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भारत को जिस तरह की वैश्विक चुनौतियां मिल रही हैं, उन्हें देखते विशेष चौकसी की जरूरत है, साथ ही सुरक्षा तंत्र का पुनर्गठन भी जरूरी है। आने वाले समय में दुनिया के लिए भारत की भूमिका बढ़ने वाली है। लिहाजा हमें अपनी सुरक्षा के लिए विशेष तैयारी करनी होगी
आलोक बंसल
बदलते भू-राजनीतिक माहौल के अनुसार भारत के सुरक्षा संबंधी खतरों का रूप भी बदल रहा है। हालांकि देश में सुरक्षा संबंधी अवसंरचना बदलते परिवेश के अनुसार नहीं बदली है। इसलिए जरूरी है कि इस तथ्य पर विचार किया जाए कि क्या हमारे सुरक्षा तंत्र को उस हिसाब से तैयार किया गया है जिसे भावी नेतृत्व राष्ट्रीय हितों में काम करने के लिए इस्तेमाल कर सके? दूसरे शब्दों में कहें तो यह कि क्या हमारा सैन्य तंत्र कल के खतरों का सामना करने के लिए तैयार है? अफसोस कि इसका उत्तर ना में है। हमारा सैन्य तंत्र बीते कल के खतरों का सामना करने लायक जरूर है, भविष्य की चुनौतियों का नहीं। इसलिए नए खतरों और उनके संबंध में अपनी शक्ति का आकलन किए जाने की गहरी जरूरत है।
वैश्विक परिदृश्य बदल रहा है। डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा आने वाले समय में अधिकाधिक अपने हितों से जुड़ी नीतियों पर चलने की संभावना दिखती है। आव्रजन पर रोक लगेगी और इस कारण दुनिय भर से हुनरमंद लोगों का अमेरिका की ओर खिंचाव कम होगा और ऐसा होते ही अमेरिका की तकनीकी दक्षता कुंद पड़ सकती है। वहीं अमेरिका वैश्विक पहरेदार की भूमिका भी नहीं करना चाहेगा और इससे अन्य देशों, विशेषकर भारत को अपने क्षेत्र की व्यवस्था खुद ही देखनी होगी।
चीन दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर उभरा है और उसकी सैन्य शक्ति भी असाधारण है। हालांकि उस पर उत्पीड़न के आरोप भी दिखते हैं। हाल के वषार्ें में रूस को भारत-अमेरिकी संबंधों की बढ़ती घनिष्ठता से कुछ बेचैनी हुई है। कुछ ही समय पहले पाकिस्तान, चीन और रूस के बीच बैठक इस दिशा की ओर स्पष्ट संकेत करती थी। भारतीय नीति निर्माताओं को सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा ध्रुवीकरण न हो। ट्रंप के राष्ट्रपतित्व काल में अमेरिका व रूस की दोस्ती की संभावना से भारत के लिए यह काम आसान होना चाहिए।
शुरुआती दशकों में भयावह दिखने वाले पाकिस्तान व चीन से जुड़े विवादों के कारण भारतीय रक्षा सेनाओं की असंयमित वृद्धि हुई। इसके बावजूद, यही मानना उचित होगा कि आगामी दशक में पाकिस्तान एवं चीन किसी बड़े मुकाबले की कोशिश करेंगे। उल्लेखनीय है कि परमाणु हथियारों की पृष्ठभूमि में लंबी लड़ाई की संभावना कम है। हालांकि, फिर भी इससे पारंपरिक युद्ध का खतरा कम नहीं हो जाता, परंतु कोई भी लंबा चलने वाला सैन्य अभियान उस देश के अस्तित्व के लिए खतरनाक होता है। पाकिस्तान की भारत पर पारंपरिक युद्ध थोपने की क्षमता बहुत क्षीण हो चुकी है। यही कारण है कि वह विभिन्न राज्य पोषित व बाहरी तत्वों के दम पर छद्म युद्ध को अंजाम दे रहा है।
दूसरी ओर चीन काफी आगे बढ़ चुका है, परंतु जनसंख्या के बोझ ने उसके आर्थिक विकास को धीमा किया है और वह इस समय अपनी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने में लगा है। खासकर, भारत के संदर्भ में उसका प्रमुख लक्ष्य उसे पश्चिमी जगत का साथी बनने से रोकने का है। ऐसे में तनाव की सूरत में भारत निश्चित ही अमेरिका का सहयोगी बनेगा और चीन ऐसा कभी नहीं चाहता। हालांकि, वास्तविक सीमारेखा (एलएसी), जो न स्पष्ट तौर पर निर्धारित है और न ही खींची गई है, का हमेशा बने रहना संभव है। फिर भी दीर्घकालिक संघर्ष किसी देश के हित में नहीं होगा। उल्लेखनीय है कि हिंद महासागर में चीन के मुकाबले भारत बेहतर स्थिति में है। हिंद महासागर से बड़ी संख्या में चीनी जहाज गुजरते हैं।
भारत को बड़ा खतरा उन राज्यहीन तत्वों से हो सकता है जिन्हें भारत के चारों ओर फैली चरमपंथी विचारधारा के जरिये कुछ बाहरी देश प्रश्रय देते हैं। निकट भविष्य में भारत को सबसे बड़ा खतरा वैश्विक इस्लामिक कट्टरवाद से होगा। अल कायदा और इस्लामिक स्टेट के सिर उठाने के बाद, दक्षिण एशिया का मुस्लिम युवा कट्टरवाद के रास्ते पर चल रहा है और कई बार यह भारत की सुरक्षा के लिए बहुत खतरनाक मुद्दा बन जाता है। लंबे समय से पाकिस्तान उग्रवादी इस्लामिक गुटों को भारत के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है, हालांकि, भारत के सुरक्षा तंत्र ने इसे केवल कानून-व्यवस्था की समस्या के तौर पर ही देखा है। उसका मानना है कि बंदूक और लाठी की ताकत से समस्या सुलझ सकती है, परंतु वह इस युद्ध के वैचारिक पक्ष की ओर ध्यान नहीं देता। ऐसे खतरों से जूझने के लिए भारत को मनोवैज्ञानिक कार्य प्रणाली का सिद्धहस्त होना पड़ेगा।
नए खतरों के कारण नित नई जगहों पर हमले का डर भी बढ़ गया है। न केवल हमारे वायु और अंतरिक्ष संस्थानों पर खतरा है, साइबर आतंकवाद भी गंभीर खतरा बन गया है। तकनीक के आगमन के बाद, इंटरनेट एवं कंप्यूटरों पर निर्भरता बढ़ी है और इसी कारण साइबर युद्ध एक कारगर औजार बन गया है। खास बात यह कि जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था की ऱफ्तार तेज होगी, भारत का कार्यक्षेत्र भी बढ़ेगा, जिस कारण सशस्त्र सेनाओं को न केवल भारत के महत्वपूर्ण हितों की रक्षा हेतु आगे आना पड़ेगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के एक महत्वपूर्ण सदस्य के तौर पर उसे वैश्विक जिम्मेदारियां भी
उठानी होंगी।
इसलिए यह बेहद स्पष्ट है कि रक्षा से जुड़ी भारत की भावी चुनौतियां अपने में बहुत अलग होंगी और फिलहाल हमारे रक्षा दल इन चुनौतियों का सामना करने को तैयार नहीं हैं। भविष्य के युद्ध 1965 या 1971 की तरह नहीं होंगे जो कि मूलत: थलसेना ने लड़े थे और जिनमें नौसेना एवं वायुसेना ने सहयोगी भूमिकाएं निभाई थीं। भावी संघर्ष छोटे व गहन होंगे जिसमें सभी शक्ति दल – साइबर सहित और संभवत: अंतरिक्ष या परमाणु शक्ति – एक साथ तैनात किए जाएंगे। अत: सहक्रिया एवं पारस्परिकता की जरूरत न केवल विभिन्न सशस्त्र दलों के बीच है, बल्कि यह राज्य के अन्य धड़ों के बीच भी दिखनी चाहिए। जरूरी यह भी है कि बढ़ती ताकत के रूप में भारतीय सशस्त्र बलों को देश की सरहदों से दूर भी तैनात होना चाहिए। इसके लिए जरूरी हो जाता है कि भारतीय सैन्य तंत्र, प्रक्रिया, कमान और संचालन लचीला हो और उसे समुद्र पार भी जल्दी से तैनात किया जा सके। जरूरी है कि भारतीय सैन्य तंत्र की जल-थल एवं वायु क्षमताओं में असीम विस्तार हो। इसी तरह विशेष ऑपरेशन्स को भी उचित महत्व दिया जाए क्योंकि भारतीय सेनाओं को विदेशी भूमि पर मौजूद आतंकी ठिकानों को समाप्त करने के लिए भी भेजा जा सकता है। साथ ही, हमारी सामरिक शक्तियों को युद्धकला सिद्धांत के साथ एकमेव किया जाना चाहिए।
इसलिए भारतीय रक्षा सेनाओं को पुन: संगठित करना जरूरी है। इसके लिए एक आदर्श ढांचा अमेरिकी हो सकता है, जिसमें मंत्रिमंडल को जवाबदेही के लिए जिम्मेदार एक संयुक्त कमान हो, जहां तीनों सेनाओं के प्रमुख अपने दलों को संगठित, सुसज्जित करने एवं प्रशिक्षण देने के लिए जिम्मेदार हों। तीनों सेना प्रमुखों से अलग सरकार के सैन्य सलाहकार के तौर पर एक चेयरमैन ऑफ जॉइंट चीफ हो, जिसका चुनाव नौकरशाही में से न हो। यह एकीकरण समय की बड़ी जरूरत है, हालांकि दुनिया में कहीं भी रक्षा सेनाएं अपनी खुशी से इस काम के लिए एक साथ आगे नहीं आई हैं। उनके वांछित हितों और आंतरिक कलह ने उन्हें ऐसा करने से रोका है। ऐसे बड़े बदलाव हमेशा राजनीतिक नेतृत्व की ओर से किए गए हैं और भारत में यह जरूर लागू किए जाने चाहिए। इसकी शुरुआत के लिए स्थान मुहैया करा कर तीनों सेनाओं को प्रशिक्षण के लिए साथ लाया जाए। रक्षा सेनाओं में औपनिवेशिक असर और सामंती मानसिकता को हटाने वाले सांस्कृतिक परिवर्तनों को अमल में लाया जाए। इस तथ्य पर भी विचार किया जा सकता है कि रक्षा सेनाओं को केवल आंतरिक अव्यवस्था में अंतिम विकल्प के तौर पर ही इस्तेमाल किया जाएगा। इसी तरह, सीमा सुरक्षा या घुसपैठ का मुकाबला करने के लिए विभिन्न एजेंसियों का इस्तेमाल युवाओं के करियर निर्माण के लिए बशर्ते बेहतर हो, परंतु इससे सहयोग एवं कार्य को कुशलता से अंजाम देने पर असर पड़ता है।
इक्कीसवीं सदी में वैश्विक नेतृत्व की दिशा में बढ़ते भारत के लिए जरूरी हो जाता है कि इसके राजनेता सुरक्षा योजना की बारीकियों को समझें। बिना नौकरशाही या सैन्य सलाह के वह भावी चुनौतियों की कल्पना कर सकने लायक हों। राजनीतिक नेतृत्व को भारतीय सैन्य व्यवस्था का पुनर्गठन से जुड़ी जरूरत को राजनीतिक गहराई से समझना होगा क्योंकि इससे जुड़े कुछ मुद्दों का आकलन विशिष्ट संदभार्ें में ही किया जा सकता है। भारत की जरूरतों पर खरा उतरने वाला सैन्य दलों का पुनर्गठित रूप, उसका खाका और श्रेष्ठतम स्वरूप राजनीतिक नेतृत्व द्वारा ही तैयार किया जाना चाहिए। जैसा कि कहा भी जाता है कि युद्ध की जिम्मेदारी जनरलों पर छोड़ दी जानी चाहिए, न कि उन सुस्त नौकरशाहों पर जो कि मंत्रालयों की बागडोर संभालते हैं।
(लेखक इंडिया फाउंडेशन के निदेशक हैं और
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