौजूदा दौर में कोलकाता तट तक नेपाल की पहुंच के कारण परिस्थितियां भारत के पक्ष में हैं। परंतु यदि चीन तिब्बत में निर्माण इकाइयां फिर स्थापित करता है, तो न केवल नेपाल के साथ भारत के व्यापार का अहित होगा, बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर भी इसका असर पड़ सकता है। बाहरी सुरक्षा खतरों से पहले जरूरी है कि देश के अंदर बैठे दुश्मन की पहचान करके अपनी कमियों को दुरुस्त किया जाए।
भारतीय समाज में कई सामाजिक-आर्थिक एवं पांथिक तनाव मौजूद हैं जिनका असर हमारे बहुलतावादी समाज की एकता पर पड़ता है। विशेषकर जहां विवादों में हिंसा शामिल हो, वहां और मुश्किल खड़ी हो जाती है। आरक्षण आधारित वोट बैंक की राजनीति के कारण विभिन्न समुदाय अपनी स्वघोषित जातीय प्रभुसत्ता के आधार पर जातिगत हिंसा को अंजाम देते हैं। इसलिए जातीय भेदभाव को हटाकर शांति एवं सौहार्द स्थापित करने के लिए व्यापक सामाजिक-पांथिक सुधारों की जरूरत है। बढ़ती बेरोजगारी एवं नित चौड़ी होती आर्थिक असमानता ही सामाजिक तनाव और टकराहट का कारण बनती है। निजीकरण एवं वैश्वीकरण ने आग को और हवा दी है, जिससे अमीर वर्ग और अमीर हो रहा है तो निर्धन लगातार गरीबी में धंसता जा रहा है। ऐसे हालात का विभिन्न वामपंथी उग्रवादी संगठनों ने लाभ उठाया है। नक्सली/माओवादी गुट आमजन और सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर अपना तंत्र मजबूत कर रहे हैं।
इसके साथ ही, भारत की 15,200 कि़ मी़ (पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, चीन, बंगलादेश एवं म्यांमार), एवं 106 कि़ मी़ (अफगानिस्तान के साथ भी) लंबी सीमा एवं 7,515 कि़ मी़ लंबी तटवर्ती सीमा की भी हर समय निगरानी रखती पड़ती है। जमीनी सीमा की देखभाल सेना, सीमा सुरक्षा बल, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस एवं सीमा सशस्त्र बल करते हैं। लगभग खुली म्यांमार सीमा पहाड़ी और पठारी क्षेत्र के घने जंगलों से घिरी है। इसकी निगरानी की जिम्मेदारी असम राइफल्स की है जो कि सीमा से 50 कि़ मी़ अंदर अपने क्षेत्र में तैनात रहती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सीमा के दोनों ओर चौकसी लगभग नहीं है।
भारत-पाक सीमा की निगरानी करने वाला सीमा सुरक्षा बल अत्याधुनिक रडारों से लेकर ऊंट सवार सैनिकों के जरिये काम करता है। भारत-भूटान सीमा पर केवल जयगांव एवं हतीसार इलाकों में दो कस्टम स्टेशन हैं। हालांकि, सीमा पार से आने वाला अधिकांश सामान इन स्टेशनों से होकर नहीं निकलता पर उस पर कस्टम की आधिकारिक मोहर भी नहीं होती। भारत-नेपाल और भारत-भूटान सीमा के दोनों ओर घनी आबादी वाले गांव हैं। और चूंकि इन क्षेत्रों में केवल सीमा सुरक्षा बल ही तैनात है जिनकी क्षमता भी सीमित ही होती है, इसलिए इन क्षेत्रों की सीमाओं के खुले होने की जानकारी आम है। सीमावर्ती क्षेत्रों में मौजूद सशस्त्र बलों की जरूरत के अनुसार तकनीक का इस्तेमाल भी बहुत सीमित है।
मुंबई आतंकी हमलों के दौरान जिस तटीय सीमावर्ती क्षेत्र से आतंकी आए थे, उसकी देखभाल राज्य पुलिस पर छोड़ दी गई है जिसके पास संवेदनशील तटवर्ती सीमा की निगरानी के लिए उचित साधन भी उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि, समुदी क्षेत्र में तटरक्षक गश्त पर रहते हैं, लेकिन विशाल सागर से घुसपैठ करना मुश्किल नहीं है। इसे देखते हुए तटवर्ती कमान का गठन किया गया था। कुछ रडार भी स्थापित किए गए थे। फिर भी, पश्चिमी समुद्री क्षेत्र में हजारों बड़ी व छोटी नावों के बावजूद, सुरक्षा संबंधी खतरे अभी भी
विकट हैं।
हमारे पूर्वी तट पर अनेक रक्षा अनुसंधान संस्थान मौजूद हैं। डीआरडीओ एवं अंतरिक्ष विभाग पूर्वी तट का खासा इस्तेमाल करते हैं और बंगाल की खाड़ी में तेल एवं गैस की खोज के लिए व्यापक कार्यक्रम चल रहा है। इस सबके बीच केवल नौसेना एवं कुछेक तटरक्षक नावों और नाममात्र की तकनीकी मदद के, पूर्वी तटीय रेखा पर सुरक्षा के इंतजामों के लिए तकनीक का इस्तेमाल जरूरत के अनुसार अभी तक नहीं किया गया है। हाल में गृह मंत्रालय ने भारत की तटीय सीमा रेखा की निगरानी के लिए एक नए सशस्त्र बल के गठन को मंजूरी दी है। प्रश्न उठता है कि नया सशस्त्र बल क्यों? क्या यह उन अफसरों की सहूलियत के लिए तैयार किया जा रहा है जिन्हें एक वाहिनी से दूसरे में छलांगें लगाने की आदत होती है?
हवाई सुरक्षा के लिए हम वायु सेना पर आश्रित हैं। यह रक्षा सेनाओं का तकनीकी तौर पर सबसे कुशल धड़ा है। अंतरिक्ष में मौजूद हमारे कुछ उपग्रह अधिकांशत: संचार व्यवस्था, मौसम की भविष्यवाणी और अन्य शांतिपूर्ण कायार्ें को समर्पित हैं। कुछ उपग्रह निगरानी करने योग्य हैं, लेकिन हम अंतरिक्ष के सैन्यीकरण न किए जाने की अंतरराष्ट्रीय संधियों से बंधे हैं।
भूमि, वायु एवं अंतरिक्ष के अतिरिक्त एक अन्य क्षेत्र है साइबर स्पेस का। हमारी अवसंरचना का बड़ा हिस्सा साइबर स्पेस में निहित है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हैकिंग, वित्तीय घोटाले, डाटा चोरी, जासूसी आदि की घटनाएं आतंकी हमलों की श्रेणी में आती हैं। इतना ही नहीं, वित्त, रेल, हवा, ऊर्जा, साइबर हमलों से महत्वपूर्ण सूचना की चोरी का अर्थ भी आतंकी हमलों से लगाया जाता है। अत: साइबर स्पेस में खतरों से जूझने के लिए हमें नई तकनीक पर जोर देना ही होगा। इसके लिए साइबर स्पेस के खतरों का सामना करने के लिए हमने हल्की सी शुरुआत की है।
भारत में कई खुफिया एजेंसियां कार्यरत हैं, लेकिन अफसोस इस बात का है कि आपदा के समय में सूचना का आदान-प्रदान बेहद सुस्त रहता है। इसलिए बिना बेहतर शासन प्रणाली, डिलिवरी सिस्टम एवं उसे कुशलता से अमल में लाने के, भारत अपने नागरिकों को शिक्षित नहीं कर सकेगा, अपनी अवसंरचना, कृषि उत्पाद एवं आर्थिक विकास के लाभ आमजन तक पहुंचाना सुनिश्चित नहीं कर सकेगा। जनता द्वारा अधिकाधिक अपेक्षा के अनुसार सरकार एवं सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों द्वारा बेहतर सेवा न दिए जाने से शासन प्रणाली संबंधी समस्याएं उपजती हैं। प्रदत्त सेवाओं की गुणवत्ता एवं उसके व्यावहारिक रूप के बीच बड़े अंतर के कारण नागरिक असंतुष्टि बढ़ती है। इससे अस्थिरता एवं कानून-व्यवस्था संबंधित समस्या खड़ी हो सकती है जो कि सुरक्षाबलों के लिए चुनौती साबित होती है।
देश की सुरक्षा के सम्मुख खतरों को गौर से देखें तो पता चलता है कि उनमें से हरेक खतरा अन्य चुनौतियों से सीधा जुड़ा है। उदाहरण के लिए, आतंकवाद का खतरा व्यापक जनसंहार के हथियारों सहित अन्य हथियारों के प्रसार से संबंधित है। हमारे तटवर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा को खतरा ऊर्जा क्षेत्र के सामने खड़े खतरों से संबद्ध है। छिटपुट झड़पें सीधे सामाजिक समरसता पर असर डालती हैं। इसलिए तकनीकी सुरक्षा नए संस्थानों के निर्माण में सहायक सिद्ध हो सकती है। प्राकृतिक आपदाएं, खासकर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी घटनाएं, खाद्य सुरक्षा को नुकसान पहुंचा सकती हैं। काबू से बाहर होने पर महामारियां एवं गंभीर रोग, बाहरी दुश्मनों से सीमा सुरक्षा करने एवं देश के भीतर के उपद्रवी तत्वों से जूझने की हमारी क्षमता पर असर डाल सकते हैं। अत: कहना न होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा मकड़ी के घने जाल में फंसी हुई सी लगती है और यदि हम इस जाल के सभी तंतुओं का एक-दूसरे से संबंध नहीं जान लेते, देश की सुरक्षा से जुड़ी अपनी बुनियादी जिम्मेदारी
को ठीक से अंजाम नहीं दे पाएंगे, जो कि बेशक हमारे सुरक्षा बलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
(लेेखक सीमा सुरक्षा बल के महानिरीक्षक रहे हैं)
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